
भारत एक राष्ट्र-संघ, वैदिक संस्कृति-विश्व-संस्कृति
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हिमालय में कुछ पक्षी ऐसे पाये जाते हैं जो वर्ष भर केवल देशाटन करते रहते हैं। भारतवर्ष ही नहीं, पड़ौसी देशों में भी वे जाते रहते हैं। यह उनकी आहार आदि की सुविधा पर निर्भर है कि वे किधर जायें, किधर न जायें पर जब अण्डे देने का अवसर आता है तब वे अपने मूल निवास स्थान हिमालय को ही लौट आते हैं। ऐसा ही इतिहास अटलांटिक सागर में पाई जाने वाली ‘ईल’ मछली का भी है। वह मीठे पानी के लिये हजारों मील समुद्र पार कर गंगा यमुना तक पहुँचती है पर उसे अण्डे देने होंगे तो अपने अटलांटिक सागर में ही जाकर देगी।
संसार में फैली हुई सैकड़ों जातियाँ और विभिन्न देशों के निवासी आकृति, रंग, रूप, खानपान और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण वेष व बनावट में कितने ही बदलाव क्यों न आ गये हों, वे सब एक ही मूल पुरुष से जन्में, एक ही स्थान से विकसित हुए हैं। एक घर में जब चार लड़के हो जाते हैं, तब चार घरों की आवश्यकता पड़ती है। बड़ा वहीं रह जाता है, शेष तीन नया घर बना लेते हैं। ऐसा करते-करते ही इस पृथ्वी पर इतने देश, इतनी जातियाँ बन गई और वे ऐसी अलग-अलग हो गई कि अब उनको एक ही पिता की सन्तान कहना भी कठिन हो गया है।
किन्तु धार्मिक भूगोल और मनुष्य जाति के पुरातत्व इतिहास की खोज एक बार हमें फिर उसी ओर ले जाती है। उपलब्धियाँ और निष्कर्ष यह बताते हैं कि भारत कभी सारे संसार का राष्ट्र संघ था और यहाँ की संस्कृति विश्व संस्कृति। अनेक देशों में रहने वाले लोग भाषा की दृष्टि से एक थे- उसकी भाषा संस्कृत थी। आचार की दृष्टि से एक थे- सभी ईश्वर उपासक और संगठन बनाकर जीवों को पालकर रहने वाले होते थे। सच्चाई, ईमानदारी आदि के पालन पर विशेष ध्यान दिया जाता। राजाओं को अनेक अधिकार और सुविधाएँ इसीलिए दी जाती थीं कि वे खण्ड-खण्ड में बसे देशवासियों का निरीक्षण करते रहें और कभी कहीं उद्दण्डता न पनपने दें। यह सब राजे-महाराजे और शासन-तन्त्र भारतवर्ष से जुड़े रहते थे। उन्हें दिशा-निर्देश यहीं से होता था। वेदान्त संस्कृति की आदि भूमि होने के कारण चक्रवर्ती साम्राज्य यहीं से चलते थे। यह धर्म का एक आवश्यक अंग था और उसके लिये लोगों को ज्ञान-धारायें ही प्रवाहित नहीं की जाती थीं, शक्ति और शस्त्र का प्रयोग भी किया जाता था। यह उत्तराधिकार हिन्दुओं ने एक समर्थ संगठित जाति होने के कारण ही अपने कन्धों पर लिया था और उसका धर्म-पूर्वक पालन भी करते थे। आज भी यदि हम समर्थ हों और शस्त्र नहीं शक्ति के द्वारा विश्व संघ की रचना एक महान आदर्श विश्व शाँति के लिये कर सकें तो यह एक बड़ी बात होगी। यदि अपनी आँतरिक बुराइयों को दूर कर हम अपने को ज्ञान-विज्ञान, धर्म-संस्कृति, आचार-विचार, रहन-सहन आदि की दृष्टि से सर्व समर्थ सिद्ध कर सकें तो शौर्य और साहस आज भी हमारा वही है। संसार में फैले अपने छोटे भाइयों को एक बार फिर से मानवता के रास्ते पर ज्ञान और शक्ति दोनों तरह से लाया जा सकता है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि पहले ऐसा ही था। भारतीय संस्कृति मनु को आदि पुरुष मानती है। संपादक प्रायः सभी देश और धर्म भी मनु को ही अपना पितामह मानते हैं। हमारे धर्मग्रन्थ बताते हैं-
मनुना च प्रजाः सर्वाः सदेवासुर मानुषाः।
सृष्टव्याः सर्वलोकाश्च यत्रेगति पच्चेगति॥
-महाभारत वनपर्व
