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Magazine - Year 1970 - Version 2

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आत्मविस्तार– अखण्ड आनन्द का एकमात्र साधन

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आनन्द की उत्पत्ति प्रियता से ही होती है। यह सारा संसार पंचतत्वों से बना है। पंचतत्वों की स्थिति जड़ है। जड़ता में न तो सुन्दरता होती है, न आकर्षण और न आनन्द। इस प्रकार यह सारा संसार एक प्रकार से असुन्दर एवं अनाकर्षक ही है। तब भी लोगों का मन संसार में लगता है। उसमें आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है।

यह बात सही है कि संसार में लोगों का मन लगता है, आनन्द आता है; किन्तु यह बात भी गलत नहीं है कि सन्त को न तो संसार की सब चीजें अच्छी लगती हैं, और न सब बातों में आनन्द ही आता है। किसी को आनन्द केवल उसी विषय अथवा वस्तु में प्राप्त होता है, जो उसे प्रिय होती है। उदाहरण के लिए, परस्पर विरोधी वस्तुएँ होने पर भी किसी को दूध पसन्द आता है, उसे सेवन करने में आनन्द मिलता है, और किसी को शराब पीने में। यदि उनमें से किसी एक ही वस्तु में आनन्द होता, तो वही एक चीज सबको प्रिय एवं पसन्द होती; लेकिन ऐसा नहीं होता। वास्तविक बात यह है कि जिस मनुष्य की, जिस वस्तु में प्रियता संलग्न होती है, वही चीज उसे पसन्द आती है, और उसी में आनन्द प्राप्त होता है। इस सारे विवेचन का अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि आनन्द और आकर्षण वस्तु अथवा विषय में नहीं बल्कि मनुष्य की प्रियता में होता है।

प्रियता की उत्पत्ति आत्मीयता से होती है। जमीन, जायदाद, घर, मकान, पशु-पक्षी, जो भी जब तक अपने रहते हैं, उनके प्रतिआत्म भाव बना रहता है, बड़े प्रिय लगते हैं। उनकी सुरक्षा, सुन्दरता और पालन-पोषण में बड़ी रुचि रहती है। उनको जरा सी क्षति होते ही हृदय पर चोट लगती है। उन्हें देख-देखकर बड़ा आनन्द मिलता है। किन्तु जब किन्हीं कारणों से वे अपनी वस्तुयें पराई हो जाती हैं, तो आत्मीयता का भाव समाप्त हो जाने से, उनके प्रति किसी प्रकार का आकर्षण नहीं रह जाता। उन वस्तुओं के प्रति प्रियता का भाव नहीं रहता और तब उनके टूट-फूट, मर-मिट जाने पर भी अपने को कोई कष्ट नहीं होता। यदि आनन्द और प्रियता उन वस्तुओं में रही होती, तो अवश्य ही अपनी न रहने पर भी उनके प्रति वही प्रियता और आकर्षण बना रहता। आनन्द की उत्पत्ति प्रियता से ही होती है और प्रियता की उत्पत्ति आत्मभाव से।

आत्मीयता में प्रियता की उपलब्धि इसलिए होती है कि आत्मा अपने को बहुत प्यार करता है। जिस वस्तु अथवा विषय में वह अपनी छाया की झलक पाता है, वही उसे प्रिय लगने लगती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा मनुष्य को अपने बच्चे अधिक प्यारे लगते हैं; दूसरे के बच्चे चाहे जितने सुन्दर और सुशील क्यों न हों, तब भी वे उतने प्रिय नहीं लगते, जितने कि अपने बच्चे। इसका कारण यही होता है कि अपने बच्चे अपनी आत्मा के अंश होते हैं। वे आत्मा का ही एक प्रतिबिंब होते हैं। चूँकि आत्मा अपने को प्यार करता है, इसलिए अपने अंश रूप बच्चों को भी प्यार करता है। परमात्मा की तरह निराकार होने पर भी आत्मा बड़ा सुन्दर और आनन्दमय है और उसी की तरह वह अपने स्वरूप को भली-भाँति जानता है। वह अपनी सुन्दरता, गुण और विशेषताओं से अच्छी तरह परिचित होता है। इसलिए उसका अपने को प्यार करना स्वाभाविक ही है। इसमें किसी प्रकार की असंगति नहीं है। एक सामान्य मनुष्य, जो सुन्दर होता है, गुणी और विशेषतापूर्ण होता है, जब वह भी अपने को प्यार करता है, तब आत्मा तो अलौकिक सुन्दरता और गुणों का निधान होता है; फिर भला वह अपने को प्यार क्यों न करेगा। यही वह नैसर्गिक कारण है कि जहाँ-जहाँ जिस वस्तु में आत्मा को अपना आभास मिलता है, वहाँ-वहाँ वह उस वस्तु को प्यार करने लगता है और उसी में रसानुभूति और आनन्द पाने लगता है।

