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Magazine - Year 1969 - Version 2

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बहुरूपिये विज्ञान से सत्य का सम्बन्ध कितना?

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ईसा से 200 वर्ष पूर्व नीसिया के वैज्ञानिक हिप्पार्कस ने बताया कि ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी है, अन्य ग्रह-उपग्रह उसके चारों ओर केन्द्रीय शक्ति (एक्सेंट्रिक) कक्षाओं में अधिचक्रों (एपिसाइकिल्स) में घूमते है। प्रसिद्ध यूनानी वैज्ञानिक टालेमियस (संक्षिप्त नाम टालेमी) ने इसी सिद्धान्त को स्वीकार कर सौर मण्डल की रचना की और 1028 ग्रह नक्षत्रों को पृथ्वी के क्रम से इस तरह स्थापित कि बीच में पृथ्वी, दूसरे के क्रम से इस तरह स्थापित कि बीच में पृथ्वी, दूसरे वृत्त में चन्द्रमा, तीसरे में बुध, चौथे में शुक्र, पाँचवें में सूर्य, छठे में मंगल, सातवें में बृहस्पति आठवें में शनि, नवें में स्फटिक पिण्ड व तारे और दसवें में प्राइमममोबाल्स रखे। इसी आधार पर ही ज्योतिष शास्त्र का बहु-चर्चित ग्रन्थ अलमागेस्ट तैयार किया गया था। 1400 वर्षों तक यह सिद्धान्त अकाट्य माना गया। यही नहीं उसके आधार पर की जाने वाली अधिकाँश भविष्य वाणियाँ सत्य भी होती थीं। लोग अलमागेस्ट को पूजते थे। एक प्रामाणिक वैज्ञानिक ग्रन्थ मानते थे। टालेमी ने इसी पुस्तक में वृत्त (सर्किल) को 360 भाग (ग्रेजुएशन्स) में विभक्त कर पाई (वृत्त की परिधि और अर्द्धव्यास के अनुपात को रोमन अक्षर में व्यक्त किया जाता है, उसे पाई कहते है) का मूल्य 3.1416 निकाला था, वर्तमान पाई का मूल्य 3.1428 है, अन्तर .0012 का नगण्य सा है, किन्तु इसी अन्तर को यदि करोड़ों प्रकाश की दूरी पर आरोपित किया जायेगा तो जो ग्रह यहाँ से 10 करोड़ मील की दूरी पर होगा, वह लाखों मील आगे पीछे हो जायेगा।

उस समय भी यदि विज्ञान को लोग इसी तरह मानते रहे हों जैसे आज तो उनसे पूछा जाना चाहिये कि विज्ञान झूठा क्यों हो गया। पृथ्वी से थोड़ी दूर तक सीमित रहने वाले तत्वों की भविष्य वाणियाँ सही उतरी तो भी फलितार्थ गलत यही तो है विज्ञान की परिमिति। हम जिसे कल तक अकाट्य माने बैठे थे, वही आज गलत साबित हो गया, ऐसे विज्ञान को कौन पूर्ण कहेगा? कौन यह दावा करेगा कि विज्ञान सत्य है। धर्म नहीं। विज्ञान मनुष्य के सीमित ज्ञान के सीमित निष्कर्ष हैं, उनको ही सब कुछ बिलकुल सत्य मान लेना मनुष्य के लिए कभी भी हितकारक न होगा। शाश्वत और सनातन नियम जो भी हैं, धर्म के हैं। सारे संसार का एक ही नियामक है, यह मान लेने में किसकी हानि है? परस्पर प्रेम न्याय, ईमानदारी का व्यवहार करना चाहिये, हम सब भाई-भाई है, यह मान लेने पर किसका बुरा हो गया? धर्म सुख और शान्ति प्राप्त करने का अकाट्य सिद्धान्त है, यदि कोई सिद्धान्त इसके विपरीत जाते है तो वह धर्म नहीं हो सकते, जबकि विज्ञान की सत्यता को कभी भी अन्तिम नहीं कहा जा सकता।