अर्थात्- सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार जाकर बसे देवता, मनुष्य और राक्षस (यह मनुष्यों के क्रमशः गुण-विभाग हैं) सब मनु की ही प्रजा है।
अमरेन्द्रमया बुद्धया प्रजाः सृष्टास्तथा प्रभौ।
एक वर्णाः समाभाषा एक रुपाश्च सर्वशः॥
-बाल्मीक रामायण
अर्थात्-हे प्रभो। संसार भर में बसे सभी लोग एक ही जाति, एक ही भाषा और सब प्रकार एक ही आचार-विचार वाले मनु के पुत्र हैं।
‘एन्सियन्ट एण्ड मीडिवियल इण्डिया’ के प्रथम खण्ड 118 पेज में प्रसिद्ध इतिहासकार मैनिंग ने उपरोक्त तथ्य की जो तुलनात्मक व्याख्या की है वह बड़ी महत्वपूर्ण है। श्री मैनिंग लिखते हैं कि मानव-जाति के आदि जनक, जिन्हें भारतीय ‘मनु’ कहते हैं, उन्हीं से संसार की सभी जातियाँ बनीं, यह निर्विवाद सत्य है। भारतीय मनु या मानस की तरह जर्मन भी आदि पुरुष को “मनस” कहते हैं, यही ‘ट्यूटनों’ के मूल पुरुष समझे जाते हैं। जर्मनी का “मन्न” और अँग्रेजी का मैन उच्चारण में थोड़ा अन्तर रखता है पर वह “मनु” ही है। जर्मनी के “मनेस” और संस्कृत के “मनुष्य” में कोई अन्तर नहीं है।
बाहर गई हुई जातियाँ कालान्तर में अपने आहार-विहार और रहन-सहन बदलती अवश्य गई पर वे लम्बे अर्से तक साधना, उपासना, व्यवहार-व्यापार, धर्म और दर्शन, भाषा और शासन व्यवस्था आदि की दृष्टि से भारतीय संविधान से जुड़ी रहीं। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व मध्य एशिया में “मिटानी” और “हिटाइट” नामक दो पड़ौसी राज्य थे। मिटानी का शासक “मलिउजाजा” था और हिटाइट में “शिविलुलिउमा” राज्य करता था। प्राचीन काल में जब दो राजाओं के मध्य सन्धि या किसी प्रस्ताव पर बातचीत होती थी तो अदालतों में जिस प्रकार भगवान की शपथ ली जाती है, उसी प्रकार देवताओं को साक्षी बनाया जाता था। इन दो राजाओं के मध्य हुई सन्धि का एक शिलालेख मिला है। उसमें जिन देवताओं को साक्षी दी गई है, उनके नाम इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य (अश्विनीकुमार) हैं। यह देवता केवल ऋग्वेद में ही प्रयुक्त हुए हैं और संसार के किसी भी धर्म में नहीं। इससे स्पष्ट पता चलता है कि यह दोनों ही संभाग वेदान्त सभ्यता से प्रभावित थे।
मिश्र के एक “एल अमारा” में एक बेबीलोनिया का शिलालेख है। उसमें प्रयुक्त हुए नाम आर्तमन्य, यशदत्त सुवर्ण, आर्जवीय आदि संस्कृतनिष्ठ शब्द भी वेदों के ही हैं। कश्मीर में मिले “दबिस्तान” नामक शिलालेख में बैक्ट्रिया के राजाओं की नामावली दी है, वह हिन्दुओं के नामों की तरह ही है। ‘हिस्ट्री आफ इण्डिया’ के लेखक डॉ.मिल ने भी स्वीकार किया है। बैक्ट्रिया में मिले पुरातत्व अवशेष यह बताते हैं कि वहाँ की सभ्यता भारतीय रही है। ‘हिस्टोरीकल हिस्ट्री आफ दी वर्ल्ड’ प्रथम खण्ड के पेज 89 में इजिप्ट निवासी पणिकों की शाखा है। ये लोग पान्त देश से आये। यह पान्त पहले पाण्डय् देश था और उनके पणि ही पणिक हैं। उन्होंने ही फिनीशिया बसाया। उपरोक्त के पेज 77 में स्वयं लेखक ने भी स्वीकार किया है कि इजिप्ट भारतीयों का ही प्रवासी देश रहा है। भले ही कालान्तर में उसने अपनी अलग संस्कृति बना ली हो।
पुराणों में वर्णित आन्ध्रालय ही आस्ट्रेलिया है। इसका प्रमाण है ‘अक्षय तूण अस्त्र’। एकलव्य ने इसी अस्त्र का प्रयोग एक बार किया था। इसकी विशेषता यह होती है कि यह दुश्मन को मारकर वापस आ जाता है। यह यन्त्र ‘बूमराँग‘ नाम से अभी भी आस्ट्रेलिया में पाया जाता है।