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Magazine - Year 1971 - Version 2

Media: TEXT
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सुख की साधना

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उत्पलवरर्गा, श्रावस्ती के कोषाध्यक्ष की अनुपम सुन्दरी कन्या शेडशवर्ष पर चुकी है। यौवन का निखार अपने आप ही आकर्षक होता है फिर उत्पलवरर्गा तो अनुपम काँति वाली अद्वितीय सौंदर्यवती भी थी। राग उसके अंग-प्रत्यंग से फूट रहा था। अधरों में गुलाब का परिमल, रतनारे नयन, सुन्दर ग्रीवा, कल-कंठ ऐसा लगता था उसके सौंदर्य के साथ स्वयं ब्रह्म ही व्यक्त हो उठा है।

यही कारण था कि अनेक श्रेष्ठी- सामन्तों तथा राजकुमारों की ओर से स्वयं ही विवाह के लिए प्रार्थनाएं आने लगी। शर्मा प्रकाश के लिए जलाई जाती है, किन्तु शुलभ उसे बुझाने लग जायें तो जलाने वाले का क्या दोष। सौंदर्य सत्य का राजदूत है पर यदि उसे वासना का माध्यम मान लिया जाये तो रचनाकार का क्या दोष ? कोषाध्यक्ष के समक्ष उत्पलवरर्गा का सौंदर्य आज समस्या बन गया था। उसका हाथ किसे तो दे किसे न दे इसका निर्णय करना भी कठिन हो रहा था।

इसी चिन्ता में डूबे हुए पिता को देखकर उत्पलवर्णा का स्वयं पिता के पास जाकर बोली-तात! आपसे एक बात पूछूं-? पिता ने दृष्टि उठाई और पुत्र के शीश पर हाथ फेरते हुए कहा-कहो क्या कहना चाहती है उत्पल!

उसी गम्भीरता से उत्पलवर्णा ने कहना प्रारम्भ किया तात! आपने नहीं सुना क्या गंगातीर वासी ने पहले विवाह किया। अपनी तृष्णायें शान्त करने के लिए उसने भार्या के जीवन तत्व को निचोड़ा फिर उसने एक अन्य स्त्री को रख लिया, उसके गर्भ से कन्या उत्पन्न हुई उसे भी उसने सहगामिनी बनाया-जिस काल में सामाजिक व्यवस्थायें और मर्यादायें इस तरह तिनके का ढेर हो जावें। नीति कहती है उस समय विचारशील लोगों को अपने लौकिक हितों का परित्याग कर देना चाहिए और व्यक्ति तथा समाज के जीवन में नया प्रकाश लाने का प्रयास करना चाहिए। आपकी चिन्ता एक योग्य बर तलाश करने की है और मेरे सौंदर्य के झूठे आकर्षण से बचने की। विवाह का प्रस्ताव लेकर आये किसी भी कुमार में मुझे आदर्श जीवन का स्थायित्व नहीं दिखता यह सब तो रूप के प्यासे कीट-पतंगे है इनसे दूर ही रहना अच्छा। आप आज्ञा दें तो मैं आजीवन अविवाहित रह जाऊँ और अपने पथ भ्रष्ट समाज को अपनी शक्ति व साधना द्वारा सीधे सच्चे मार्ग पर लाने का प्रयास करूं।

आर्य पिता ने अपनी कन्या से संस्कार व स्वाभिमान से दमकते मुख-मण्डल की ओर देखा उसमें पूर्ण निश्रिवत दृढ़ता झलक रही थी मारे स्नेह के उसे हृदय से लगाते हुए कहा-उत्पल! तुम धन्य हो। अपने सुख का ध्यान न देकर तुमने साधना व समाज सेवा को महत्व दिया तुम्हारा यह आदर्श युगों-युगों तक भारतीय नारी और उसके पुत्रों को अंतर्वर्ती जीवन की प्रेरणायें और प्रकाश देता रहेगा।

