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Magazine - Year 1969 - Version 2

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संयम ही हमें नष्ट होने से बचाएगा

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“जनसंख्या की बढ़ोतरी और खाद्य सामग्री के बढ़ते हुए अभाव” का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए प्रसिद्ध जनसंख्या शास्त्री माल्थस ने लिखा है-

“जनसंख्या बढ़ने की शक्ति पृथ्वी की जीवन निर्वाह करने वाली वस्तुऐं उत्पन्न करने की शक्ति से कहीं अधिक है। अनियन्त्रित जनसंख्या गुणोत्तर गति-ः-ः-ः-ः-ः से बढ़ती है, जबकि खाद्य सामग्री केवल अंक गणित गति 1 23456 से ही बढ़ती है। यदि 25 वर्षों तक इन दोने की वृद्धि दर का अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि 25 वर्षों में जनसंख्या दुगुनी हो जाती है, जबकि खाद्य सामग्री इतने समय में तीव्र गति से घटती हुई दर से बढ़ती है। यदि सारी पृथ्वी को एक ईकाई माने और अब तक की आबादी को एक अरब ( एक हजार मिलियन ) मान कर जनसंख्या वृद्धि के 1ः 2ः 4ः 8ः 16ः 32ः 64ः 128ः 256 अनुपात से खाद्य सामग्री की वृद्धि 1ः 2ः 3ः 4ः 5ः6ः 7ः 8ः 9 की भाँति होगी, परिणामतः दो शताब्दियों में जनसंख्या और खाद्य सामग्री का अनुपात 256ः9 और शताब्दियों में 4096ः13 हो जायेगा। दो हजार वर्षों में तो खाद्य सामग्री के आँकड़े इतने पीछे रह जायेंगे क अधिकाँश जनसंख्या के भूखों मरने की नौबत आ जायेगी।

माल्थ्स का यह हिसाब भले ही कुछ त्रुटिपूर्ण हो पर उसमें बढ़ती हुई जनसंख्या के होने वाले दुष्परिणामों की सार्थक भविष्य वाणी छिपी हुई है। जिस रफ्तार से जनसंख्या बढ़ रही है वह केवल खाद्यान्न की दृष्टि से ही नहीं वरन् आध्यात्मिक, धार्मिक, साँस्कृतिक, नैतिक, आर्थिक, आजीविका आदि सभी दृष्टियों से चिन्ताजनक है।

ऐलिनाय विश्व विद्यालय के भौतिक -शास्त्री प्रोफेसर हीजवान फोस्टेक के अनुसार- “13 नवम्बर 2026 ई॰ दिन शुक्रवार अर्थात् अब से लगभग 55 वर्ष बाद मनुष्य जाति का अन्त हो जायेगा, क्योंकि उस दिन विश्व जनसंख्या चरम सीमा तक पहुँच जायेगी।” केलीफोर्नियाँ औद्योगिक संस्थान के डा जेम्स बोनर के अनुसार-विश्व की जनसंख्या ढाई करोड़ प्रति वर्ष के अनुपात से बढ़ रही है, यदि यह ऐसी ही बढ़ती रही तो अगली शताब्दी में जनसंख्या इतनी हो जायेगी कि प्रति व्यक्ति एक फुट पृथ्वी से अधिक न मिलेगी। इसका सोना, जागना, काम करना, खाना-पीना टट्टी-पेशाब करना सब कुछ इतने में ही होगा। स्पष्ट है कि यह स्थिति आने से पूर्व ही विस्फोट हो और मनुष्य, मनुष्य को ही खा जायें।

