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Magazine - Year 1971 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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अहंकारों सिद्धि बाधकः

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First 16 18 Last
रस सिद्ध महर्षि मंकणा ने गति दी, साज बजे और सभा मण्डल में रस धारा प्रवाहित हो उठी। सम्राट, साम्राज्ञी तथा राष्ट्र के सम्भ्रान्त नागरिकों से भरे कला-कक्ष में वाद्य-यन्त्रों के साथ महर्षि के ताल और लय एक ऐसी सभा प्रस्तुत करने लगे मानो स्वर्ग से उतर कर आत्मानुभूति की रस गंगा ही धरती पर प्रवाहमान हो उठी हो।

मंगलाचरण, देवपूजन, आरती अभिषेक नृत्य-क्रमशः ताल-निबद्ध करते हुए महर्षि “शिवाडहं” सिद्धि की अनुभूति तक पहुँचने की एक-एक कला को बड़ी कुशलता के साथ निखारते चल रहे थे। दर्शक समाज ही आज महर्षि की स्वातमानुभूति की गंगा में बह जाने को तत्पर हुआ बैठा है।

साधना के प्रथम चरण-नृत्य-योग के प्रारम्भिक प्रयोग-बुझे हुये दीपक जल उठे, मरकत माणियों से जटित स्फटिक स्तम्भों पर खचित वाराँगनायें भी नृत्य करने लगी, सम्मोहित-मयूर और कस्तूरी मृग कांतर के स्वच्छन्द विचारणा त्याग त्याग कर नगर की ओर दौड़ पड़े जहाँ महर्षि का नृत्य-समारोह चल रहा था वहाँ जा जाकर भाव-विभोर हो उनके गति-निस्पंद का आनन्द, पीयूष पान करने लगे, प्रकृति के समस्त नियमों का उल्लंघन कर मेघ मालायें नगर में झुक-झुक जाने लगी, ऐसा लगता था सात स्वरों में सम्मोहित होकर सारी वसुधा ही नृत्य कर उठेगी-रस-सिद्ध महर्षि मंकणा की साधना के प्रताप की सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी।

ज्यों-ज्यों सिद्धियों का उद्भास मिलता महर्षि के नृत्य में नई गति उभरती चली जा रही थी। तभी एक देवमूर्ति सम्मुख उपस्थित हुई। उसने एक कुश-तृण आगे बढ़ाया महर्षि ने छाया का संकेत समझा और वह तृणा हाथ में लेकर एक-एक कर दोनों हाथों की दसों उँगलियों में उसे चुभोया दर्शक समाज स्तब्ध और आश्चर्य चकित देख रहा था कि जहाँ उँगली-उच्छेद से रक्त-स्रवित हो उठना चाहिए था वहाँ महर्षि की उँगलियों से क्रमशः केशर, केवड़ा, गुलाब, लौंग, मोगरे और खश आदि का सुवासित तेल निकल रहा है। ऐसा लगता था उन उँगलियों में गन्ध मादन पर्वत में प्रवाहित सुगन्ध-मलय, निर्भर स्त्रोत बनकर फूट पड़ा हों। महर्षि की जय जयकार हो उठी इस जय ध्वनि ने महर्षि की आँखों में मदिरा की सी मस्ती उड़ेल दी-अभिमान की मस्ती। उनके हृदय में एक भर जागृत हुआ-अब मेरे समान संसार में अन्य कोई कलाविद नहीं रहा। और इसी अभियान ने उनकी भाव सिद्धि पर पानी फेर दिया। नृत्य करते-करते संध्या हो चलने पर महर्षि समाधि-लय प्राप्त नहीं कर सकें।

अभिमान और सिद्धि, साधना की दो विपरीत स्थायें है। मूर्ति महर्षि के मन को झाँक रही थी। कुश तृणा अपने हाथ में लिया और उसका हलका प्रहर उँगलियों पर किया। यह क्या? महर्षि चौंके-उँगलियों से भस्म गिर रही है, उन्हें अपने इष्ट का ध्यान हो अभिमान का दर्प चूर-चूर हो गया। उन्हें याद आया कि नटराज ने अपनी एक ही कला से अनेक नृत्य-विधाओं सृजन किया है उनकी तुलना में मैं तो समुद्र की एक जैसा भी नहीं अभिमान गल गया। अब उन्होंने रुद्र उठाया आशुतोष की मंगल मूर्ति उनकी भावनाओं को छाने लगी त्वरित थिरकन के साथ डमरू की डिम-डिम का नाद सुनाई दिया और एक ही क्षण में महर्षि समाधि हो गये और उनकी समाधिवस्था का प्रभाव यह था कि सारा दर्शक आज उनके स्वरूप में भगवान् शिव के दर्शन कर रहा था। अभिमान की मूर्ति के हटते ही सिद्ध महर्षि ने अपना स्थान पा लिया।

First 16 18 Last


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