
वह जो शरीर सहन नहीं कर सकता
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प्रेम व प्रसन्नता का अभाव। शरीर में जितने भी रोग होते है, हम यह तो नहीं कह सकते कि उनका सम्बन्ध कितने प्राचीन समय और पिछले जन्मों से होता है पर यह निश्चित है कि शरीर में रोग और विजातीय द्रव्य, जिससे बीमारी और दुर्बलता का विकास होता है, अधिकाँश मनोविकारों की देन होते है। चिन्ता, द्वेष, क्षोभ, दम्भ, पाखण्ड, अभिमान, असत्य भाषण, चुगली, निराशा, तृष्णा, कुत्सा का सदैव मस्तिष्क में छाये रहना, यही वह कारण है जिनसे रोग पैदा होते है। शरीर और सब कुछ सह सकता है पर यही वह दूषित तत्व है जो स्वास्थ्य और आरोग्य को नष्ट कर डालते है।
यदि मनुष्य अपने मस्तिष्क में रचनात्मक और प्रसन्नता दायक विचार रखकर जीवन यापन कर सके तो वह सम्पूर्ण आयु स्वस्थ और निरोग जीवन जी सकता है। औषधि की आवश्यकता को भी वह निरस्त कर सकता है।
नैपोलियन सेंट हेलेना में था, तब उसके पेट में दर्द रहा करता था। डाक्टरों ने निरीक्षण करके बताया पेट का कैंसर या गैस्टिक अल्सर है। औषधि प्रारम्भ हुई। बहुत दिन तक दवा लेते रहने के बाद भी पेट ठीक न हुआ। एक दिन उसे ऐसा लगा कि दवा पेट ठीक नहीं कर सकती? क्यों उसने यह जानने का निश्चय किया। डाक्टर दवा लेकर आया तो उसने कहा-महाशय!यह दवा आज आप भी लें तो मैं अच्छा हो जाऊँ। डाक्टर हैरान था, बोनापार्ट कर क्या रहे है पर वीरवर नैपोलियन की बात न मानने की हिम्मत उसमें नहीं थी। बेचारे ने दवा पी थोड़ी देर में उसकी तबियत खराब हो गई। नैपोलियन ने कहा-जो दवा डाक्टर को अच्छा नहीं कर सकती, वह मुझे तीन जन्म में भी अच्छा नहीं कर सकती। उसे उन दिनों सैनिकों के विद्रोह का भीतरी भय बना रहता था, उस भय को उसने निकाल दिया और मृत्यु को निश्चित समझ कर पुनः प्रसन्न रहने लगा। डाक्टरों ने उसकी दुबारा परीक्षा की तो वे हैरान थे कि उसके रोग का पता ही न था। कहावत हो गई-नैपोलियन से रोग भी भय खाते है” पर सही बात यह थी कि उसके मनोबल ने उन अवांछनीय तत्वों को मार दिया जो पेट की बीमारी के रूप में उछल रहे थे।
अमेरिका में एक सर्वेक्षण में पाया गया कि पेट के बीमारों में से अधिकाँश मानसिक दुश्चिन्ताओं से ग्रस्त होते है उन्हें पेट के विकार प्रायः हमेशा बने रहते है। वैवाहिक जीवन सुखमय न हो, परिवार में कलह रहती हो, ऐसे लोगों को पेट की बीमारियाँ घेरे रहती है। 16 प्रतिशत पेट के रोगी वह होते है, जो साँसारिक संघर्षों के प्रति अपना मनोबल खो चुके होते है।
द्वितीय महायुद्ध के समय एक बार जर्मनी सैनिकों ने मित्र राष्ट्रों की सेनाओं पर तीव्र हमले प्रारम्भ किये। उससे सैनिकों का मनोबल टूट गया और उनमें से अधिकाँश पेट के रोगी होकर बिस्तरों में पड़ गये। डाक्टरों ने रिपोर्ट दी कि सिपाहियों का हौंसला टूट जाने से उन्हें हर समय दुश्चिन्ता घेरे रहती है। उससे वे कभी अधिक खा जाते है, कभी उन्हें ध्यान नहीं रहता कि खाया या नहीं जब तक ध्यान आता है, तब तक स्वाभाविक भूख मिट चुकी होती है। पेट में कोई ड़ड़ड़ड़ नहीं और कोई कीटाणु नहीं, पानी भी जाँच करके ही दिया जाता था, केवल हिम्मत हारने का ही परिणाम था कि सैकड़ों सैनिक पेट के बीमार हो गये।
भगवान ने मनुष्य शरीर ऐसा बनाया है कि यदि उसे खराब न किया जाये, उसमें मानसिक चिन्ताओं, कामनाओं, काम-वासना आदि दूषित विचारों का रोपण न किया जाये तो बड़े प्राकृतिक परिवर्तन मौसम के झटके और भूल से ग्रहण किये हुये विषैले खाद्य भी शंकर और मीरा के द्वारा विषपान के समान पचाये जा सकते है। मन खराब न हो तो तन कभी बिगड़ेगा नहीं, मौसम और परिस्थितियों में चाहे कितने ही जबर्दस्त परिवर्तन क्यों न होते रहें।
