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Magazine - Year 1970 - Version 2

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विद्याध्ययन की उपेक्षा न करें।

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मनुष्य जीवन के लिये शिक्षा का बहुत महत्व है। इस महत्व को थोड़ा या बहुत, लोग स्वीकार करते हैं। कदाचित् ही कोई ऐसा जड़ व्यक्ति हो, जो विद्या के महत्व से इनकार करता हो। अन्यथा अधिकाँश व्यक्ति इस सत्य को एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि विद्या से विहीन मनुष्य एक प्रकार से पशु तुल्य ही होता है।

तथापि शिक्षा का इतना महत्व मानते हुए भी अपने देश में अभी अधिकाँश संख्या ऐसे लोगों की ही पाई जाती है जो कोई न कोई बहाना लेकर शिक्षा के श्रम से मुँह मोड़े रहते हैं। उनके बहानों में कुछ प्रमुख बहाने इस प्रकार रहते हैं- “शिक्षा है तो अच्छी चीज लेकिन इससे कोई लाभ नहीं होता। पढ़ने की आयु निकल गई है। घर-गृहस्थी तथा कारोबार की इतनी व्यस्तता रहती है कि समय ही नहीं मिलता बच्चे पढ़ें-सीखें अब अपना पढ़ना क्या? विद्या प्राप्त हो सकती नहीं और लोग उल्टा उपहास करेंगे।” ऐसे बहाना आज लोगों के लिये कोई तर्क-वितर्क देने के स्थान पर कुछ ऐसे विद्या प्रिय लोगों के उदाहरण अधिक शिक्षा एवं प्रेरणाप्रद होंगे जिन्होंने आयु एवं समय का बन्धन न मानकर शिक्षा प्राप्त की और विद्वान् बने हैं।

जर्मन के डॉ. सुज की आयु इस समय लगभग सत्तर बहत्तर वर्ष की होगी। यह वह आयु है जिसमें पहुँचकर अधिकतर लोग अपने को बेकार तथा बेमतलब का समझने लगते हैं। वे हर समय मृत्यु का दुःस्वप्न देखने के सिवाय और कुछ नहीं करते। दिन-रात चल-चलाव के विषय से अब-तब करते रहते हैं। बात-बात में कब्र में पैर लटकाये होने की घोषणा करते हुये निराशा एवं निरुत्साह की ही अभिव्यक्ति किया करते हैं। आशय यह कि उन्हें मृत्यु की प्रतीक्षा करने के सिवाय जीवन के सम्बन्ध में कोई रुचि अथवा उत्साह नहीं रह जाता।

इसके विपरीत एक डॉक्टर सुज है जो अब तक अपने को संसार की तीन सौ विभिन्न भाषाओं का विद्वान् बना चुके हैं, और अभी उनका अध्ययन यथावत् पूर्ववत् ही जारी है। आपका निश्चय है कि इन तीन सौ भाषाओं के अतिरिक्त अभी वे दो सौ विभिन्न भाषाओं का ज्ञान और प्राप्त करेंगे। यह केवल उनका उत्साह अथवा आशा ही नहीं बल्कि दृढ़ विश्वास है कि वे अपने जीवन में ही अपना यह विद्या विषयक विचार पूरा कर लेंगे उनका यह उत्साह विश्वास, संकल्प तथा प्रयत्न उनकी भावना के अनुसार सफल भी हो रहा है।

अभ्यास, लगन, अध्यवसाय तथा जीवन के प्रति इन अडिग आस्था के फलस्वरूप वे इस, लगभग पौन सौ साल की आयु में भी तरुणों की तरह ताजे और युवकों की तरह स्फूर्तिवान हैं। जहाँ इस आयु में लोगों के बाल सन की तरह सफेद होकर निष्क्राँत हो जाते हैं, कमर कमान की तरह झुक जाती है। हाथ पैरों में कंपन होने लगता है, आँख, कान आदि इन्द्रियाँ निस्तेज हो जाती हैं, गरदन डुग-डुग करने लगती है और शेष जीवन को भार की तरह ढोते नजर आते हैं, वहाँ जर्मन के आस्थावान डॉ. सुज में जरठता के ऐसे कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते। वे सर्वथा प्रफुल्ल एवं चैतन्य बने रहते हैं।

