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Magazine - Year 1971 - Version 2

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श्री आद्य शंकराचार्य के कुण्डलिनी अनुभव

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मृत्यु के किनारे को छूकर लौटने वाले अनेकों व्यक्तियों की घटनाओं पर वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है।

1970 में अमेरिका में इसी विषय पर अध्ययन करने के लिए एक संस्था बनाई गई-”सांइटिफिक स्टडी ऑफ नियर डेथ फिनोमेना।” डॉ. रेमण्ड ए. मूडी नामक विख्यात मनश्चिकित्सक ने इसका नाम एन. डी. ई. (नियर डेथ एक्पीरियेन्स) रखा। प्रतिवर्ष 100 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया। अब तक किए गये सैकड़ों परीक्षणों के उपरान्त उन्होंने पाया कि कुछ समानताएँ सब में होती हैं। जो भी व्यक्ति मृत्यु के निकट पहुँच गये, उन्होंने सबसे पहले शरीर को छोड़ने के बाद दूर से उसे देखा। अनेक मृतक संबंधी भी मिलते हैं। घने अन्धकार भरे मार्ग से प्रकाश की ओर गमन का अनुभव होता है। प्रकाश की ओर जाते ही शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है।

इन विभिन्न तथ्यों का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए 250 वैज्ञानिकों, मनोविशेषज्ञों, मनश्चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों का एक संगठन बना।

ऐसे 100 व्यक्ति जिन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था और जो पुनः जीवित हो गये, उनसे साक्षात्कार कर उनके अनुभव इकट्ठे किये गये। 1975 में रेमण्ड मूडी ने इसी संकल्प को एक पुस्तक “लाइफ आफ्टर डेथ” का रूप दिया। मृत्यु के निकट पहुँचने वाले व्यक्तियों के कुछ अनुभव लगभग एक से पाए गये। जैसे-मृत्यु के समय अत्यधिक पीड़ा होना और डॉक्टर द्वारा मृत घोषित कर देना। अन्धकार पूर्ण मार्ग से गुजरकर प्रकाशित स्थान में पहुँचना।

वह शरीर से अपने आप को पृथक अनुभव करता है। दृष्टा की तरह अपने शरीर को देखता है। शरीर से तुरन्त मोह दूर नहीं होता, कुछ समय उसी के इर्द-गिर्द घूमता है। दीवार खिड़की आदि उसके लिए बाधक नहीं रहते अब वह और अधिक शक्ति महसूस करता है। डॉक्टर व संबंधी गणों को शरीर के इर्द-गिर्द खड़े देखता, उनके प्रत्येक प्रयास को देखता है। मृत मित्र संबंधियों की आत्माएँ भी मिलती है। एक दिव्य प्रकाश उसके सामने आता है। यह प्रकाश उसे संकेत देता है कि जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को याद करो। जीवन की सुखद और दुःखद घटनाओं के साथ वैसी ही पार्श्व भूमि वहाँ तैयार होती जाती है। वैसी ही ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि एक प्रदेश की सीमा छोड़कर दूसरे प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। इसके तुरन्त बाद उसे लगता है कि अब अपने शरीर में पुनः लौटना पड़ेगा। उसे ऐसा बताया जाता है कि उसकी मृत्यु का समय नहीं हुआ। लेकिन वह नये सुखद अनुभव के कारण पुराने जीवन में नहीं जाना चाहता। उसकी अनिच्छा होने पर भी उसे पुराने शरीर से जोड़ दिया जाता है।”

डॉ. एलिजाबेथ कबलररोस ने भी रेमण्ड की तरह ही कुछ प्रयोग किये हैं। “एमरी यूनीवर्सिटी ऑफ अटलाँटा” के कार्डियोलोजी के सहायक प्रोफेसर डॉ. माइकेल सेबोम का कथन है - रेमण्ड मूडी की पुस्तक में वर्णित घटनाओं पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। लेकिन नियर डेथ एक्पीरियेन्स पर शोध करने में मेरी भी रुचि जागी।” उनकी सहायिका सारा क्रुजिगर के साथ मिलकर उन्होंने 120 नियर डेथ एकसपीरेन्स के उदाहरणों पर अध्ययन किया। उनमें से 40 प्रतिशत व्यक्तियों ने डॉ. मूडी की रिपोर्ट के अनुसार ही अपने अनुभव बताये। इसी प्रकार ‘यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टीकट’ के प्रोफेसर डॉ. केनेथरिंग ने 102 मृत्यु के मुख से निकल आये व्यक्तियों से भेंट की। डॉ. के अनुरूप ही 50 प्रतिशत व्यक्तियों ने अपने अनुभव बताये।