कोपर्निकस ने अलमागेस्ट से असहमति प्रकट न की होती तो आज जो ग्रह गणित का इतना सुधरा रूप सामने आ रहा है, वह न आया होता। कोपर्निकस ने पहली बार बताया कि वैज्ञानिक धारणाओं को कभी अन्तिम सत्य नहीं मान लिया जान चाहिये, उसने सूर्य को ब्रह्माण्ड का केन्द्र बताया। यह धारणायें बहुत वर्षों तक चलती रहीं। अब 19 वीं शताब्दी में तो अन्तरिक्ष एक ऐसा आश्चर्य बन गया है कि उसमें यही तय नहीं किया जा सकता है कि विराट् ब्रह्माण्ड का केन्द्रक (न्यूक्लियस) कहाँ पर है। ‘सूर्य’ - सौर जगत् का केन्द्रक हो सकता है, ब्रह्माण्ड का नहीं। अकेली हमारी आकाश गंगा से ही प्रकाश पाने वाले अनेक सूर्य और उनके सौर-मंडल विद्यमान है, फिर ऐसी अनेक सूर्य और उनके सौर-मंडल विद्यमान है, फिर ऐसी ऐसी करोड़ों आकाश गंगायें और है, उनमें कितने सौर जगत् है, उसकी कुछ कल्पना ही नहीं की जा सकती। 50 करोड़ प्रकाश वर्ष और 10 करोड़ निहारिकाओं का अनुमान लगाने वाले आज के वैज्ञानिक भी इस जानकारी को आँशिक सत्य मानते है, पूर्ण सत्य नहीं। क्या उस विज्ञान पर भरोसा किया जा सकता है।

इस विज्ञान को लोग प्रत्यक्षदर्शी और सर्वमान्य कहते है, क्या यह प्रत्यक्ष दर्शन और सर्वमान्य सत्य है? इस पर नई पीढ़ी को नये सिरे से विचार करना पड़ेगा और उन सार्वभौमिक सिद्धान्तों का अन्वेषण करना पड़ेगा, जो मानव प्रकृति और चेतन क सम्बन्ध में सही जानकारी दे सकते हों। जब भी ऐसी आवश्यकता उठेगी, हमें अपने अन्दर से हल खोजना पड़ेगा। अपने अहंभाव का विश्लेषण और विकास करना पड़ेगा, इसी का नाम धर्म है, इसी का नाम अध्यात्म है। आध्यात्मिक विश्वास किये बिना मानवीय प्रगति का एक पग भी आगे बढ़ नहीं सकता।

ब्रह्माण्ड सम्बन्धी उपरोक्त सिद्धान्तों के साथ अब सैकड़ों वर्ष तक काम करने वाला न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त भी हवा में उड़ने लगा। एक दिन महाशय न्यूटन एक बगीचे में बैठे थे। उन्होंने देखा एक फल टूटकर नीचे जमीन पर आ गिरा। प्रश्न उठा - फल नीचे ही क्यों आया वह आकाश में क्या नहीं चला गया। इस घटना के बाद न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण से सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। उन्होंने बताया कणों के परिणाम के अनुपात से संसार के सभी कण दूसरे कणों को आकर्षित करते है। न्यूटन के अनुसार कणों की दूरी बढ़ने के साथ यह आकर्षण बल घटने लगता है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त पर अनेकों मशीनें बनी है, जो काम भी करती है, किन्तु 1916 में आइन्स्टीन ने बताया कि ब्रह्माण्ड के कण स्थान और समय में एक सीधी रेखा में चलते है, यही बात ग्रह-नक्षत्रों के बारे में भी है। वह भी सीधे चलते है, किन्तु द्रव्य (मास) की उपस्थिति के कारण स्थान और समय का रूप बदल जाता है और ऐसा लगने लगता है कि कण या ग्रह नक्षत्र वर्गाकार पथ पर चलते है, इस नये सिद्धान्त को आइन्स्टाइन ने ‘सामान्य आपेक्षिकता सिद्धान्त’ (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) नाम दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण द्रव्य का गुण न होकर स्थान और समय का गुण है।