यदि विद्या प्राप्ति में आयु अथवा उपयोगिता का विचार ही प्रमुख होता तो डॉ. सुज को बहुत पहले अधिक से अधिक तीस साल के बाद अपना अध्ययन बन्द कर देना चाहिये था, और जीवन यापन के लिये एक दो भाषायें ही पर्याप्त होतीं। पांच सौ भाषाओं की योजना का व्रत न लेना चाहिये था।

किन्तु डॉ. सुज जीवन और उसके लिये विद्या तथा ज्ञान के महत्व को पूरी तरह जानते हैं। उन्होंने यथार्थ रूप में उसके प्रकाश को देखा और आनन्द को अनुभव किया है। ज्ञान का आनन्द तो इस सागर में उतरने और उस प्रकाश में पदार्पण करने पर ही जाना समझा जा सकता है, उससे दूर रह कर नहीं।

डॉ. सुज संसार के एक चमत्कारी व्यक्ति माने जाते हैं। किन्तु उसका चमत्कारी होना केवल इस मान में हैं कि उन्होंने अपने अध्यवसाय के आधार पर इस सत्य को प्रत्यक्ष कर दिया है कि मनुष्य के भीतर अद्भुत शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं, जो भी इनको काम में लाना चाहता है या लाता है वह संसार का, कोई भी ऐसा काम नहीं है, जो न कर सके। स्वयं भी डॉ. सुज ने एक साक्षात्कार के समय इस आस्था को इस प्रकार प्रकट किया है-इतनी बड़ी संख्या में भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकने का रहस्य बतलाते हुये उन्होंने कहा- “मैंने जिन्दगी के विषय में चेतना पाते ही यह जान लिया था कि मनुष्य में विभिन्न प्रकार की शक्तियों का अद्भुत एवं अक्षय भण्डार भरा पड़ा है। साथ ही मैं मनुष्य के दृढ़ संकल्प को सफलता की आधारशिला मानता हूँ, और परमात्मा की दी हुई अद्भुत शक्तियों के सदुपयोग में विश्वास रखता हूँ। मुझे इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं कि यदि मनुष्य अदम्य उत्साह, सच्ची लगन, दृढ़ संकल्प और अनवरत श्रम से किसी काम में लगा रहे तो वह मनोवाँछित सफलता का अधिकारी बन सकता है। मेरी सफलता यदि कुछ है तो, उसका मात्र इतना ही रहस्य है कि मैं जीवन में प्रारम्भ से ही- गम्भीर तथा मनोयोग पूर्वक अध्ययन, ज्ञान प्राप्ति की नित्य नई जिज्ञासा, और अनवरत श्रम तथा लगन इन तीन सिद्धान्तों का उपासक रहा हूँ।”

डॉ. सुज का उदाहरण देख-सुनकर भी अब यदि कोई व्यक्ति समय, आयु एवं उपयोग के अभाव का बहाना लेकर विद्याध्ययन से दूर रहता है तो उसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि अमुक व्यक्ति जीवन में ज्ञान प्राप्त करने का जिज्ञासु नहीं है। यों ही बहाने बनाकर अपनी दुर्बलता एवं अकर्मण्यता को छिपाने का प्रयत्न कर रहा है।

अभी हाल ही का तो समाचार है कि पैरिस की एक अस्सी वर्षीय वृद्धा ने सरबोन विश्वविद्यालय में पुनः प्रवेश लिया है और एक सुशील छात्रा के रूप में अध्ययन शुरू कर दिया है। इस समय उनके तीन प्रौढ़ पुत्र, सात युवा पुत्रियाँ और अनेक किशोर प्रपौत्रियाँ हैं जो सबकी सब पढ़ रही हैं। उनके पुत्रों एवं प्रपौत्रियों में से अनेक उनसे ऊँची कक्षा में अध्ययन कर रही हैं।

