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Magazine - Year 1971 - Version 2

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भूल भटक कर भेंट हुई भगवान से

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2 फरवरी 1647 के नेशनल हेराल्ड में एक लेख छपा था-वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं (व्हाई साइंटिस्ट्स बिलीव इन गॉड)। विद्वान लेखक ने उसमें यह बताने का प्रयत्न किया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है यदि उनमें व्यवस्था और अनुशासन न होता तो इतना विराट ब्रह्मांड एक क्षण को भी टिक न सकता। एक किरण कि विस्फोट से ही अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और अब संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त ओर कुछ भी न होता।

नियामत विधान किसी मस्तिष्कीय सत्ता का अस्तित्व में हो प्रमाणित करते हैं। हमारे जीवन का आधार सूर्य है। 1 करोड़ तीस लाख मील दूरी पर बसा सूर्य अपनी प्रकाश किरणें भेजता है वह प्रकाश आठ मिनट में पृथ्वी पर आ जाता है जिससे यहाँ का जीवन चलता है। दिनभर में यहाँ के वातावरण में ऐसी सुविधायें एकत्र हो जाती है कि रात आराम से कट जाती है तब तक सूर्य अपनी सेवा के लिए फिर आ जाता है। सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में एक बिन्दु के समान है फिर पृथ्वी में रूस के साइबेरिया प्रान्त के एक गड़रिये के घर में रहने वाली चींटी का उसकी तुलना में क्या अस्तित्व हो सकता है पर वह भी जिन्दा रहती है इतनी बढ़िया व्यवस्था संसार के किस मनुष्य के पास है ?

इस सूर्य के अनन्त अन्तरिक्ष का एक नन्हा-सा तारा, इससे तो 15 हजार गुना बड़ा रीजल तारा ही हैं उससे भी बड़ा “अन्टेयर्स” नामक लाल सूर्य जो अपने भीतर 3 करोड़ साठ लाख गोलों को बैठाकर भोजन दे सकता है। जबकि उससे भी बड़े तारे ब्रह्मांड में है। जून 1967 के ‘साइंस टुडे’ 8 अंक में “ग्राह्म बेरी” ने लिखा है कि पृथ्वी से छोटे गृह भी इस संसार में है और 5 खरब मील की परिधि वाले भीमकाय नक्षत्र भी हैं। यह बड़े तारे तो 3 लाख वर्ष ही जीवित रहते हैं जबकि ऐसे छोटे नक्षत्र भी है मृत्यु जिनका 3 पद्य वर्ष तक भी कुछ बिगाड़ न सकेगी। इतना विराट् ब्रह्मांड भी गणित के नियम पर कितनी सुन्दरता के साथ चल रहा है उसे देखकर यही प्रतीत होता है कि जिस तरह सूर्य अपने गुरुत्वाकर्षण और अपनी प्राण शक्ति से सौर मण्डल को नियम पूर्वक चला रहा है उसी प्रकार अनन्त ब्रह्मांड का भी कोई नायक होना अवश्य चाहिए जो सारे विश्व को एक क्रम व्यवस्था में चला रहा है।

सूर्य अपने केन्द्र पर 1 करोड़ साठ लाख डिग्री गर्म है यदि पृथ्वी के ऊपर “आयनो स्फियर” की पट्टियाँ न चढ़ाई गई होती तो पृथ्वी न जाने कब जल गई होती। उल्कापात से रक्षा, विकिरण से रक्षा भी यह अयन मंडल करता है। फिर सूरज अपने स्थान से थोड़ा सा ही नीचे आ जाये तो दानों ध्रुवों की बर्फ पिघल जाये और सारी पृथ्वी एक हवा में उड़ती हुई झील बन जायें। जिसमें जलचर जन्तु भले ही रह जायें थल और वायुचरों का तो पता भी नहीं चले। यह भी सम्भव है कि वह पानी भी खोल उठें और खोलकर खुद तो भाप बनकर उड़ जायें पर पृथ्वी जलकर राख हो जाये। यदि सूर्य थोड़ा सा ऊपर चला जाये तो ऐसी भयंकर शीत लहर पृथ्वी पर आ जायें कि यहाँ की प्रत्येक वस्तु जमकर बर्फ बन जायें। ऐसी कोई परिस्थिति एकाएक बन जाती यदि सौर मंडल एक क्रम विधान पर न होता और यह बताते है कि संसार ऊटपटाँग नहीं वरन् एक असामान्य बुद्धि द्वारा संचालित हो रहा है।