सौंदर्य और आनन्द आत्मा का सहज धर्म है। जहाँ-जहाँ तक आत्मा का विस्तार होता जाएगा वहाँ-वहाँ तक सौंदर्य और आनन्द का विस्तार होता जाएगा। यों तो संसार में न तो आनन्द है और न सुन्दरता; लेकिन आत्मा की उपस्थिति से वह सुन्दर भी भासता है और आनन्दपूर्ण भी लगता है। यदि हम सांसारिक जीवन में वास्तविक रूप से आकर्षण और आनन्द चाहते हैं और इच्छा रखते हैं कि इसके दुःख-क्लेश और शोक-संताप न व्यापें, सब ओर और सब काल सुख और उल्लास की ही प्राप्ति होती रहे, तो हमें अपनी आत्मा का विस्तार करना होगा। इस दुःखपूर्ण संसार में भी अखण्ड और अनिवर्चनीय आनन्द की सम्भावना है और उसको प्राप्त किया जा सकता है। इसका प्रमाण हमारे ऋषि-मुनियों का जीवन रहा है। उन्होंने इस तथ्य को समझा कि इस नीरस और नश्वर संसार में जो भी सुख, जो भी आनन्द और जो भी रस है, वह सब आत्मा की उपस्थिति से है। इसलिए उन्होंने आनन्द की खोज विषय अथवा वस्तु में न करके, आत्मा में करने की बुद्धिमानी की। उन्होंने अपनी इस बुद्धिमत्ता के बल पर आनन्द के आदि स्रोत आत्मा को प्राप्त किया और अपने जीवन में अक्षय और अनन्त आनन्द की स्थापना कर ली। महान ऋषि-मुनियों का आनन्द किसी वस्तु अथवा विषय पर निर्भर नहीं था। वे स्वतः आत्मा से आनन्दित रहते थे। विषयवस्तु के सम्बन्ध में वे इतने निरपेक्ष रहते थे कि सामान्य जीवनयापन के साधन भी उनके पास अपर्याप्त मात्रा में ही रहते थे। तब भी वे पूर्ण सन्तुष्ट, पूर्ण शान्त और पूर्ण सुखी रहते थे। आनन्द का उद्गम और स्रोत आत्मा ही है। उसी की उपस्थिति से इस संसार में सुख की प्रतीति होती है। सच्चा आनन्द आत्मा को ही प्राप्त करने पर मिल सकता है। दूसरे उपाय से नहीं।

आत्मा के विस्तार का महत्त्व अकथनीय है। उसकी सफलताएँ अनन्त हैं ; इसीलिए विवेकवान व्यक्ति भौतिकता के हाथ न बिककर आध्यात्मिक जीवन को महत्व देते थे। वे बड़े से बड़ा कष्ट सहकर और त्याग करके भी आत्मिक विस्तार के प्रयत्न में संलग्न रहते थे। यह सोचना कि आध्यात्मिक जीवन को प्रमुखता देने पर व्यवहार-जगत की उपेक्षा हो जाएगी, गलत है। भारतीय आर्य पुरुष अज्ञानी नहीं थे। वे व्यवहार-जगत का महत्त्व समझते थे और बड़े कुशल व्यवहारवादी थे। अन्तर केवल इतना था कि भौतिकवादी दृष्टिकोण रखने वालों का व्यवहार स्वार्थ पर ही निर्भर रहता था और उनके व्यवहार का आधार हर प्रकार से परमार्थ रहता था। अपने व्यवहार-जगत की क्रियाओं को स्वार्थ से हटाकर परमार्थ पर निर्भर कर देने से रंच मात्र भी हित की हानि नहीं होती है; बल्कि जहाँ स्वार्थ पर आधारित हितों के नष्ट हो जाने का भय रहता है, वहाँ परमार्थ पर निर्भर हित सदैव सब प्रकार से सुरक्षित रहता है। परमार्थपूर्ण व्यवहारिक नीति का ग्रहण, सब प्रकार से पवित्र और कल्याणकारी होता है। उससे लोक और परलोक दोनों की सफलता निश्चित होती है।