यह वृद्ध महिला 1905 तक तो पहले भी इसी विद्यालय में विज्ञान का अध्ययन करती रही थी, पर बाद में विवाह के पश्चात् घर-गृहस्थी तथा बच्चों के पालन-पोषण के कारण उनका अध्ययन रुक गया। किन्तु अब ज्यों ही वे बच्चों के पालन-पोषण तथा घर गृहस्थी के दायित्व से मुक्त हुई कि विधिवत् अपना अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। इस समय वे विश्व-विद्यालय की कुशाग्र बुद्धि छात्राओं में मानी जाती हैं।

इस महिला का यह प्रयास सिद्ध करता है कि विद्याध्ययन के लिए समय एवं आयु का कोई प्रतिबन्ध नहीं है, उसके लिये केवल उत्कृष्ट इच्छा तथा लगनशीलता की ही आवश्यकता होती है। यदि वृद्धावस्था एवं घर-गृहस्थी विद्या प्राप्ति में बाधक होती तो यह भाग्यवान महिला अब पुनः छात्रा न बन पाती। मनुष्य की प्रारम्भिक आयु तो विद्याध्ययन के लिये उपयुक्त है ही साथ ही अग्रस्थ आयु भी उसके लिये बहुत उपयोगी है। इस निवृत्त आयु का उपयोग विद्याध्ययन के लिये पूर्वकालीन आयु से भी अधिक उपयुक्त मानना चाहिए क्योंकि इस आयु में निश्चिन्तता तथा समय की कमी नहीं रहती। मनुष्य आगामी तथा वर्तमान साँसारिक चिन्ताओं से बहुत कुछ मुक्त हुआ रहता है। इस विषय में हतोत्साह एवं निराश तो वे ही लोग हो सकते हैं जो आवश्यकता न होने पर भी घर-बार की लिप्साओं में यों ही अभ्यासवश लगे रहते हैं। यदि वृद्धावस्था में विद्याध्ययन उपहासास्पद होता और विद्या प्राप्ति की आशा न होती तो यह वृद्ध महिला ऐसा कदापि न करतीं और आज समाज में प्रशंसनीय न होकर उपहास की पात्र बनी होती। अन्तिम अवस्था ही तो वह वास्तविक अवस्था है जिसमें अध्ययन के लिये निश्चित अवकाश की कमी तो नहीं ही रहती है साथ ही ज्ञान की आवश्यकता भी बहुत होती है क्योंकि उसके बाद तो पटाक्षेप होना होता है और उस अज्ञान यात्रा पर जाना होता है जिसका सबसे उज्ज्वल प्रकाशवान और उपयोगी पाथेय ज्ञान ही माना गया है।

अनेक लोग साधनहीनता का बहाना ले दौड़ते हैं। इस बहाने से अपनी अविधावृत्ति को बल देने से पहले इस लोगों को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर तथा रामतीर्थ जैसे प्रकाण्ड विद्वानों की ओर दृष्टि डाल लेनी चाहिए। पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इतने गरीब थे कि घर में प्रकाश का अभाव होने से वे रात-रात भर सड़क पर लगी लालटेनों के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे, पिता की इतनी आय न थी कि दो कक्षा तक भी पढ़ा सकते। वे ईश्वरचन्द्र से मजदूरी कराने की सोच रहे थे कि बालक ने अपनी मील के पत्थरों पर खुदी संख्याओं द्वारा गिनती सीख कर अपनी विद्या प्राप्ति की उत्कट इच्छा प्रकट कर पिता को विवश कर दिया कि वे उसे पढ़ने का अवसर दें। थोड़ा-सा अवसर पाते ही ईश्वरचन्द्र न केवल विद्वान ही बने बल्कि विद्यासागर की सम्मानित उपाधि पाकर प्रसन्न हो गये।

