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Magazine - Year 1969 - Version 2

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भगवान् का स्वरूप, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों की दृष्टि में

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विश्व विख्यात वैज्ञानिक डा अरिस्ट्रोटल को संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य था, ब्रह्माण्ड का स्वरूप और उसकी नियमित गति। एक प्रकाश वर्ष की दूरी 186000x60x60x24x3651/4= 20543997600000 मील होती है। सैद्धान्तिक अनुमान है कि यह जो ब्रह्माण्ड दिखाई दे रहा है, वह 50 करोड़ प्रकाश वर्ष की दूरी में (व्यास) में फैला हुआ है। हम जिस सूर्य के प्रकाश से अपना जीवन चलाते है, वह जिस आकाश गंगा (नेबुला) से प्रकाश लेता है, ऐसी ऐसी दस करोड़ दस करोड़ आकाश गंगायें अन्तरिक्ष में प्रकाश फैलाती हुई अरबों सूर्यों को चमका रही है। इसमें अन्य ग्रह नक्षत्रों की तो संख्या गिनी भी नहीं जा सकती।

इतना बड़ा संसार भी कितनी नियम और व्यवस्था के साथ चल रहा है। और तो और हमारा मस्तिष्क गणित के द्वारा पहले ही ग्रह-नक्षत्रों के परिभ्रमण पथ पर होने वाले ग्रहण आदि संघात का पता लगा लेता है, इसका अर्थ हे कि संसार अनियमित नहीं। इतने विराट् जगत को घुमाने वाला कोई महान् शक्तिशाली तत्व होना चाहिये। अरिस्टोल का कथन है, वह केवल ईश्वर ही हो सकता है। भगवान के अतिरिक्त और किसी में यह शक्ति नहीं “परमात्मा सृष्टि का संचालक है।” यह उनकी मान्यता थी।

हवेर्ट स्पेन्सर की दृष्टि में भगवान् एक विराट् शक्ति है, जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करते है, जिस प्रकार मुखिया घर का, प्रधान गाँव का, कलेक्टर जिले का, गवर्नर प्रदेश का और राष्ट्रपति राष्ट्र की भोजन, वस्त्र, निवास, सुरक्षा आदि की व्यवस्था करता है। उन्होंने कहा-राज्य के नियमों का हम इसलिये आदर करते है, क्योंकि हमें राज्य की शक्ति से भय होता है। नैतिक नियमों का पालन न करने पर भी हमें भय लगता है, जबकि हम उसके लिये पूर्ण स्वतन्त्र होते है, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है, हम उसके परिचय में कभी न कभी रहे है। क्योंकि हम डरते है। निर्भीक व्यक्ति नैतिक व्यक्ति ही हो सकता है, इसलिये उसे संसार की व्यवस्था ईमानदारी और न्याय से करने वाला प्रजावत्सल तत्व होना चाहिये।”

सुप्रसिद्ध दार्शनिक कान्ट ने हर्बर्ट स्पेन्सर के कथन को अधिक स्पष्ट किया है। वह लिखते है - “नैतिक नियमों से स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर, डकैत भी नहीं चाहते कि कोई उनसे झूठ बोले, छल या कपट करे। जबकि वे स्वयं सारे जीवन भर यही किया करते है। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का प्रमाण है कि संसार केवल नैतिकता के लिये ही जीवित है उसी से संसार का निर्माण पालन और पोषण हो रहा है, इसलिये भगवान् नैतिक-शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।”

हैब्रयू ग्रंथों में ईश्वर को ‘जेनोवाह’ कहा गया है। जेनोवाह का अर्थ है, वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। मनुष्य अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को ठगता देखा जाता है पर पाया गया है कि ऐसा व्यक्ति कुछ ही दिनों में लोगों के आदर से, सम्मान से वंचित हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसे लोगों की इसी जीवन में दुर्गति होते देखी गई है। इस सब का यह अर्थ है कि विश्व की सम्पूर्ण व्यवस्था किसी सत्य के आधार पर चल रही है। जो भी उससे हटने का प्रयत्न करता है, वह पीड़ित और प्रताड़ित होता है, जबकि इन नियमों पर आजीवन आरुढ रहने वाले व्यक्ति साँसारिक दृष्टि से कुछ घाटे में भी रहें तो भी उनकी प्रसन्नता में कोई अन्तर नहीं आता।