उत्पलवर्णा ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। भगवान् बुद्ध ने अपना पितृ तुल्य स्नेह, अपनी साधना की शक्ति, अपना ज्ञान देकर उसे आत्म- दर्शन की-स्थिति तक पहुँचाया। सिद्धावस्था प्राप्त उत्पलवर्णा ने धर्मोद्धार के कार्य में तथागत का हाथ बंटाया और कुँठा ग्रस्त भारतीय समाज को ऊँचा उठाने का महान् यज्ञ अर्जित किया।

जिस देश अथवा राष्ट्र में नारी-पूजा नहीं- उसका यथोचित सम्मान नहीं, वह देश या राष्ट्र कभी महान या उन्नत नहीं हो सकता। नारी रूपी शक्ति की अवमानना करने से ही, आज हमारा अधःपतन हुआ है, स्त्रियाँ माता की प्रतिमा है-शक्ति स्वरूपा है, जब तक उनका उद्धार न होगा, तब तक हमारे देश का उद्धार होना असम्भव है। देशोत्थान के लिए नारी उत्थान अनिवार्य है। -स्वामी विवेकानन्द

भक्त का मार्ग परमात्मा प्रकाशित करता है

आ-जानय द्रुहणों पार्थिवानि। दिव्यानि दीपयोउन्तरिक्षा॥ ऋग्वेद 6।22।8

करुणा -जय और अनुग्रह प्राप्ति समर्पण की सहजात क्रियायें है। भोला-भाला बालक यद्यपि साँसारिकता से नितान्त अनभिज्ञ होता है, किसी बच्चे का वन में अकेला छोड़ दिया जाये तो उसका जीवन तक संकट में पड़ सकता है पर वह अपनी माँ के प्रति पूर्ण समर्पित होने के कारण इस बात की कभी कल्पना भी नहीं करता। माँ भी बच्चे के विश्वास की रक्षा हर प्रकार से भूखी, प्यासी निरालस करती है, कभी आवश्यकता पड़ जाये तो वह सप्ताहों बिना निद्रा रह लेगी पर बच्चे के विश्वास को कभी धोखा नहीं देगी।

अपनी शक्तियों को तुच्छ मानकर शिष्य गुरु वन्दना करता है। शिक्षा, कला, उद्योग कोई भी क्षेत्र क्यों न हो मार्ग-दर्शक की आवश्यकता सभी को पड़ती है मार्ग-दर्शन प्राप्त सभी को करना पड़ता है पर गुरुजन अपनी समस्त विद्यायें और क्षमतायें उड़ेलते हैं केवल श्रद्धा और निष्ठा में सुदृढ़ और अपने आपको उनके प्रति समर्पित शिष्यों पर। समर्पण-सरलता मनमोहक गुरु है वे जिस किसी के प्रति उन्मुख होते हैं उसके अन्तःकरण में करुणा और वात्सल्य उभारे बिना नहीं रहते।

पंच तत्वों को समर्पित प्रकृति का हर करा सौंदर्य सुषमा से ओतप्रोत मिलेगा उसमें उनका असीम अनुग्रह ही वृक्षों में हरियाली रंग-बिरंगे फूलों, और सुन्दर सुगन्ध के रूप में फूटता है। निसर्ग सौंदर्य का अनन्त और अदृश्य भाण्डागार है पर वह हर किसी को नहीं मिलता यह विशेषतायें सिद्धियाँ और सामर्थ्य तो उन्हीं को मिलती हैं जो अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर पंच महाभूतों के आँचल में समर्पित कर देते हैं प्रकृति देवी को समर्पित जीवन शुद्ध, स्वस्थ, सौंदर्य शील और सुवासित हो उठता है। समर्पण की महिमा को जितना गाया जाये कम है।

अपराध किये लोग कई बार यह अनुभव करते हैं कि जान या अनजान में उनसे भूल हुई तो वह अपने को जान या अनजान में उनसे भूल हुई तो वह अपने को कानून के न्यायाधीश के हवाले कर देते हैं। न्यायाधीश यद्यपि विधान के अनुसार दण्ड देने के लिए विवश होता है, सजा न दे तो विधान नष्ट होता है अतएव सजा तो कुछ न कुछ भोगनी ही पड़ती है पर न्यायाधीश का अन्तः स्नेह अपराधी के पक्ष में हुये बिना रहता नहीं तब वह कुछ सजा भी कम कर देता है। कुछ उसकी दया अपराधी को शक्ति देती है तो शेष दण्ड भी सहनीय बन जाता है।