स्वामी रामतीर्थ दो पैसे में गुजर कर विद्या विभूति का उपार्जन करते रहे, रोटी के दो पैसे बचाकर रात को दीपक के लिये तेल खरीदते थे। नंगे पैर कॉलेज आते-जाते थे और भूखे रहकर अध्ययन किया करते थे। उनकी यह पराकाष्ठा तक की गरीबी तथा साधनहीनता उनको अपने अध्ययन से न रोक सकी और वे संसार के विख्यात विद्वानों में मिल गये।

इतना ही क्यों 1911 में काशी के सरकारी संस्कृत कॉलेज से जिन ढाई सौ स्नातकों ने उपाधियाँ प्राप्त कीं उनमें से एक श्री महेशचन्द्र शर्मा भी थे जो जन्माँध थे और जिन्होंने संस्कृत में व्याकरण आचार्य की उपाधि प्राप्त की थी। किसी के सामने जन्माँध होने वैसी मजबूरी से बढ़कर कौन सी विवशता हो सकती है। किन्तु श्री महेशचन्द्र ने अपनी सफलता से सिद्ध कर दिया कि संसार की कोई भी साधन हीनता अथवा विवशता किसी को भी विद्या प्राप्त करने से नहीं रोक सकती, बशर्ते कि उसमें लगन तथा इच्छा का अभाव न हो।

संसार में ऐसे महापुरुषों तथा ज्ञान-पिपासुओं की कभी-कमी नहीं रही और न आज ही है जो जीवनभर विद्यार्थी बने रहने में ही अपना सौभाग्य मानते हैं। वाराणसी के डॉ. रामकुमार चौबे की आयु सत्तर से ऊपर होगी। इस समय तक वे सत्तरह विषयों में एम.ए. की परीक्षा पास कर चुके हैं किन्तु अपना अध्ययन समाप्त नहीं किया है। उनका संकल्प है कि वे जीवन भर विद्यार्थी बने रहेंगे और संसार का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करेंगे। उनका निश्चय है कि वे लगभग सभी विषयों में एम.ए. की परीक्षा पास करेंगे। इसी क्रम में उन्होंने अभी हाल ही में तीन विषयों में आचार्य की उपाधियाँ प्राप्त कर एल.एल.बी. की परीक्षा पास की है और बनारस विश्वविद्यालय से ही कला तथा स्थापत्य कला की एम.ए. परीक्षा में प्रविष्ट हुये हैं। वे लगभग 45 वर्षों से विविध विषयों में अध्ययन भी करते रहे और हालैण्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टर आफ लाज की सम्मानित उपाधि लेकर इस समय काशी विद्यापीठ में अवैतनिक प्राध्यापक के रूप में जनसेवा का पुण्य लाभ कर रहे हैं।

ऐसे अध्यवसायी एवं विद्याप्रेमियों के उदाहरण देख सुनकर भी जो शिक्षा के सम्बन्ध में समय एवं उपयोगिता की मीनमेख निकाल कर उससे विरत रहते हैं तो यह उनका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

धन की तराजू पर विद्या का उपयोग जाँचना अवाँछनीय वाणिज्य है। विद्या स्वयं एक धन है। ऐसा धन जिसे न चोर चुरा सकता है, न दावेदार बाँट सकता है, जो आपत्ति तथा प्रवास में सच्चे बन्धु की तरह सहायक होता है और दान करने से अधिकाधिक बढ़ता है। इस धन के लिए न राजा का भय होता है और न नश्वरता। इसलिए किसी भी अवस्था में एवं परिस्थिति में क्यों न हो विद्या प्राप्त करने से विरत नहीं ही होना चाहिए और मनीषियों द्वारा प्रतिपादित इस नीति वचन में विश्वास करना चाहिए-

पाठतो नास्ति मूर्खत्वं जपतो नास्ति पातकम्।

जाग्रतस्तु भयं नास्ति कुलो नास्ति मोनिनः॥

अर्थात्- जो निरन्तर प्रयत्नशील रहता है उसमें मूर्खता नहीं आती जो जप-तप करता रहता है उससे कोई पाप नहीं होता। जो जागरुक रहता है उसे भय नहीं होता और जो मौन धारण करता है वह कलह विग्रह से बचा रहता है।

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