आइन्स्टाइन उन वैज्ञानिकों में से हैं, जिनके सिद्धान्त इतने गम्भीर और क्लिष्ट हैं कि उनकी सतह तक पहुँचना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि एक दिन उनके सिद्धांत को भी गलत किया जा सकता है पर हुआ यही 1964 में प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डा जयन्त विष्णु नार्लिकर तथा प्रोफेसर फ्रेड हायल ने एक नये गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि गुरुत्वाकर्षण न तो स्थान और समय का गुण है न कणों का। वह तो ब्रह्माण्ड का गुण है। हायल ने अपने मत की पुष्टि में संतुलित अवस्था का सिद्धान्त’ प्रकाशित किया और बताया कि आकाश की पुरानी आकाश गंगायें मरती और नई जन्म लेती रहती है। ब्रह्माण्ड फैल रहा है और उसी के फलस्वरूप ऊर्जा द्रव्य(मास) में बदलती रहती है। जहाँ इस तरह की क्रियायें चलती है, उसे हालल ने सृजन क्षेत्र (क्रियेशन फील्ड) का नाम दिया। इन तथ्यों से ब्रह्माण्ड को कल्पना और गुरुत्वाकर्षण को अब तक चली आ रही मान्यतायें व्यस्त हो जाती है, तब क्या न्यूटन टायस, बोल्ड हर्मन बाँडो और आइन्स्टाइन की बातें सच थीं। इस पर विचारं करें तो लगता है कि यह बुद्धिमान् वैज्ञानिक भी यथार्थ की दृष्टि में अपरिपक्व बुद्धि वाले बच्चों जैसे थे। और जो बच्चे आज का विज्ञान पढ़ते है, उनकी अपरिपक्वता के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। सामान्य बातों को छोड़कर 10 वर्ष पूर्व एक विद्यार्थी ने जो कुछ पढ़ा था, आज उसका 50 प्रतिशत गलत हो गया, जिसकी उसे जानकारी तक नहीं और वह अपने विद्यार्थियों को, अपने मित्रों का वही बातें बता रहा होगा, अब जिनको अमान्य कर दिया गया है, क्या इस स्थिति में विज्ञान को सत्य कहा जा सकता है। नहीं कभी नहीं। यथार्थ की खोज के लिए तो कोई और ही रास्ता ढूँढ़ना पड़ेगा और अन्ततः उसके लिये फिर अपने आपसे चलना पड़ेगा। अपना अध्ययन और विकास करना आवश्यक होगा, उसके बिना मनुष्य जीवन के मूल प्रश्न सुलझाए नहीं जा सकते।

एक समय था जब डाल्टन के परमाणुवाद को एक सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया था। डाल्टन का कहना था परमाणु अजन्मा, अविनाशी और अविभाज्य है। इस सिद्धान्त को 120 वर्ष तक अकाट्य माना जाता रहा। इस सिद्धान्त ने ही डाल्टन को मूर्धन्य वैज्ञानिक का सम्मान दिलाया था।

किन्तु क्या डाल्टन सत्य था। वही सिद्धान्त जो 120 वर्ष तक वैज्ञानिकों की अन्य शोधों का माध्यम बना रहा, एक दिन खण्ड-खण्ड कर दिया। सन 1897 में जे जे थाम्प्सन नामक वैज्ञानिक ने कैथोड किरणों (कैथौड़ रेज) का आविष्कार करके डाल्टन के परमाणुवाद सिद्धान्त को खण्डित कर दिया और बताया कि परमाणु भी विभाज्य है। एक दिन उन्होंने न्यूनतम वायु दबाव की एक नली में ऋण ध्रुव(कैथोड)से विद्युत धारा प्रवाहित की उससे एक प्रकार की किरण कैथोड से निकलती हुई दिखाई दीं, जिनके अध्ययन से सिद्ध हो गया कि परमाणु के भीतर भी आवेश या शक्ति कण होते है, इन किरणों के मार्ग में ऋण पोल (निगेटिव पोल) लाने से विकर्षण (रिपल्सन) की क्रिया हुई और उन किरणों ने अपना मार्ग बदल दिया, इससे यह सिद्ध हुआ कि परमाणु के भीतर ऋण विद्युत आवेश विद्यमान है, उसे इलेक्ट्रान्स कहा गया। इलेक्ट्रान्स का भार हाइड्रोजन परमाणु के भार का 1/1850 होता है। इसलिये वैज्ञानिकों की इसकी खोज के बाद भी अनिश्चय सा रहा कि परमाणु की अभी अन्तिम जानकारी नहीं हो सकी।

सन् 1911 में रदरफोर्ड सोने की पत्तर पर अल्फा किरणों का बम्बार्डमेंट कर रहे थे। कुछ किरणें तो पत्तर को पार कर गई कुछ दाहिने बायें मुड़ गई पर रदरफोर्ड ने देखा कि कुछ किरणों जिस मार्ग से जा रही थी, उसी मार्ग से लौट आई। चुम्बक विज्ञान का एक सिद्धांत है, समान ध्रुव एक दूसरे को विपरीत दिशा में धकेलते है, असमान ध्रुव आकर्षित (एट्रक्ट) होकर जुड़ जाते है, अल्फा किरणें जो वापिस लौट रही थीं, वे धनावेश युक्त थीं, इसलिये यह निश्चित किया गया कि सोने के परमाणु में वैसा ही धन आवेश होना चाहिये। तब परमाणु में दो कणों का अस्तित्व सामने आया जिन्हें इलेक्ट्रान और प्रोट्रान नाम दिया गया।