पोर्टलैण्ड (ओरगन) की 8 वर्षीय लड़की सड़क पर खेल रही थी, खेल में वह इतनी मस्त थी कि उसे पता भी न चला कि उधर से सड़क पीटने वाला इंजन दौड़ा आ रहा है। वह गिर पड़ीं। 3 टन वजन का रोलर पहिया उसके पैरों से निकल गया। इंजन आगे बढ़कर रुक गया। ड्राइवर यह देखकर भौचक्का रह गया कि वह लड़की उठकर खड़ी हो गई है और जिस लड़के के साथ खेल रही थी, उसे पकड़कर खिलखिलाकर हँस रही है, जैसे कुछ हुआ ही न हो।
बाद में अलबला में मैक्सफील्ड की एयर-यूनिवर्सिटी के नौसैनिक डाक्टरों ने इस घटना की जाँच की तो उन्होंने पाया कि जिस समय लड़की पहिये के नीचे थी, तब भी उसके मस्तिष्क में पहले वाली प्रसन्नता और मोद भाव गूँज रहा था। उसे रत्ती भर भय या चिन्ता नहीं हुई। इससे उसके शरीर में इतनी सहन शक्ति आ गई कि 3 टन वजन के पहिये से भी उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
एक बार अमेरिका में 10 अमेरिकी उड़ाकों ने उड़ान भरी। उन्हें किसी प्रकार के तूफान की आशंका नहीं थी, इसलिये उन्होंने ‘आइस कैप’ भी नहीं बाँधी थी, दुर्भाग्य से ग्रीनलैण्ड में वे एक बर्फीले तूफान में फँस गये। 88 दिन तक वे इसी अवस्था में पड़े रहे, शीत से बचने के लिये उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। तापमान शून्य से भी 40 डिग्री कम था। 10 दिन बाद जब खोजी विमानों ने आकाश से ताक कर देखा तो वे सभी सैनिक खेलने और आमोद प्रमोद में मस्त थे। जहाज उतर नहीं सकते थे, इसलिए 10 वे दिन से उन्हें आहार गिराना प्रारम्भ किया गया। 88 दिन तक वे ऐसे ही रहे और जब तूफान शाँत हुआ, वे बाहर निकाले गये तो स्वास्थ्य परीक्षण से यह पाया गया कि इतनी भयंकर सर्दी के बाद भी उनके शरीर में स्वास्थ्य की खराबी के कोई लक्षण नहीं थे।
फिलफीडिया (अमेरिका) की एक नर्स हेमेना का विवाह हुए कुछ ही दिन हुए थे कि वह एका एक बीमार पड़ गई। उस समय भी वह सदैव प्रसन्न और हँसमुख रहती थी। उसका पति जब भी उसे मिलने जाता उदास होकर जाता पर वहाँ से लौटता तो एक अजीब गुदगुदी लेकर आता। पत्नी उसे छेड़ और मजाक किए बिना न रहती। डाक्टर भी उसकी बेढब मस्ती से प्रभावित हुए बिना न रहे। किसी ने उसे अप्रसन्न नहीं देखा।
एक दिन अचानक उसका ज्वर बढ़ना प्रारम्भ हुआ। 107 डिग्री तक पहुँचते पहुँचते डाक्टरों ने घोषणा कर दी कि इसके मस्तिष्क को क्षति पहुँचेगी, यदि मृत्यु से बच भी गई तो निश्चित रूप से पागल हो जायेगी पर ज्वर इतने पर भा नहीं थमा। 110 डिग्री तक पहुँच कर उसने साँस ली। फिर बुखार उतरना प्रारम्भ हुआ। तापमान सामान्य हो जाने पर डाक्टरों ने परीक्षण किया तो वे हैरान थे कि उसके शरीर पर इतने बुखार का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
डा पाल एच॰ ड़ड़ड़ड़ ने ऐसी अनेक घटनाओं का संकलन कर लिखा है कि “मनुष्य शरीर से बड़ कर सहनशील और टिकाऊ यन्त्र” अभी तक बना नहीं। यदि उसे हमेशा प्रसन्नता और आमोद प्रमोद से चिकनाया जाता रहे तो न कभी जंग लगे, न ज्वर आये। आये भी तो उसका बाल भी बाँका न कर पाये।
मनुष्य भूलों का पुतला है। अब तक सम्भव है, भूलें बहुत हुई हों, उनके जो दण्ड प्रकृति द्वारा हमें मिल रहे है, या मिलने वाले है, उन्हें तो हम साहस पूर्वक सहन करके काट दें पर आगे के लिए यह उचित है कि मन में दुश्चिन्ताओं का, मनोविकारों का बोझ न पड़ने दे। कहते है मनुष्य खाना नहीं शक्ति और सौन्दर्य खाता है। जब वह भोजन शाँति, सन्तोष और प्रसन्नता में करता है। शरीर पोषण के लिये शक्ति पेट में बनती है। शक्ति और ओजस के कण जो सारे शरीर में बिखरे घूमते है, वह भी पेट के कारखाने