‘सेन्टल्युक हास्पिटल’ के हृदय विशेषज्ञ डॉ. फ्रेड शूनर ने ऐसे ही 2300 व्यक्तियों की जाँच की। उनमें 60 प्रतिशत लोगों के अनुभव मूडी के बताये अनुसार पाये गये। इस प्रकार सम्पूर्ण अमेरिका में इन शोध निष्कर्षों के प्रति कौतूहल जागृत हुआ है।

मनोवैज्ञानिकोँ के अनुसार मनुष्य की इच्छा, आकाँक्षा, स्वर्ग की सुखद कल्पना नर्क के प्रति भय भावना इत्यादि के अनुसार ही मनुष्य को ये अनुभव होते हैं। वैसे इनमें वास्तविकता कुछ नहीं हैं। डा. रसेल नोइस ने मनोविज्ञान की नवीनतम शाखा में ‘डिपर्सनोलाइजेशन’ की परिकल्पना बतायी। इस परिकल्पना के अनुसार मन दुःखदायी अनुभवों से बचने के लिए ‘इगोडिफेंसिव मेकेनिज्म’ के माध्यम से सुख की कल्पना करता है।

डा. कार्लिंस ओसिस और इरलेण्डर हाल्डसन इन दोनों मनोवैज्ञानिकों ने मिलकर भारत और अमेरिका के उदाहरणों का तुलनात्मक अध्ययन किया। परीक्षणों के उपरान्त बताया कि दो भिन्न देशों की धार्मिक मान्यताएँ भिन्न होने के बावजूद भी दोनों स्थानों के प्रमाणों में बहुत कुछ एकता है।

कनेथरिंग जिन्होंने ‘लाइफ ऐट डेथ’ तथा ‘ए सांइटिफिक इनवेस्टीगेशन ऑफ नियर डेथ एक्पीरियेन्स’ नामक पुस्तकों में उल्लेख किया है - “यह मैं अवश्य स्वीकार करता हूँ कि शारीरिक मृत्यु के बाद भी हम ‘कान्शस एक्जिस्टेन्स’ जारी रख सकते हैं। यह बात मैं अपने निजी अनुभव एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार बता सकता हूँ कि मृत्यु के निकट जाने से हम उच्चतर अस्तित्व से परिचित होते हैं। जिस हम मृत्यु कहते हैं उसके बाद हम उस उच्चतर अस्तित्व का यथेष्ट उपभोग कर सकते हैं।”

प्राकृतिक मृत्यु एक बहुत ही मन्द प्रक्रिया है। यह क्रमशः आगे बढ़ती है। पहले जीव-कोष धीरे-धीरे मरने लगते हैं। फिर विभिन्न ऊतक (टिशूज) संवेदनाहीन होते हैं। उसके बाद शरीर के विभिन्न अवयव-हृदय, फेफड़े आदि निष्क्रिय होते हैं और अन्त में मस्तिष्कीय क्षमता नष्ट होती तथा शरीर मृत हो जाता है।

शरीर को पर्याप्त मात्रा में प्राणवायु न मिलने पर जीव-कोष नष्ट होते हैं। विभिन्न जीव-कोषों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क के जीव-कोष सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। प्राण वायु कम पड़ने पर वे सर्वप्रथम नष्ट होते हैं जबकि रीढ़ की हड्डी के इतनी जल्दी नहीं। जीवकोष प्रायः या तो फूल जाते हैं और अत्यधिक फूलने से फट जाते हैं या इतने सिकुड़ जाते हैं कि पूर्व स्थिति में नहीं आ पाते। शरीर के कुछ अवयव नष्ट हो जाने पर भी वह जीवित रहता है। शरीर को मृत तब घोषित किया जाता है जब हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। डॉक्टरों के अनुसार धड़कन बन्द होना, श्वास बन्द होना आँखों में स्थिरता, शरीर का तापमान गिरना आदि लक्षण मृत्यु के हैं। इन लक्षणों के बाद 10 मिनट से लेकर 2 घण्टे के अन्दर अस्थि पंजर के सभी स्नायु कड़े हो जाते हैं। रक्त जम जाने के कारण शरीर का रंग नीला पड़ने लगता है। इसके बाद के 24 घण्टों में शरीर के ऊतकों को बैक्टीरिया विघटित करने लगते हैं। इस प्रक्रिया को ‘सोमेटिक डेथ’ कहते हैं जब शरीर का प्रत्येक कोष मर जाता है।