इस सिद्धान्त ने बहुत दिन तक वैज्ञानिकों का मार्ग दर्शन किया और उस युग में उसे ही सत्य माना जाता रहा। विज्ञान की भाषा तो तोतली है, जो मीठी भले ही लगती हो पर होती निरर्थक है, उसे मानने वाले उस बालक की तरह है, जिन्हें अबोध कहा जा सकता है पर उनकी बात को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आने वाला प्रत्येक नया वैज्ञानिक उस सिद्धान्त को काटता हुआ या संशोधन करता हुआ आता है, जो सिद्धांत अब तक अकाट्य समझे जाते थे, वह एक नये पैसे के गुब्बारे की तरह अगले ही दिन फट हो जाते है।

महाशय नील्स बोहर ने परमाणु के सिद्धांत को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने कहा परमाणु में इलेक्ट्रान (ऋण आवेश) और प्रोटान (धन आवेश) है तो पर वह एक साथ रह नहीं सकते। असमान विद्युत आवेश होने के कारण उन्हें एक दूसरे में मिल जाना चाहिये तथा नष्ट हो जाना चाहिये। उनके नष्ट होने का अर्थ था परमाणु का नष्ट हो जाना पर ऐसा होता नहीं। इसलिये उसने एक नये सिद्धान्त को जन्म दिया और बताया कि इलेक्ट्रान नाभिक के चारों ओर चक्कर लगाते है। नाभिक उन्हें सेन्ट्रोफयूल कोर्स से उसे साधे हुए है ओर इलेक्ट्रान स्वयं भी सेन्ट्रीपीटल फोर्स से नाभिक की और खिंचे रहते है कक्षा छोड़कर बाहर नहीं जाते।

बाद में अपने सिद्धान्त को उसी ने फिर सुधारा और कहा कि इलेक्ट्रान एक बन्द कक्षा में घूमते है, अन्यथा इलेक्ट्रान को घुमाने वाली शक्ति का ह्रास होने पर वह केन्द्रक में गिर जाता और परमाणु नष्ट हो जाता। परमाणु के नष्ट होने का अर्थ या संसार का नष्ट हो जाना। अपने इस सिद्धांत की पुष्टि इन्हीं महोदय ने नागाशाकी और हिरोशिमा में बम गिराकर की तो भी वह परमाणु के अन्तिम सत्य को स्थिर नहीं कर सके।

आँशिक जानकारियाँ विषयों का पूर्ण प्रतिपादन नहीं कर सकतीं। मनुष्य के उलझाव वाले प्रश्न है, उसका ‘अहं’ और अहं से सम्बन्धित सैकड़ों प्रश्न। हमारी चेतना का वास्तविक स्वरूप क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं? मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है? विज्ञान चुप। प्राणि मात्र के साथ हमारे क्या सम्बन्ध है? हम क्यों अस्थिर है? चिर शाँति के उपाय क्या हैं, क्यों हम जीते और मर जाते है, जब तक इनका स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता, मनुष्य भटकता रहेगा, जबकि विज्ञान के पास इन भवरोग का कोई इलाज नहीं। बेचारा धर्म भी करे क्या हम उसकी सुनने को तैयार नहीं।

इलेक्ट्रान और प्रोट्रान का सम्मिलित भार अभी भी परमाणु भार से कम था, इसलिये यह सोचा गया कि नाभिक (न्यूक्लियस) में कोई ऐसा कण है, जिसमें भार तो है पर विद्युत आवेश नहीं। उससे न्यूट्रान का अस्तित्व सामने आया। इसके बाद एक और कण पॉजीट्रान की खोज की गई। अभी तक यह कहा जाता था कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष (सरकुलर आरबिट) में चक्कर लगाते है, किन्तु समर फोल्ड ने उसे भी संशोधित कर दिया और बताया कि इलेक्ट्रान वृत्ताकार कक्ष में नहीं अण्डाकार कक्ष (इलिप्टिकल आरबिट) में चक्कर लगाते है।

अब एक और सिद्धान्त -क्लाउड थ्योरी-का सृजन हो रहा है। उसके अनुसार इलेक्ट्रान्स की कोई कक्षा नहीं बल्कि वे न्यूक्लियस के चारों और घिरे सघन बादलों में कुछ विचित्र प्रकार से उस तरह घूमते है, जैसे आकाश में ग्रह नक्षत्र। अभी भी अन्तिम सत्य की खोज नहीं की गई। वैज्ञानिक पदार्थों के अतिरिक्त किसी शक्ति को नहीं मानते पर उनसे यह पूछा जाना चाहिये कि प्राकृतिक नियमों (लॉज ऑफ नेचर) को तोड़कर शाप, वरदान, पूर्वाभास स्वप्न आभास वाली शक्ति कौन सी है और क्या उसका परमाणु या विराट् ब्रह्माण्ड से कोई सम्बन्ध है। मस्तिष्क में विचार कहाँ से आते है, भावनाओं का अस्तित्व क्या है, जब तक विज्ञान इनकी जानकारी नहीं दे देता क्या उसे सत्य रूप में स्वीकार किया जा सकता है? जबकि वे अभी परमाणु के बारे में ही अनिश्चित है कि उसमें इतनी शक्ति कहाँ से आती है।