में ही बनते और विकीर्ण होते है, यदि मानसिक दुश्चिन्ताओं का प्रकोप हो तो शक्ति का स्रोत अस्त-व्यस्त हो जाता है, पाचन और शक्ति चूसने की क्रिया पर दूषित प्रभाव पड़ता है। जाँच करने पर आमाशय में कोई खराबी नहीं मिलेगी तो भी शरीर अस्वस्थ रहेगा। ऐसे व्यक्तियों के लिये भावनाओं का प्रतिदान ही रामबाण औषधि है, उन्हें हर घड़ी प्रसन्न रहने औरों के साथ मीठा मधुर व्यवहार करने का प्रयत्न करना चाहिए, ताकि बदले में वही उसे भी मिलें। मानसिक प्रसन्नता ही जीवन है जबकि मनोविकार बोझ। जिसे शरीर कभी भी स्वीकार नहीं करता।
फिनलैण्ड की एक युवती बहुत बीमार थी। डाक्टरों ने जाँच करके बताया, इसे कैन्सर है। वह अविवाहित थी और गर्भाशय में रोग था, जिसे डाक्टरों ने असाध्य कह दिया था। युवती का जीवन अंधकार में भटक रहा था। गौनर मैटन नामक एक कवि उसके पड़ोस में रहता था। उसे इस लड़की से सहानुभूति थी। प्रायः उसे देखने जाया करता था। लड़की को उसका आना अच्छा लगता। वह उससे प्रेम भी करती थी। पर उसे यह विश्वास नहीं था कि मुझ रोगी से वह कभी विवाह करेगा। युवक की करुणा भी धीरे धीरे प्रेम में बदल गई। उसने अपनी ओर से विवाह का प्रस्ताव रखा। स्वीकृति मिल गई और विवाह भी हो गया।
असाध्य लड़की जो सदैव बिस्तर पर लेटी रहती थी, चलने फिरने लगी। यही नहीं वह कुछ ही दिन में गर्भवती भी हो गई। जून 1967 की बात है, उसे पुत्र पैदा हुआ। उन्हीं डाक्टरों ने जिन्होंने उसे असाध्य घोषित कर दिया था, उसकी जाँच की लड़के की भी मेडिकल जाँच की तो वे यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि युवती और नवजात शिशु में से किसी को भी रोग का धब्बा तक नहीं था। फिनलैण्ड में कुछ दिन इस घटना की बड़ी चर्चा हुई। लोगों ने अनुभव किया मनुष्य की उच्च भावनाओं में जबर्दस्त जीवन शक्ति है, शरीर की सम्पूर्ण सहनशीलता इन भावनाओं का ही परिणाम है।
बच्चा बीमार पड़ जाये तो उसकी माँ रात रात भर जागती रहती है और बिना कुछ खाये पिये उसकी सेवा सुश्रूषा करती रहती है, उस अवस्था में अकारण किसी और को रखा जाय तो वह एक रात के जगने में ही ढीला पड़ जाये पर माँ कई कई रात जगकर भी स्वस्थ और क्रियाशील बनी रहती है।
‘साउथ ऑफ सहारा’ पुस्तक में लेखक कमाँडर अटिलियों गट्टी ने प्रसिद्ध नीग्रो जाति वाटुसी का जिक्र छेड़ते हुए लिखा है कि यह लोग संसार के सबसे अधिक लम्बे स्वस्थ और क्रियाशील लोग होते है। यह लोग माँस नहीं खाते, शाकाहारी होने पर भी उनके गज़ब के स्वास्थ्य पर लेखक को आश्चर्य हुआ तो वह कुछ दिन इनके बीच रहा। बाटुसी लोगों के जीवन क्रम का अध्ययन करके लेखक ने लिखा है कि वाटुसी जब बच्चे होते है, तभी से उन्हें उछलने, कूदने, खेलने, नाचने और सदैव प्रसन्न रहने का अभ्यास कराया जाता है। खिलाड़ी होना इस जाति के लिए आवश्यक है इसके लिये परिवारों में ही एक 6 वर्षीय शिक्षण चलता है, जो 8 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु तक चलता है। परिणाम यह होता है कि हँसी खुशी उनकी जिन्दगी में ढल जाती है, यह निश्चिन्तता ही उन्हें आजीवन निरोग रखती है। और शक्ति इतनी होती है कि 20 मील जाकर शाम को फिर घर वापिस आ जायें पर थकावट का कहीं नाम निशान भी न हो। इतनी जबर्दस्त सहन शक्ति और निरोगिता का रहस्य और कुछ नहीं, भावनाओं की मस्ती है। यदि वही न हो तो लाखों की सम्पत्ति होकर भी मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। प्रेम, प्यार, आशा, उत्साह और प्रसन्नता के अभाव को शरीर सहन नहीं कर सकता। इनके न होने पर रोग और बीमारी ही सम्भव है, दुश्चिन्ताओं से घिरे लोगों को भाग्य में मिलता भी यही है।