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जानते और समझते हुए भी अन्याय का विरोध करने की शक्ति जिसमें नष्ट हो गई वह जाति अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकती।
-शरतचन्द्र
अमेरिका के पुरातत्व संग्रहों में हाथी के चित्र पाये जाते हैं जबकि वहाँ हाथी मिलते ही नहीं। गणेश की मूर्तियाँ हैं, जबकि वहाँ गणेश को आज लोग जानते तक नहीं, इसके विपरीत महाभारत युद्ध और रामायण काल में अहिरावण, अलम्बुस आदि राजाओं का वर्णन मिलता है, जो पाताल वासी बताये गये हैं। यह अमेरिका ही था जो भारतवर्ष से ठीक नीचे की ओर ‘ग्लोब’ में है। कोलम्बस के पहुँचने से पहले पेरु और मैक्सिको में स्वस्तिक का चिन्ह प्रत्येक मंगल पर्व पर काढ़ा जाता था, जो बिलकुल भारतीयों की अनुकृति है। बलि पाताल का राजा था। दक्षिण अमेरिका में उसके नाम का स्मरण कराने वाला नगर बलिविया आज भी है, यह किसी समय राजधानी थी। अंग देश से पहुँचे हुए लोगों ने ही अमेरिका में ‘इंक’ जाति बनाई। दोनों के पुरातत्व संग्रह एक ही प्रकार के मिलते-जुलते पाये गये हैं।
इन्डोनेशिया के द्वीप जावा, सुमात्रा, लम्बोक, बालि आदि के नाम तो ज्यों के त्यों महाभारत में आये हैं। वहाँ के लोगों के नाम अभी भी सुकर्णों, भीमी, अर्जुनों आदि होते हैं, जो स्पष्ट यह बताते हैं कि उनके नामों की शैली भारतीय थी अर्थात् वे संस्कारों की दृष्टि से भारतीय संस्कृति के अंग ही थे। वहाँ के लोक-जीवन, साहित्य और छाया नाटकों में पुराण काल की संस्कृति के दर्शन आज भी किये जा सकते हैं। कम्बोडिया, थाईलैण्ड और रूस के अधिकाँश राज्यों के नाम और वहाँ की संस्कृति में अभी भी भारतीय संस्कृति से बहुत अधिक साम्य पाया जाता है। यह उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि सृष्टि में मानव का आदि पदार्पण भारतवर्ष में हुआ। उन्होंने ‘वेद’ रचकर वेदान्त सभ्यता या भारतीय संस्कृति का निरूपण किया। यही जाति इस संस्कृति को लिये हुए सारे विश्व में फैलती चली गई। पहले तो राष्ट्रसंघ स्थापित था इसलिये सभी लोगों को भारतीय संस्कृति के अनुरूप जीवन पद्धति, नीति, धर्म, दर्शन आदि को अपनाना ही पड़ता था। ये लोग अपना पितामह देश भारत को मानते थे। इसलिए इसे विदेश मानने का कोई कारण ही नहीं था। भारतीय संस्कृति को विश्व-संस्कृति मानकर ही वे लोग अपने जीवन में स्थान देते रहे।
धीरे-धीरे यहाँ के लोगों में भेदभाव, स्वार्थ-परायणता और ऊँच-नीच का भाव आता गया। उससे अथवा किन्हीं भौगोलिक व ऐतिहासिक कारणों से परिवर्तन होते गए और विश्व अनेक देश, अनेक संस्कृतियों के रूप में दिखाई देने लगा। विश्व की अशान्ति का आज का कारण भी यही है कि जाति, गुण, कर्म, स्वभाव, धर्म, दर्शन की एकता को भूलकर आज सारा संसार वर्ण भेद जाति और धर्म-भेद के मैदान में कूद आया है। उसी से परस्पर संघर्ष होता है। उस संघर्ष से तभी बचा जा सकता है, जब पुनः लोगों को पता चले कि हमारा मूल उद्गम भारतीय संस्कृति है। सारे संसार को एक सूत्र में बाँधने और सबका हित साधन की क्षमता भारतीय संस्कृति में है। वहीं अपने दूर-दूर तक जाकर बसे लोगों को मातृत्व और स्नेह देकर संसार को पुनः एक राष्ट्रसंघ, एक भाषा, एक ही मानव जाति के मनका में पिरो सकती है। यही सब कुछ आगे करना और होना है।