Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वास्थ्य सन्तुलन बनाने बिगाड़ने वाले रहस्यमय स्रोत
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आहार को सुपाच्य बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका जीव-कोष के एक छोटे से भाग की होती है। उसे “माइटोकाण्ड्रिया” कहते हैं। जीव कोष के इस अत्यन्त छोटे हिस्से की जाँच इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से की जा सकती हैं। प्रत्येक जीवकोष में वे अनेकों होते हैं। हाई पावर माइक्रोस्कोप की सहायता से देखने में वे गोल या लम्बे आकार के दिखाई देते हैं। इनका आकार स्थिर नहीं रहता, बदलता रहता है।
नवीनतम शोध के अनुसार जीवकोष को शक्ति का बड़ा भाग माइटोकाण्ड्रिया से प्राप्त होता है। शरीर के सभी जीवकोष में यह घटक होता है, केवल रक्त कणों में नहीं, अतः उन्हें अलग से आक्सीजन की आवश्यकता पड़ती है।
माइटोकाण्ड्रिया का जीव विज्ञानियों के लिए इतना अधिक महत्व है कि एक विज्ञान की अलग प्रशाखा बनायी गई जिसको ‘सेल-बायोलॉजी’ या ‘साइटोलाजी’ के नाम से जाना जाता है। माइटोकाण्ड्रिया कई प्रकार के रसायन बनाता है जिसके अध्ययन के लिए रसायन विज्ञान की एक नई शाखा बनी है जिसे ‘साइटोकैमिस्ट्री’ कहते हैं। शिकागो यूनीवर्सिटी के डा. सिलविया एच. बेन्स ली एवं नार्मण्ड एल. हॉर और ‘राकफेलर इन्स्टीट्यूट फॉर मेडिकल रिसर्च’ के डा. अलबर्ट क्लाड ने विभिन्न प्राणियों के जीवकोषों से ‘ माइटोकाण्ड्रिया’ को अलग कर उनका गहन अध्ययन किया है।
आहार के कणों को विभिन्न घटकों में विभाजित करने का कार्य यही घटक करता है और उसे सुपाच्य बनाता है। इतना ही नहीं, माइटोकाण्ड्रिया की रासायनिक प्रक्रिया से पर्याप्त ऊर्जा शक्ति भी उत्पन्न होती है। संग्रहित ऊर्जा का रासायनिक स्वरूप ए.टी.पी. (एडीनोसिन ट्राइफाँस्फेट) है। शरीर में जहाँ-जहाँ शक्ति की आवश्यकता होती है, वहाँ अधिक मात्रा में माइटोकाण्ड्रिया पाये जाते हैं। ‘माइटोकाण्ड्रिया’ जीवकोष का एक घटक तो अवश्य है, पर साथ ही आश्चर्यजनक बात यह है कि वह अपने अधिष्ठाता पर नियन्त्रण भी करता है।
वण्डर बिल्ट यूनीवर्सिटी के रसायन शास्त्री अर्स जूथर को सन् 79 में जीवकोषों के अन्तराल में पाये जाने वाले विशेष रासायनिक पदार्थों की खोज पर नोबेल पुरस्कार मिला था उनके लम्बे अन्वेषणों और निष्कर्षों ने यह सिद्ध किया है कि रोगों के मूल कारण उतने उथले नहीं है जितने कि अनाड़ी चिकित्सक समझते हैं। मौसम, आहार, चोट-फेट, एलर्जी जैसी दैनिक उथल-पुथल से तो शरीर संरचना स्वयं ही निपटती रहती है। उनका कुछ प्रभाव होती भी है तो उसे थोड़ी लड़-झगड़ के उपरान्त निपटाने या तालमेल बिठा लेने में सफल हो जाती है। इन्हीं उथले कारणों को दुर्बलता या रुग्णता का कारण मान बैठना भूल है।
जीव कोषों के गहन अन्तराल को निरखने-परखने वाले मूर्धन्य शरीर शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि सभी महत्वपूर्ण और कष्ट साध्य रोगों की जड़ें जीव कोषों के अन्तराल में सन्निहित रहती है। यदि उन गहन परतों में कोई गड़बड़ उठ खड़ी होती है तो उसका प्रभाव शरीर को सुनियोजित रखने वाली अनेक क्रिया-प्रक्रियाओं पर पड़ता है। फलतः व्यतिक्रम जहाँ भी उभरता है, वहीं चित्र-विचित्र नाम रूप के रोग उठ खड़े होते हैं।
