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Magazine - Year 1970 - Version 2

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पदार्थ और प्रतिपदार्थ– गुरुत्वाकर्षण और प्रतिगुरुत्वाकर्षण

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First 6 8 Last
ब्रह्माण्ड की रचना और विकास सम्बन्धी डॉ0 हापल की खोजों का आज सारे संसार में तहलका मचा हुआ है, किन्तु हापल ही नहीं दूसरे वैज्ञानिकों का भी मत है कि संसार केवल भौतिक पदार्थों या प्रकृति की ही रचना है। उसके मूल में कोई ऐसी चेतन या विचारशील सत्ता नहीं है, जिसे हम ईश्वर, जीव या आत्मा कहें।

भारतीय तत्त्वदर्शन में इन शब्दों को वैज्ञानिक भी बनाकर रखा गया है, इसलिये चेतना की कल्पना असंदिग्ध नहीं है। कठोपनिषद् में पदार्थ से भी सूक्ष्म सत्ता का ज्ञान कराते हुए उपनिषद्कार लिखता है-

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान परः॥

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।

पुरुंपात् न परं किंचित् सा काष्ठा सा परागतिः॥

– 1।3।10, 11

अर्थात् इन्द्रियों से सूक्ष्म उनके विषय और इन्द्रियों– के अर्थ से भी मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि और बुद्धि से भी आत्मा सूक्ष्म है, अव्यक्त-अचिन्त्य-आत्मा से भी परे अर्थात् सूक्ष्म पुरुष है, पुरुष से परे कुछ भी नहीं है। वही अन्तिम स्थान और परे से भी परे की गति है।

पैगिरहस्य ब्राह्मण में, शंकर ब्रह्मसूत्र, मानव धर्मशास्त्र तथा गीता में उसे अज और क्षेत्रज्ञ दो नामों से पुकारा गया है। वास्तव में ईश्वर की व्याख्या के लिये यही दो शब्द सर्वाधिक वैज्ञानिक हैं। प्रकृति का कार्य है– ब्रह्माण्ड की रचना, यदि आत्मचेतना को प्रकृति का ही गुण मान लिया जाये, तो फिर वैज्ञानिक प्रत्येक तारा में जीवन क्यों नहीं मानते? फिर तो किसी भी रूप में प्रत्येक पिंड में जीवन होना चाहिए, पर ऐसा अभी वैज्ञानिक उपकरणों के ज्ञान में नहीं आया है। यद्यपि वह प्रकृति के कण-कण में समाविष्ट है पर वह दृश्य नहीं, क्षेत्रज्ञ है अर्थात् प्रत्येक क्षेत्र को अच्छी प्रकार जानने वाला है। “आनन्दीवातं स्वधया तदेकम्” (ऋग्वेद 10।129।2)- वह बिना प्राणवायु के जीवित, प्रकृति से संयुक्त किन्तु अद्वितीय है।

उपनिषद्कारों की यह मान्यतायें कपोल-कल्पित कर दी गई होतीं, वेद के ज्ञान को सचमुच ठुकरा दिया गया होता यदि विज्ञान उस सूक्ष्मता के अध्ययन की ओर अग्रसर नहीं होता।

संसार के सभी पदार्थ मूलभूत दो प्रकार के कणों से बने हैं– 1. नाभिक कण (न्यूक्लियस)– इसमें अब तक जो जानकारियाँ मिली हैं, वह प्रथम कण प्रोट्रॉन है, जिसमें धन विद्युत आवेश होता है और दूसरा कण न्यूट्रॉन, है जिसमें कोई चार्ज नहीं होता। इससे अधिक नाभिक की कोई जानकारी नहीं थी। यह उल्लेखनीय है कि प्रयोग के समय गणितीय- निष्कर्ष- सत्य निकलते हुए भी यह केवल परिकल्पनायें हैं, इन्हें आज तक किसी ने देखा नहीं।  दूसरे नम्बर के कणों को इलेक्ट्रान कहते है, जो ऋण विद्युत के कण होते है और नाभिक के किनारे-किनारे चक्कर लगाते हैं।