मरणोत्तर जीवन के संबंध में प्रकाश डालने से पूर्व मरण और जीवन के दोनों तथ्यों का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। शरीर की मृत्यु के कुछ लक्षण निश्चित हैं। उनके माध्यम से यह जाना जा सकता है कि कोई व्यक्ति कायिक दृष्टि से मर गया। इस संबंध में शरीर शास्त्रियों के कुछ निर्धारण हैं। तदनुसार अब देखना यह है कि क्या शारीरिक मृत्यु मानवी चेतना का भी अन्त कर देती है ? इस संबंध में कुछ विचारणीय तथ्यों पर नये सिरे से विचार करना होगा। प्रकृति की रहस्यमय संरचना में पदार्थ तो कलेवर भर है। उसका प्राण ‘ऊर्जा’ के रूप में पाया जाता है और कलेवर बदल जाने पर भी वह किसी अन्य रूप में बना रहता है। जिस प्रकार अध्यात्मवादी आत्मा को अमर मानते हैं उसी प्रकार विज्ञान ने पदार्थ को भी अमर माना है और उसके स्वरूप में रूपांतरण होते रहने की बात को उसी प्रकार स्वीकार किया है जैसे कि शरीर के बदलते रहने और आत्मा के अक्षुण्ण बने रहने की बात अध्यात्मवादी कहा करते हैं।

क्वांटम, चुम्बकत्व, विद्युत क्षेत्र, सापेक्षित जैसे सिद्धान्तों पर गहरी दृष्टि डालने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि पदार्थ का मूलरूप तरंग के रूप में है और वह एक या दूसरे माध्यम से अपना अस्तित्व बनाये ही रहता है। विश्व ब्रह्माण्ड में असंख्य स्तर की तरंगें संव्याप्त है। पर उनमें से नापने पकड़ने में थोड़ी सी ही आई है। यंत्रों के आविष्कार अभी इतने ही हुए हैं जो सामान्य स्तर की तरंगों के अस्तित्व की जानकारी दे सकें। इनसे सूक्ष्म यन्त्र जब भी बन सकेंगे तभी उन रहस्यमय पदार्थ तरंगों की जानकारी मिल सकेगी जो अभी संभावना क्षेत्र में होने पर भी अपनी सत्ता का आभास देने लगी हैं।

मनुष्य शरीर भी पदार्थ का समुच्चय है। उसका मूल स्वरूप भी ऊर्जामय है। शरीर के इर्द-गिर्द फैला रहने वाला तेजोवलय तथा विचार तरंगों के रूप में आकाश को आच्छादित किये रहने वाला चेतन प्रवाह अपने-अपने स्तर की ऊर्जा का परिचय देते हैं। चूँकि पदार्थ कभी मरता नहीं। इसलिए यह मनुष्य की आत्मा न सही, शरीर या पदार्थ भर माना जाय तो भी यह कहा जा सकता है कि मरण के उपरान्त भी उसकी वह ऊर्जा बनी रहती हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘प्राण’ कहा जाता है।

ईश्वर में फैला रहने वाला, ऊर्जा तरंगों से बना मनुष्य शरीर मरण के उपरान्त भी अपना अस्तित्व बनाये रहता है। भले ही आज के अविकसित यन्त्र उसे देखने पकड़ने में समर्थ न हो सकें। जब अस्तित्व विद्यमान ही रहा तो उसके परिचय प्रमाण या प्रकटीकरण के जो स्वरूप बनते रहते हैं सिद्धान्ततः उनकी संभावना स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

शरीर सत्ता पुनर्जन्म के रूप में भी अपनी पिछली क्षमताओं तथा आदतों का परिचय तो देती ही रहती है। मरण और जन्म के मध्य में यदि जीव सत्ता अपने अस्तित्व का परिचय प्रेत-पितरों के रूप में देती हो, तो उसे अमान्य नहीं ठहराया जाना चाहिए। विकसित विज्ञान अगले दिनों उस अवधि में प्राणी की स्थिति का भी पता लगा लेगा जो अभी अविज्ञात और रहस्यमय बनी हुई है। मरण से पूर्व और जन्म के उपरान्त जब जीवन शृंखला के अविच्छिन्न संबंधों का कई आधारों पर प्रमाण परिचय मिलता है तो कोई कारण नहीं कि कुछ समय की डुबकी वाली स्थिति का विवरण जाना न जा सकें। विज्ञान क्षेत्र को भी कुछ समय उपरान्त उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचना पड़ेगा जिस पर कि आत्म-विज्ञान बहुत समय पहले पहुँचा और मरणोत्तर जीवन को सुनिश्चित बताने में समर्थ रहा है।

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