लन्दन के प्रसिद्ध स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने ब्लैकपूल में स्वास्थ्य काँग्रेस की रायल सोसायटी में एक निबन्ध पढ़ा जिसमें उन्होंने बताया- “सन् 2050 अर्थात् अगले 80 वर्षों में संसार की दिशा महाप्रलय जैसी हो जायेगी। उस समय अब की तीन अरब जनसंख्या बढ़कर नौ अरब हो जायेगी।” भारतवर्ष में प्रति घण्टा 1100 की जनसंख्या वृद्धि होती है। प्रति वर्ष एक करोड़ बीस लाख लोग बढ़ जाते है, केरल जैसे छोटे से प्रान्त में 1976 तक 24347000 हो जायेगी, यहाँ प्रति दिन 1500 नये शिशु जन्म लेते है।”

जनसंख्या वृद्धि के यह आँकड़े वस्तुतः चिन्ताजनक है। जनसंख्या का बढ़ना मानव जाति के लिये भयंकर संकट है, किन्तु क्या इस संकट का हल अप्राकृतिक साधनों से किया जा सकता है, यह प्रश्न भी उतना ही जटिल है जितना जनसंख्या वृद्धि की समस्या। हमें उन फलितार्थ को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं करना चाहिये, जो परिवार नियोजन के अंतर्गत इन दिनों चल रहे है, इनका मनुष्य के स्वास्थ्य शरीर,समाज पर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है, इसका जब तक अनुमान नहीं कर लेते, यह आयोजन महंगे और भारी पड़ेंगे।

माल्थस ने कहा था कि मनुष्य को पहले ही सद्बुद्धि से काम लेना चाहिये और जनसंख्या को इतना सीमित रखना चाहिये कि ऐसी परिस्थिति उत्पन्न न होने पाये कि प्राकृतिक अवरोधों के कारण कष्ट उठाने पड़े। उन्होंने जनसंख्या रोकने के दोनों ही उपाय बताये-(1) बुरे अवरोध- इसमें गर्भ क्षीण करना, आपरेशन कराना, एक ही स्त्री से बहुत व्यक्तियों द्वारा काम तुष्टि, छल्ले, लूप, गर्भ निरोधक औषधियाँ आदि। इन उपायों से देखने में भले ही लगता हो कि जनसंख्या वृद्धि का अनुपात कम हुआ पर उससे होने वाली हानियाँ समाज के लिए उतनी घातक होंगी जितनी जनसंख्या वृद्धि से भी तत्काल नहीं होंगी।

ऐसी स्थिति में केवल- (2) नैतिक संयम ही उचित प्रतिबन्धक अवरोध हो सकता है। माल्थस ने इस पर बहुत जोर दिया है। इसमें ब्रह्मचारी रहना, देर से विवाह करना, सन्तानोत्पत्ति की भावना न रखकर नियन्त्रित जीवन बिताना आदि सम्मिलित है। आहार का संयम, अश्लील चित्र और प्रसंगों से बचना आदि इसी के अंतर्गत आते है। हमारे लिये उचित यही है कि हम आत्म संयम का पालन करें और सन्तान की संख्या बढ़ने न दे।

जब डा मेरी स्कारलेब, सर रावट्स आर्मस्ट्राँग जोन्स, डा हेक्टर तथा डा मैकन आदि ने कृत्रिम उपकरणों द्वारा संतति निरोध के परिणामों का गहन अध्ययन कर उसको बुरा बताया। इस सम्बन्ध में इन सबकी सम्मिलित राय यही है-

“इससे उच्छृंखलता एवं कामुकता बढ़ने का खतरा है। सामाजिक जीवन में ‘काम’ जैसे गोपनीय विषय को इस प्रकार सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इससे मनुष्य का मन कामेन्द्रियाँ की ओर आकर्षित होता है, फलस्वरूप संयमी व्यक्तियों का मनोबल भी दुर्बल पड़ता है और वे भी कामुकता के शिकार हो जाते है।”