सत्य और नीति निष्ठा द्वारा संसार का नियन्त्रण करने वाली ऐसी शक्ति जो प्रत्येक व्यक्ति की आकांक्षाओं में विद्यमान् रहती है, वही ईश्वर है।

प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो की ईश्वरीय मान्यता भी लगभग ऐसी ही थी, कहते थे-ईश्वर अच्छाई का विचार है।” संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहाँ तक कि जीव-जन्तुओं को भी अच्छाई की चाह रहती है। जहाँ अच्छाई होती है, वहीं आनन्द रहता है। अच्छाई शरीर और सौंदर्य की जो संयम और सदाचार के द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई शरीर और वस्त्रों की जो धोने और स्नान करने से सुरक्षित हो अच्छाई वातावरण की, घर, गाँव और नगरों की जो स्वच्छता और सफाई द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की, जो हरे भरे पौधों और खिलते हुये रंग-बिरंगे फूलों, भोले भाले पशु-पक्षियों के कलरव और उछल कूद से सुरक्षित हो। इस तरह संसार में हम सर्वत्र अच्छाई के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते है। यही प्रभुत्व है, इन्हीं से आनन्द मिलता है, इन्हीं से संसार में आने का मजा आता है। सो भगवान को यदि मानें तो उसे अच्छाई का वह बीज मानना पड़ेगा, जो आँखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन के एक बार उनके एक मित्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा - “आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर में आस्था रखते है? उसकी प्रार्थना किया करते है? यदि भगवान सचमुच है तो वह क्या है?

‘ज्ञान’ न्यूटन ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया। उन्होंने कहा-हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहाँ पहुँचेगा है, वहीं उसे एक शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में यह जो ज्ञान की अनुभूति भरी हुई है, वह परमात्मा का ही स्वरूप है। सृष्टि का कोई कण चेतना से वंचित नहीं, परमात्मा इसी रूप में सर्वव्यापी है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियन्त्रण होता है, विनाश करना चाहो तो भी ज्ञान की ही आवश्यकता होती है। परमात्मा इस रूप से ही सर्व शक्तिमान है। शरीर के एक एक कोष (सेल्स) में ज्ञान की ही पैठ है और उसने कोई सूक्ष्म तत्व नहीं, जो अणु से अणु में भी प्रवेश कर सके, परमात्मा इस रूप में ही अनन्त विस्तार के जगत् में समाया हुआ है।”

स्पिनोजा ने विज्ञान और दर्शन दोनों का अध्ययन करके बताया कि “संसार में दो प्रकार की सत्तायें काम कर रही हैं, एक दृश्य, एक अदृश्य। एक का नाम है, प्रकृति या पदार्थ यह दिखाई देता है दृश्य, एक अदृश्य। एक का नाम है, प्रकृति या पदार्थ यह दिखाई देता है। दृश्य संसार प्रकृति की ही रचना है, अपना शरीर भी पदार्थ से बना है। इसमें भी धातुएँ, खनिज, लवण, गैसें आदि भरी पड़ी है पर विचार उससे भिन्न है, यह दिखाई नहीं देता पर हम उसे हर घड़ी अनुभव करते है। हमारे जीवन की सारी क्रियाशीलता विचारों की ही देन है। विचार ठण्डे पड़ते ही शरीर ठण्डा पड़ जाता है। विचार मरे शरीर मर गया। मृत्यु के अन्तिम क्षण तक विचार-प्रक्रिया का बने रहना बताता है कि विचार ही विश्व-व्यापी चेतना या ईश्वर है। विचार कभी नष्ट नहीं होते, ईश्वर भी अविनाशी है। निःसन्देह अविनाशी विचार ही भगवान् है। या यों कहें कि भगवान का स्वरूप गुण ओर विचारमय ही हो सकता है, चाहें वह किसी शक्ति कणों के रूप में हो अथवा प्रकाश रूप में पर विचारों का अस्तित्व संसार में है अवश्य। हम सदैव ही उनसे प्रेरित, प्रभावित होते रहते है। विचारों को काई भी व्यक्ति अपना नहीं कह सकता। फ्रायड को भी कहना पड़ा था कि विचार अवचेतन मन से आते है और मनुष्य का उस पर काई नियन्त्रण नहीं, वह कोई स्वतन्त्र सत्ता है।”