  सन् 1930 के एक दिन, एक फ्रेंच वैज्ञानिक डॉ. पाल एन्द्रियेन मारिस डीराक के मस्तिष्क में एक विचार आया कि क्या ऐसा भी हो सकता है कि नाभिक (न्यूक्लियस) में पाये जाने वाले धनावेश द्रव्य के साथ ही ऋणावेश द्रव्य भी हो और इलेक्ट्रान के साथ कोई ऐसा भी इलेक्ट्रान हो, जो ऋण विद्युत आवेश न होकर धनावेश हो।

वास्तव में यह कल्पना नितान्त गप्प लगती थी, इसीलिये इस वैज्ञानिक ने अपना विचार किसी पर प्रकट नहीं किया; फिर भी उसके मस्तिष्क में वह काल्पनिक ध्वनि उतनी चुप न रह सकी। वह निरन्तर विचार करता रहा, तो एक दिन वही कल्पना सत्य सिद्ध हो गई और 1933 में ही एक नया कण ‘पॉजीट्रान’ सामने आ गया, जो था तो इलेक्ट्रान, पर उसमें ऋण विद्युत आवेश न होकर धन विद्युत आवेश था। इसी पर मारिस डीराक को ‘नोबुल पुरस्कार’ भी मिला।

उसके बाद भी खोजें चलती रहीं। 1955 में ओवेन चैम्बरलेन तथा एमोलियो जे. सेग्रे ने ‘प्रतिप्रोट्रॉन है तो प्रोट्रॉन ही पर उसका उल्टा अर्थात् ऋणावेश कण है। इस खोज के साथ ही प्रकृति के साथ एक नये तत्त्व की खोज का क्रम चलता है, उसे प्रतिपदार्थ या एण्टीइलेमेन्ट कहते हैं। यह प्रतिपदार्थ कोई स्थूल द्रव्य न होकर वास्तव में वैसा दर्शन या अनुभूति मात्र है, जिसमें समय, गति और पदार्थ समासीन दिखाई देता है। वास्तव में यदि इस नये निष्कर्ष को क्षेत्रज्ञ के साथ तुलना करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी निराकार सत्ता की स्थिति अकाट्य है, जो स्वयं पदार्थ में होकर भी पदार्थ से परे– अद्वितीय है। इसे जीव, आत्मा, विचार, ज्ञान, अनुभूति, मन, बुद्धि इस तरह की कोई संज्ञा कह सकते हैं।

इससे भी महत् कल्पना तो प्रतिब्रह्माण्ड की है। अब वैज्ञानिक यह विश्वास करने लगे हैं कि ब्रह्माण्ड के निर्माण में, जिससे हम परिचित हैं, केवल वही द्रव्य या पदार्थ काम नहीं कर रहा; वरन् एक उसी के गुणों वाला, किन्तु उससे ठीक विपरीत एक और भी तत्त्व होना चाहिए। उसका नामकरण अभी से कर दिया गया है, पर उसकी जानकारी और खोज अभी तक अधूरी है। इसका मूल कारण परमाणुओं में प्रतिपरमाणु की उपस्थिति है। ऋण और धन आवेश पास-पास आते ही एकदूसरे को रद्द कर देते हैं। उसी प्रकार यह दोनों प्रकार के तत्त्व होकर भी एकदूसरे से विपरीत पड़ने के कारण परस्पर इस प्रकार आलिंगनबद्ध हो जाते हैं कि उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है।

तुलसीदास ने भी यही लिखा है –

गिरा अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।

बन्दौं सीताराम पद, जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥

     जो केवल दुःखियों के दुःख दूर करने में निरन्तर रत हैं, उन प्रकृति और परमेश्वर को एकदूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वे वाणी में, भाव और जल में तरंग की भाँति इस तरह गुथे हैं, कि अलग-अलग कदापि नहीं किया जा सकता।