मानवीय जीवन के इन प्रश्नों को हल करना तो दूर वैज्ञानिक अपने ही सिद्धान्तों के प्रति आश्वस्त नहीं अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों को भी अब केले के पत्तों की तरह जगह जगह से काट दिया जाता है। कल तक जो औषधि रोगनाशक समझी जाती थी आज उसे विष उत्पादक और रोग-वर्धक कहकर रोक दिया जाता है। इञ्जेक्शन बदलते चले आ रहे है, तो भी स्वास्थ्य की समस्या हल नहीं हुई। पहले नींद के लिये लेसरजिक एसिड डाइ इथाइल एमाइड (एल॰ एस॰ डी) दी जाती थी, उससे अनेकों लोग बहरे हो गये, अनेकों मस्तिष्क सम्बन्धी बीमारियाँ खड़ी हो गई, एक 42 वर्षीय बुढ़िया ने उक्त दवा का सेवन का और पीने के 36 घण्टे बाद मर गई। उसके दुष्फल देखकर उसे बदला गया फिर पैरानोइया दी जाने लगी। वह भी खतरनाक सिद्ध हुई इसके बाद और कई तरह के मिश्रण बदले, सारजेक्टिल, एलेविजर बेलेरियन, ड़ड़ड़ड़ मिक्चर और मर्फिया आदि बदलती चली आई पर इनमें से ऐसी एक भी नहीं जो ड़ड़ड़ड़ न हो।

तत्वों के बारे में भी वैज्ञानिक अभी बीच में है, प्रारम्भ 12 तत्वों से हुआ था और फिर वह 92 की संख्या में स्थिर हुआ। 92 तत्वों की एक पीरियाडिक टेबुल डा0 मैन्डिलीफ ने बनाई थी, जिसका सिद्धान्त था तत्वों के भौतिक और रसायनिक गुण (फिजिकल एण्ड केमिकल प्रापरटी) उनके बढ़ते हुए परमाणु भार के आवर्त फल (पीरियाडिक कंक्शन) होते है। किन्तु इसमें आवर्त का परमाणु भार 39.944 है और पोटेशियम का 39.1 है। इस सिद्धान्त के अनुसार पोटैशियम को आर्यन से पहले आवर्त सारिणी (पीरियाडिक टेबुल) में रखा जाना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, आर्यन पहले रखा गया पोटैशियकत बाद में। यही गलती आयोडीन जिसकी इलेक्ट्रान संख्या 53 है और टिल्यूरियम (टी ई) जिनकी इलेक्ट्रान संख्या 52 है। परन्तु आयोडीन का परमाणु भार 126.92 और टिल्यूरियम का 127.61 है, इस तरह टिल्यूरियम को बाद में होना चाहिये था। बाद में उस टेबल को बोहर ने ठीक किया। किन्तु अब तक भी लेन्थेनाइड और एक्टीनाइड तत्वों की ठीक स्थिति निर्धारित नहीं की जिसकी, हाँ तत्व अवश्य ही बढ़कर अब तक 108 तक जा पहुँचे, अभी यह सिद्धान्त कहाँ जाकर कट जायेंगे इसका कुछ पता नहीं है।

विज्ञान को सत्य इष्ट है पर वह स्वयं सत्य नहीं। क्रमशः विकसित होने वाला विज्ञान सत्य तक पहुँच भी सकता है और सारे संसार को नष्ट-भ्रष्ट भी कर डाल सकता है। नागाशाकी जैसा कोई विस्फोट प्रयोग प्रयोगशाला में ही हो सकता है। जो धन जनकल्याण में लगना चाहिये, वह युद्ध और अन्तरिक्ष यात्राओं में लग रहा है और लोग भूखों मर रहे है, यंत्रीकरण के कारण विलासिता बढ़ी, स्वास्थ्य खराब हो रहे है, जनसंख्या बढ़ रह है। कुल मिलाकर विज्ञान ने मानव जीवन की शाँति-सन्तोष और व्यवस्था को बुरी तरह छिन्न-भिन्न किया है, उससे त्राण केवल धर्म और अध्यात्म ही दिला सकते है, धर्म विमुख होकर मनुष्य जीवन अक्षुण्ण नहीं रह सकता।

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