वैज्ञानिक हीगल ने भी भगवान् को सामान्य इच्छाओं से उठा हुआ, इच्छाओं को भी नियन्त्रण में रखने वाला परम विचार (एब्सोल्यूट आइडिया) बताया है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष में देखने से हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से विचारों का पुँज है, इसी के किसी कोने से विचारों का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। इसी तरह सारे विश्व में फैले विचार किसी केन्द्रीभूत सत्ता से प्रस्फुटित हो रहे है, जिस प्रकार सूर्य में आक्सीजन जलती रहती है और होतियक के कण उछलते रहते है, उसी प्रकार संसार के किसी भाग से नियमित विचारों का निर्झर झरता रहता है। उस केन्द्रीभूत सत्ता का नाम हीगल ने परमेश्वर बताया।

इमर्सन और बर्कले के मत में ईश्वर सब आत्माओं में श्रेष्ठ शक्ति का नाम ही परमात्मा है। उन्होंने तत्व दर्शन का सहारा लिया था। सारा संसार कहीं से उधार प्राण और चेतना ले रहा है। यह चेतना और प्राण शक्ति अपने मूलरूप में एक जैसी ही है। विचार ग्रस्त होने के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दिखाई देती है पर आत्म-चेतनता के सभी लक्षण मनुष्य और पशु प्राणियों में समान है। जिस तरह बड़े विद्युत घर से विद्युत लेकर छोटे छोटे बल्ब जलने लगते है, उसी प्रकार प्राणियों की चेतना भी किसी मूल तत्व से प्राण और प्रकाश लेकर अस्तित्व में आती है। जो सब आत्माओं का उद्गम है, वही परमेश्वर है। यदि आत्माओं का स्वरूप प्रकाश है तो परमात्मा भी प्रकाश है, यदि ज्ञान या विचार तो परमात्मा भी ज्ञान या विचार है। यह सारी विशेषताएँ वस्तुतः एक ही हैं, कहने भर का अन्तर जान पड़ता है।

डा ब्रडले भगवान को जानने के लिये अनुभवों का रूप समझने की प्रेरणा देते है। उनका कहना है, हमारे अन्दर जो अनुभूति कोष है, वह पदार्थ ही नहीं प्रकाश, ताप, चुम्बक, विद्युत कणों से भी भिन्न है, इसलिये उन्होंने भगवान को अनुभव (एब्सोल्यूट) अनुभव कहा है। यह सारी बातें मिलकर एक अध्यात्मवादी सृष्टि का निर्माण करती हैं, इसलिये यूकन ने उसे आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा। जगद्गुरु शंकराचार्य और उपनिषद् दर्शन उसे ही ‘अहंब्रहास्मि’ ‘तत्वमसि’ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ मैं ही ब्रह्म हूँ, ‘परमात्मा तत्व रूप है। यह मेरी आत्मा ही ब्रह्म है आदि सूक्तों से सम्बोधित करते है। यह सारी विशेषताएँ परमात्मा के स्वरूप के भिन्न भिन्न विशेषण है, तत्परः वह एक ही है।

डा ब्रडले भगवान को जानने के लिये अनुभवों का रूप समझने की प्रेरणा देते है। उनका कहना है, हमारे अन्दर जो अनुभूति कोष है, वह पदार्थ ही नहीं प्रकाश, ताप, चुम्बक, विद्युत कणों से भी भिन्न है, इसलिये उन्होंने भगवान को अनुभव (एब्सोल्यूट) अनुभव कहा है। यह सारी बातें मिलकर एक अध्यात्मवादी सृष्टि का निर्माण करती हैं, इसलिये यूकन ने उसे आध्यात्मिक जीवन का आधार कहा। जगद्गुरु शंकराचार्य और उपनिषद् दर्शन उसे ही ‘अहंब्रह्मास्मि’ ‘तत्वमसि’ ‘अयमात्मा ब्रह्म’ मैं ही ब्रह्म हूँ, ‘परमात्मा तत्व रूप है। यह मेरी आत्मा ही ब्रह्म है आदि सूक्तों से सम्बोधित करते है। यह सारी विशेषताएँ परमात्मा के स्वरूप के भिन्न भिन्न विशेषण है, तत्वतः वह एक ही है।

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