जो वस्तु है, पर दिखाई नहीं देती, उसके अस्तित्व को कैसे स्वीकार किया जाये, किस प्रकार उसे देखा और उसकी अनुभूति की जाये– यह एक जटिल समस्या है। भारतीय तत्त्वदर्शन के आधार पर ऐसी योग-पद्धतियाँ विकसित की गई हैं, जिनके अभ्यास से इन सूक्ष्म तत्त्वों की अनुभूति की जा सकती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि साधन ऐसे ही हैं, जिनसे आत्मचेतना के विभिन्न स्तरों का क्रमिक विकास होता है और उनसे अन्न या पदार्थों की क्रमशः सूक्ष्म होती अवस्था– रस, रक्त, मास, अस्थि, वीर्य, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि का तात्त्विक ज्ञान होता चला जाता है; पर यह ऐसी कष्टसाध्य, समयसाध्य तथा श्रद्धा और विश्वासभूत प्रक्रियाएं हैं, जिन पर आज का बुद्धिमान या पढ़ा-लिखा व्यक्ति सहज आस्था प्रकट नहीं कर सकता। तर्क की कसौटी पर यह मान्यतायें सही नहीं उतरतीं। आज की प्रत्येक बात विज्ञान के तरीके से स्वीकार की जाती है। यद्यपि उपरोक्त तरीके आत्मविकास के वैज्ञानिक प्रयोग ही हैं, पर उनका वैज्ञानिक विश्लेषण न हो पाने से ही तथाकथित तार्किक व्यक्ति सन्तुष्ट नहीं हो पाते; उन्हें ईश्वरीय उपस्थिति और आत्मकल्याण के सूत्र वैज्ञानिक ढंग से ही समझाये जा सकते हैं। अब विज्ञान इस स्थिति में आ भी गया है, जब भारतीय तत्त्व दर्शन को हल्का बनाकर उन्हें भी इन सत्यों से परिचित कराया जा सके।

न्यूटन बगीचे में बैठा था। ऊपर पेड़ से एक सेब गिरा, तो न्यूटन चकित हो गया। सामान्य व्यक्ति के लिये इसमें क्या आश्चर्य हो सकता था, पर न्यूटन के मस्तिष्क में उसी बात ने एक भिन्न दिशा पकड़ी। उसने सोचा– वह सेब नीचे ही क्यों आया, आकाश में क्यों नहीं चला गया? इस तर्क ने गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत को जन्म दिया, जो आज तक विज्ञान-जगत का एक विशिष्ट सिद्धांत माना जाता रहा है।

अब उसे सार्वभौमिक नियम बनाने में कठिनाई हो रही है। फ्रांस के वैज्ञानिक पॉल काउडर्क ने अपनी पुस्तक 'ब्रह्माण्ड विस्तार', पेज 196 (एक्शपैंशन आफ दि यूनिवर्स) में लिखा है कि तारामंडल गैलेक्सीज का दूरगमन न्यूटन के सिद्धांत को तोड़ता है। गुरुत्वाकर्षण के अनुसार तो पदार्थ को सीमित होना चाहिए, वह फैलता क्यों है? आइंस्टीन का भी मत है कि न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण कोई शक्ति नहीं, वरन् पार्थिव आकर्षण मात्र है’। वस्तुतः न्यूटन को जो श्रेय मिला, वह तो हमारे भीष्म पितामह को मिलना चाहिए, जो आइन्स्टीन से कहीं अधिक समीप है। भूत पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए उन्होंने युधिष्ठिर से कहा-

भूमैः स्थैर्यं गुरुत्वं च काठिन्यं प्रसवात्मता।

गन्धो भारश्व शक्तिश्च सघातः स्थापना धृतिः॥

– महाभारत शा. प. 261

  हे युधिष्ठिर। स्थिरता, गुरुत्वाकर्षण, कठोरता, उत्पादकता, गन्ध, भार, शक्ति, संधान, स्थापना आदि भूमि के गुण हैं।