ठस दृष्टि से परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को यह मानना चाहिये कि वे देश का नैतिक पतन करने का साधन बन गये है। भारतवर्ष पिछले आयोजनों में परिवार नियोजन पर एक अरब रुपया व्यय कर चुका है। इस योजना में उसके लिये 60 करोड़ रुपये व्यय का बजट रखा गया है। लाखों लोग इसके लिये सरकारी तौर पर नियुक्त किये गये है। रेडियो, समाचार-पत्रों पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे लेखों को प्राथमिकता दी जाती है, इन सब का तात्पर्य यह हुआ कि इतने समस्त साधन जनसंख्या वृद्धि नहीं रोक रहे वरन् चारित्रिक भ्रष्टता को पोषण प्रदान कर रहे है।

यदि मनुष्य आत्म संयम द्वारा अपनी यह जनसंख्या वृद्धि की समस्या सुलझाने के लिये तैयार नहीं होता तो यह कार्य प्रकृति के लिये छोड़ देना चाहिये। प्रकृति अपने आप इतनी समझदार है कि वह जितने प्राणी पैदा करती है, उनके लिये आवश्यक सुविधायें भी देती रहे और यदि मानवीय विवेक निरन्तर असावधानी बरतने का दुःसाहस करे तो वह प्रकृति इस बात के लिये भी समर्थ है कि अपनी शक्ति से उसे नियन्त्रण में ले आये। भले ही वे नियन्त्रण अति कष्टकारक सिद्ध हो।

17 जनवरी 1969 को नई दिल्ली से प्रसारित एक वाप्ति में विश्व-स्वास्थ्य संगठन के विशेषज्ञों ने अपना मत व्यक्त करते हुए बताया कि चूहे तथा चुहिया के एक जोड़े वे पैदा हुई सन्तान से तीन वर्षों में 35 करोड़ चूहे हो सकते है। लेकिन प्रकृति ऐसा होने नहीं देती। यदि चूहों की मनमानी चल सकी होती तो तीन वर्षों में पृथ्वी पर अकेले चूहे इतने हो जाते कि चलने वाले व्यक्ति का हर अगला पाँव एक चूहे की देह पर पड़ता। प्रकृति ने चूहों पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया है कि वे प्रति वर्ष अधिक से अधिक 60 बच्चे पैदा करे। मनुष्य भी यदि इसी ढंग से बच्चे पैदा करते रहे तो एक दिन अपने आप उनकी प्रजनन शक्ति समाप्त हो जायेगी। आज कल ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो प्रजनन की क्षमता खो चुके है या खो रहे है।

मक्खी एक बार में 120 अण्डे देती है। गर्मी के दिनों में वह 6 बार अण्डे देती। दस दिन में बच्चे भी निकल आते है और वह भी 14 दिन की आयु में प्रजनन (पावर ऑफ रिप्रोडक्षन ) के योग्य हो जाते है। 6 पीढ़ियों में जन्मे, यदि सब बच्चों को किसी प्रकार जीवित रखा जा सके तो वे 1/4 मिलियन क्यूबिक घन फीट अर्थात् 250000 घन फीट जगह एक मक्खी के जोड़े के बच्चों के द्वारा एक मौसम में घेरी जा सकती है। (एक घन फुट का अर्थ एक फुट लम्बा, एक फुट चौड़ा और एक फुट ऊँचा स्थान होता है।) अब यदि संसार में पाये जानें वाली सब मक्खियों का हिसाब लगाये तो मालूम पड़ेगा कि इस पृथ्वी जितनी कई पृथिव्यां तो केवल मक्खियों के रहने के लिये ही आवश्यक हो जायेंगी।