इसी प्रकार पृथ्वी प्रति घण्टे 1 मील की गति से घूमती है कहीं यह गति 5å मील प्रति घण्टे की हो जाती तो रात और दिन 240-240 घण्टे के होते। 120 घण्टे में आकाश में चढ़कर आये सूर्य की प्रचण्ड गर्मी और आधी रात की प्रचण्ड शीत पृथ्वी में छोड़ पद-चिन्ह अपने झण्डे छोड़ जाते और कहते कि पृथ्वी में छोड़ आये ये उपकरण 1 लाख वर्ष तक अमिट बने रहेंगे। चन्द्रमा भी इसी प्रकार थोड़ा नीचा हो जाता तो समुद्री ज्वार भाटे हिन्द महासागर से चलते और गौरीशंकर शिखर तक की प्रत्येक वस्तु को समेट ले जाकर समुद्री खजाने में जमा कर देते।

सूर्य चन्द्रमा की बातें छोड़ दीजिये हम परमाणुओं के जिस तालाब में जलचरों की तरह जीते और साँस लेते हैं उसके एक परमाणु में ही 27 लाख किलो कैलोरी ताप है यदि इस विद्युत शक्ति को परमाणु की प्रकृति ने शोषित और प्रसुप्त करके न रखा होता तो जीवन का अस्तित्व एक क्षण भी टिकना संभव न रहा होता। इन परमाणुओं की गति का तो कहना ही क्या। परमाणु नामक के समीप वाला इलेक्ट्रान 135ååå किलो मीटर प्रति सेकेंड की प्रचण्ड गति से चलता है यदि प्रकृति में यह चार्ज क्रियाशील रहा होता तो हम कुल 16 सेकेंड में पृथ्वी से उड़कर सूर्य तक जा पहुँचे होते। ऐसी विद्युत चुम्बकीय आँधी चलती जो समस्त ब्रह्मांड को झकझोर कर सेकेंडों में पीस देती।

प्रकट पदार्थों और जीवों में ही विलक्षण वैषम्य है। एक बार आस्ट्रेलिया का एक जीवनशास्त्री भारतवर्ष से नागफनी का पौधा ले गया और उसने सुरक्षा के लिये खेतों की मेड़ों पर लगा दिया। नागफनी बढ़ने लगी और इस तरह बढ़ी कि हजारों एकड़ जमीन इन्हीं से पट गई तब एक छोटा-सा कीड़ा ले जाया गया जिसने कुछ ही दिनों में नागफनी को खा-पीकर बराबर कर दिया। पोलियो खतरनाक बीमारी है। पिन की एक नोक पर पोलियो के विषाणु (वायरस) करोड़ों की संख्या में आ सकते हैं ऐसे सूक्ष्म विषाणु हजारों की संख्या में मुक्त भ्रमण कर रहें हैं फिर भी जगत में जीवन क्रम सानन्द चल रहा है और यह बता रहा है कि संसार में जन्म देने वाला बड़ा बुद्धिमान है वह निर्माण और विनाश के झूले में झूलते संसार के पालन और पोषण का उत्तरदायित्व बड़ी ही सूझ-बूझ से निभाता चला जा रहा है।

संसार में कोई न कोई विधायक सत्ता है अवश्य यदि वह न होती तो संसार की भीषण विपरीत परिस्थितियाँ यहाँ कुछ भी रहने न देतीं। या तो सर्वत्र दहकती हुई आग होती या चमकता हुआ सूरज और नाचते हुए इलेक्ट्रान नियम व्यवस्थायें ईश्वर के विधान है वैज्ञानिक भूल भटक कर उसी भगवान् तक पहुँचें तो आश्चर्य नहीं, आज की प्रगति उसी दिशा में है भले ही वह ध्वंस और संघर्ष प्रधान हों, कदाचित भाव को, भावनाओं के द्वारा जाना जाता तो मनुष्य की सामर्थ्य का कुछ ठिकाना न होता क्योंकि वह भी तो उसी महत् संकल्प और परा-तत्व का अंश है।

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