मनुष्य जब तक स्वार्थ के संकीर्ण दायरे में बन्दी रहता है तब तक ही दुःख पाता है। संकीर्णता का परिणाम दुःख ही है; किन्तु जब संकीर्णता से निकलकर विशालता में प्रवेश करता है, तो आनन्द की अनुभूति अनायास ही उसके पास आ जाती है। जब तक मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत होकर ‘यह मेरा है, इतना मेरा,’ की संकीर्ण भावना से अभिभूत है, उसकी उपलब्धियाँ उसकी भावना के अनुसार सीमित तथा संकीर्ण बनी रहेंगी। किन्तु जब वह संकीर्णता के दायरे से निकलकर यह सोचने लगता है कि यह सारा संसार हमारा है, इसकी हर वस्तु मेरी अपनी है, संसार के सारे प्राणी परम पिता परमात्मा के नाते मेरे भाई बन्धु हैं; मेरे आत्मीय जन हैं; तो सम्पूर्ण संसार पर, उसकी सम्पूर्ण वसुधा के साथ, अपना अधिकार अनुभव होने लगता है और वह अपने इस आत्मभाव से ही तृप्त तथा सन्तुष्ट हो जाता है। उसकी ऐषणाऍ , तृष्णाऍ, लिप्साऍ एक साथ नष्ट हो जाती हैं, जिसका फल उसे अखंड एवं अनिवर्चनीय आत्मसुख के रूप में ही मिलता है। आत्मविस्तार के अनुपात से मनुष्य संकीर्णता के बन्धन से मुक्त होकर व्यापकता की ओर बढ़ता और तदनुसार ही आनन्द तथा तृप्ति पाता चला जाता है।

आत्मीयता के अभाव में आनन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। फिर उसके लिए चाहे वस्तुओं के विधान संचयकर लिए जाऐ या विषयों में आजीवन आकंठ निमग्न रहा जाए! इस कुरूप तथा क्लेशपूर्ण संसार में सुख अथवा सुन्दरता कहाँ? यदि सच्चे सौंदर्य और वास्तविक आनन्द की अनुभूति करनी है, तो आत्मा की दिशा में अभियान करना होगा। आत्मा को प्रबुद्ध कर, उसको सब ओर, सबके साथ सम्बद्ध करना होगा। अपनी आत्मा का ही सौंदर्य और उसी की रसानुभूति बाह्य संसार में प्रतिभासित होकर संसार को सौंदर्य तथा आनन्दपूर्ण बनाती है। यह जड़ संसार न तो अपने में सुन्दर है और न आनन्दपूर्ण। प्रियतम-आत्मा का आनन्द छलक-छलककर जब संसार के पदार्थों पर प्रत्यक्ष होता है, तभी वे अपने को प्रिय तथा आनन्ददायक अनुभव होती हैं। संसार का कोई भी पदार्थ– कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, उसका प्रिय-अप्रिय लगना उसकी विशेषता पर निर्भर नहीं है; वह अपनी उस निःस्वार्थ आत्मीयता पर निर्भर है, जो उसके साथ सम्बन्धित होती है। इस आध्यात्मिक क्रम को सदा याद रखना चाहिए कि आनन्द की उत्पत्ति प्रियता से और प्रियता की उत्पत्ति आत्मीयता से होती है।

यदि सच्चे सुख और वास्तविक आनन्द की आकांक्षा है, तो सांसारिक वस्तुओं अथवा विषयों की नहीं, आत्मा की शरण में जाना होगा। उसी की आराधना एवं उपासना से आनन्द की यह आकांक्षापूर्ण होगी। बाहर संसार में कुछ भी नहीं है। जो भी सुख, आनन्द और रूप स्वरूप है, वह सब अपने अन्दर और अपनी आत्मा में ही है। बाह्य संसार में जो भी रसानुभूति होती है, वह सब अपने अन्तर की ही छाया मात्र होती है। जिसका आत्मा जितना-जितना स्पष्ट और व्यापक होता जाता है, उसकी छाया भी उतनी ही गहरी और स्थायी होती जाती है। आभास के अनुपात से ही बाहर संसार के पदार्थों में भी उसी अनुपात से सुख-सौंदर्य की अनुभूति होती जाती है।

बाह्य वस्तुओं तथा विषयों से आत्मा को सुखी करने का प्रयास गलत है। सही प्रयास यह है कि आत्मा द्वारा, उसके विकास और आभास द्वारा बाह्य संसार की विषय वस्तुओं को सुख एवं सौंदर्य के योग्य बनाना चाहिए। जो कुछ है अपने अन्दर ही है। इसलिए अपने अन्दर अपनी आत्मा को ही खोजना, समझना, पाना और बनाना चाहिए। आत्मा के जागरण, विकास तथा विस्तार के उपलक्ष में ही यह कुरूप तथा क्लेशपूर्ण संसार आनन्ददायक तथा आकर्षक बन सकता है। शाश्वत सुख और अक्षय आनन्द पाने का एक ही उपाय है, वह है– आत्मीयता का भाव बढ़ाना। आनन्द की उत्पत्ति प्रियता से और प्रियता की उत्पत्ति आत्मीयता से होती है। जिस दिन मनुष्य का आत्मविस्तार संसार के अणु-अणु से आत्मीयता का सम्बन्ध बना लेगा, उस दिन उसके लिए यह सारा संसार आनन्द और सौंदर्य का विधान बन जाएगा और उसके लिए उसी प्रकार इस अनुभूति की कमी न रहेगी, जैसे हमारे ऋषि-मुनियों के लिए नहीं रहती थी।

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