प्रकृति उनके लिये अपना संहार अस्त्र प्रयोग करती है। साधारण सी सर्दी आते ही मंडलियाँ मरकर अपने आप नष्ट हो जाती है। मनुष्य समाज के लिये भी यही बात हो सकती है। प्रजनन की गति जितनी बढ़ेगी मनुष्यों के स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमताएँ गिरती हुई चली जायेगी और वे मौसम के हलके से परिवर्तनों को भी सहन करने की स्थिति में नहीं रहेंगी। तब बीमारियाँ, नये-नये रोग इस तरह बढ़ेंगे कि असमर्थ व्यक्ति अपने आप नष्ट हो जायें, केवल वे लोग बचेंगे जिनके स्वास्थ्य वीर्य नाश की बीमारी से सुरक्षित हो। यदि मनुष्य अपने आप नहीं सँभलता तो प्रकृति को विवश होकर यह सामूहिक दण्ड प्रणाली मानव जाति के लिये भी लागू करनी ही पड़ेगी है। आजकल बीमारियों में मृत्यु दर की वृद्धि और नये-नये रोगों की उत्पत्ति उसी का संकेत करती है, आगे की स्थिति कितनी भयानक हो सकती है। इसकी तो कल्पना करते भय लगता है।

एक सीप (आइस्टर) एक वर्ष में 60 मिलियन (एक मिलियन=10 लाख) अण्डे देती है, इस तरह एक जोड़े से पैदा होने वाली पाँच पीढ़ियों से ही जितनी सीपियाँ पैदा हो जायेंगी, उनका यदि एक स्थान पर ढेर किया जा सके तो वह पृथ्वी के आकार से आठ गुना बड़ा होगा। कार्डफिष नामक मछली एक करोड़ अण्डे देती है, यदि सभी अण्डों में से बच्चे निकल आये तो उन्हें रहने के लिये समुद्र भी पूरा न पड़े। इनको कम करने के लिये प्रकृति ने ऐसे शत्रु तैयार किये है, जो इन्हें खाते रहें, मछलियों को अनिवार्य वन्ध्याकरण का दण्ड भी भुगतना पड़ता है। यदि मनुष्य भी स्वयं सचेत न हो तो एक दिन वह स्थिति अपने आप बन जायेगी, जब या तो जनसंख्या स्वयं एक दूसरे को मार कर खा लेगी। (युद्ध, महामारी, अकाल भी इसी के रूप हो सकते है।) या फिर स्त्रियों में बन्ध्यात्व बढ़ जायेगा और वे बच्चे ही पैदा न कर सकेंगी।

हाथी संसार में सबसे धीमी प्रजनन (ब्रीडिंग) वाला जीव है। वह 30 वर्ष की आयु से बच्चे देना प्रारम्भ करता है, यदि वह 30 और 90 वर्ष की आयु के बीच 6 बच्चे पैदा करे और इसी अनुपात से वे बच्चे भी आगे प्रजनन करते रहें तो 500 वर्ष में ही एक जोड़े हाथी से डेढ़ करोड़ हाथी पैदा हो जायेंगे। अर्थात् पृथ्वी पर तब केवल हाथी ही हाथी हों और किसी को रहने, खाने-पीने कि लिये स्थान और साध नहीं शेष न रहे।

प्रकृति में वह जबर्दस्त समझ और शक्ति कि वह इस शारीरिक योग्यता वाले पशु की जनसंख्या को भी अनियन्त्रित नहीं होने देती। उन्हें वह हिसाब से भारती रहती है। यह उदाहरण यह बताते है कि यदि मनुष्य आत्म-नियन्त्रण के द्वारा जनसंख्या वृद्धि के लिये तैयार नहीं होता, तब या तो उसे अप्राकृतिक परिवार नियोजन प्रणाली भक्षण करेगी अथवा प्रकृति स्वयं ही अपनी संहारक प्रक्रिया द्वारा नष्ट करके रख देगी।

हमारे लिये व्यवहार्य यही है कि हम इन्द्रिय संयम और कामवासना का उदात्तीकरण सीखें। अप्राकृतिक प्रतिबन्धक अवरोधों से अपने चरित्र को भी बचाये और अपने स्वास्थ्य, शक्ति और समर्थता को भी बना रहने दें। यदि यह नहीं करते तो प्रकृति के इस नियम और दण्ड के लिये भी तैयार रहना आवश्यक है।

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