जघन्य अपराधी तक जब समर्पण के फलस्वरूप न्यायाधीश की दया के पात्र बन सकते हैं तो सारे विश्व की नियामक-दयासागर सत्ता भला अपने भक्त, के प्रति अनन्य वत्सल न बने ऐसा कैसे हो सकता है। लवाई गाय का बछड़ा अपनी माँ के लिए केवल टेर करता है और माँ उससे दुगुने वेग से रम्भाती भी है और आतुरता पूर्वक हाँफती हुई बच्चे को प्यार पय पान कराने के लिए भागती भी है। सामान्य पशु में यह भाव हो तो जो विशुद्ध भावों से ही बने भगवान् के अन्तःकरण से कितना वात्सल्य छलक सकता है इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती, हम जितने वेग से आत्मार्पण करते हैं भगवान् इससे हजार गुना अधिक शक्तिशाली प्रेम और अनुग्रह प्रदान करता है।

विश्वास-पात्र और संरक्षक संसार में बहुत है पर उन सब में कोई न कोई स्वार्थ हो भी सकता है किन्तु परमात्मा जो कि सृष्टि मात्र का पिता है, उससे सुदृढ़ संरक्षक और विश्वासपात्र दूसरा कोई हो नहीं सकता। जो अपने अन्तःकरण के द्वार खोलकर परमात्मा को अपने भीतर प्रवाहित होने देना चाहता है परमात्मा उसे अपनी समस्त शक्तियों और प्रतिभाओं से ओत प्रोत कर देता है। यही नहीं अपने भक्त के जीवन मंगल का समस्त उत्तरदायित्व भी पूरा करने का उसने संकल्प लिया हुआ है गीता में अपने इसी वचन को दोहराते हुए भगवान् कृष्णा ने कहा है-

“तेषाँ सतत् युक्तानाँ योग क्षेमं वहाम्यहम्”।

अर्थात्-हे अर्जुन! अनन्य भाव से समर्पित अपने भक्त की कुशल क्षेम का वहन मं स्वयं करता हूँ।

संसार बड़ा विविध और विराट् है उसमें कुछ ऐसी जटिलता उत्पन्न हो गई है कि कई बार तो हित और अनहित की पहचान भी नहीं हो पाती, पदार्थों के आकर्षण इन्द्रियों की वासनायें, अपनों के स्वार्थ औरों से संघर्ष सभी मिलकर सुख सुविधाओं का, प्रतिरोध करते हैं मनुष्य अपने आपको ऐसी परिस्थितियों में बड़ा अशान्त और असहाय अनुभव करता है कई बार तो परिस्थितियाँ इतनी विषम हो जाती है कि मन चिन्ताओं से क्षोभ और शोक संवेदना से पूरी तरह घिर जाता है ऐसे अवसरों पर मानवीय प्रयत्न काम नहीं देते तब अदृश्य सहयोग की हर किसी को अपेक्षा होने लगती है। ऐसा लगने लगता है बिना ईश्वरीय अनुग्रह के जीवन रथ आगे बढ़ नहीं पायेगा।

तब परमात्मा ही से प्रेरणा देता है और अपनी शक्तियों से उसके टूटे हुये जीवन में नय चेतना का संचार करता है, हारे, थके जीवन यात्री की गाड़ी फिर आगे की ओर बढ़ चलती है और मनुष्य अपने अशान्त, असहाय जीवन में भी परमशान्ति और शक्ति अनुभव करता हुआ आगे बढ़ चलता है। इसी सत्य को ऊपर दिये गये मन्त्र में पिरोते हुए मन्त्रदृष्टा लिखते है-परमेश्वर अपने भक्तों का मार्ग हमेशा प्रकाशित करता है और उनकी सब प्रकार से सहायता करता है।

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Type: TEXT
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