यह गुण भूमि में ही नहीं, संसार के सभी पदार्थों में है कि वे अपनी तरह के पदार्थों को आकर्षित और प्रभावित करते हैं, भले ही वह दूरी कितनी ही क्यों न हो। इसका सबसे अच्छा विश्लेषण कई हजार वर्ष पूर्व महामुनि पतंजलि ने ‘सादृश्य और आंतर्य’ सिद्धांत से कर दिया था। गुरुत्वाकर्षण सादृश्य का ही उपखंड है। समान गुणों वाली वस्तुएँ परस्पर आकर्षित होती हैं। उससे आंतर्य पैदा होता है अर्थात् एक स्थान की वस्तुएँ दूसरे स्थानों की ओर गमन करती रहती हैं। इसी से सृष्टि-विकास की प्रक्रिया निरन्तर चल रही है-

‘अचेतनेष्वपि, तद् यथा-लोष्ठ क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव निर्यग गच्छति नोर्ध्वमारोहति पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति-आन्तर्यत: तथा या एता आन्तरिक्ष्यः सूक्ष्मा आपस्तासाँ विकारो धूमः। स आकाश देशे निवाते नैव तिर्यग् गच्छति नावागवरोहति। अब्विकारो ऽप एवं गच्छति आर्न्तयतः। तथा ज्योतिषो विकारो अर्चिराकाश देशो निवाते सुप्रज्वलितो नैव तिर्यग् गच्छति, नावागवरोहति। ज्योतिषो विकारो ज्योतिरेव गच्छति आर्न्तयतः। - 1।1।50

‘चेतन-अचेतन सबमें आंतर्य सिद्धान्त काम करता है। मिट्टी का ढेला आकाश में जितनी बाजुओं की ताकत से फेंका जाता है, वह उतना ऊपर चला जाता है, फिर न तो ऊपर जाता है न ही तिरछा जाता है, वह तो पृथ्वी का विकार होने के कारण पृथ्वी में ही आ गिरता है। इसी का नाम आंतर्य है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में सूक्ष्म आपः (हाइड्रोजन) की तरह का सूक्ष्म जलतत्व ही उसका विकार धूम है। यदि पृथ्वी में धूम होता है, तो वह पृथ्वी में क्यों नहीं आता? वह आकाश में जहाँ हवा का प्रभाव नहीं, वहाँ चला जाता है– न तिरछे जाता है, न नीचे आता है। इसी प्रकार ज्योति का विकार “अर्चि” है। वह भी न नीचे आता है, न तिरछा जाता है। फिर वह कहाँ जाता है? ज्योति का विकार ज्योति को ही जाता है।’

इस आंतर्य के सिद्धान्त से शरीर के स्थूल और सूक्ष्म सभी तत्त्वों का विश्लेषण कर सकते हैं। इनमें सभी स्थूल, द्रव्य आदि अपने-अपने क्षेत्र को चले जाते हैं, पर प्रत्येक क्षेत्र का अनुभव कराने वाला अर्चि कहाँ जाता है? उसे भी आंतर्य के सिद्धांत से कहीं जाना चाहिए। उसका भी कोई ब्रह्माण्ड और ठिकाना होना चाहिए, जहाँ वह ठहर सके। जब इस प्रकार का ध्यान किया जाता है, तब एक ऐसी उपस्थिति का बोध होता है, जो समय, ब्रह्माण्ड और गति से भी परे होता है। वह कारण-चेतना ही ब्रह्म है। योग का उद्देश्य शरीरस्थ क्षेत्रज्ञ को उस कारण-सत्ता में मिला देने का है। आंतर्य सिद्धान्त ध्यान की इसी स्थिति को सिद्ध करता है। इसीलिये उसे प्रतिगुरुत्वाकर्षण कहा जा सकता है अर्थात् मन को अन्य सभी विकारों का परित्यागकर केवल चेतना को चेतना से ही, प्रकाश को प्रकाश से ही मिलाने का अभ्यास करना चाहिए। इसी से पदार्थ से परे, राग-द्वेष आदि पार्थिव विकारों से परे, उस शुद्ध-बुद्ध-निरंजन आत्मा और परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है।

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