जिस प्रकार परमाणु का मध्यवर्ती नाभिक उसकी सामर्थ्य का आधारभूत केन्द्र बिन्दु है उसी प्रकार जीव कोष के कलेवर में सन्निहित अनेकानेक रसायनों एवं हलचलों का सूत्र-संचालक उस भाग को कह सकते हैं जिसे ‘माइटोकाण्ड्रिया’ नाम दिया गया है। इसकी कार्य प्रणाली को केमिकल सिगनल कहते हैं। चिकित्सा शास्त्र में इसी को ‘मीडिएटर’ नाम दिया जाता है।
हारमोनों की विलक्षण शक्ति से सभी परिचित है। उनकी न्यूनाधिकता, स्वस्थता एवं विकृति की ऐसी कितनी आश्चर्यजनक परिणति होती है जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाता पड़ता है। अब सोचा यह जाने लगा है कि कायिक और मानसिक क्षेत्रों की सन्तुलित एवं उभरी पिछड़ी स्थिति के लिए विभिन्न हारमोन ही जिम्मेदार होते हैं। उनकी रासायनिक प्रतिक्रिया किस प्रकार होती है इस संबंध में लम्बे समय से पर्दा पड़ा चला आ रहा था। यह समझा नहीं जा रहा था कि किस प्रकार हारमोन शरीर संस्थान को इतना प्रभावित करते हैं जितना कि आहार, व्यायाम, चिकित्सा आदि के समस्त उपचार मिलकर भी नहीं कर पाते। हारमोनों में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थ कुछ भिन्न किस्म के तो होते हैं, पर उतने भर से किस प्रकार इतनी विलक्षणताएँ उत्पन्न हो सकती हैं, यह समझने में भारी कठिनाई हो रही थी।
व्यक्ति का असाधारण रूप से लम्बा या ठिगना, पतला या मोटा, कामासक्त या नपुँसक होना हारमोनों की न्यूनाधिकता से होता है। नर में नारी की और नारी में नर की प्रवृत्ति उभरने का कारण भी हारमोन ही होते हैं। ऐसी-ऐसी अगणित विचित्रताएँ है जो हारमोन क्षेत्र में तनिक भी असाधारणता उत्पन्न होने पर कार्य संरचना से लेकर मानसिक स्तर तक के स्वरूप में विस्मयजनक हेर-फेर करते रहते हैं। इतना विदित होते हुए भी अभी तक यह नहीं समझा जा रहा था कि राई-रत्ती जितनी मात्रा के स्राव यह जादुई परिणति किस माध्यम से किस प्रकार प्रस्तुत करते रहते हैं ?
नवीनतम शोधों के आधार पर हारमोनों की सूक्ष्मता एक रासायनिक विद्युत प्रवाह के रूप में जीव कोष के अन्तराल का स्पर्श करती है। पारस्परिक सहयोग से विचित्र परिणति उत्पन्न करती है। यह प्रायः उसी स्तर की होती है जैसी कि शुक्राणु और डिम्ब के अत्यल्प छोटे घटकों के मिलन से भ्रूण कलल का उत्पन्न होना। सामान्य व्यवहार बन जाने के कारण उत्पन्न होना। सामान्य व्यवहार बन जाने के कारण यह प्रतिक्रिया कुछ आश्चर्यजनक नहीं लगती, पर नये सिरे से विचार करने पर दो कोशिकाओं की निकटता का एक अभिनव व्यक्तित्व का ढाँचा बन जाना सचमुच ही जादू चमत्कार जैसा अद्भुत है। ठीक इसी प्रकार हारमोनों की रासायनिक विद्युत विभिन्न जीवकोषों के अन्तराल में प्रवेश करके किस प्रकार स्वास्थ्य सन्तुलन को बनाती बिगाड़ती है इस प्रक्रिया को भी कम आश्चर्यजनक नहीं माना जाना चाहिए।
रोगों के निदान एवं उपचार में आमतौर से मोटा-छोटा अन्वेषण किया जाता है। वैद्य, हकीम नाड़ी, जीभ, नाखून, आँखें आदि देखकर रोग का नाम और कारण ढूंढ़ते हैं। डॉक्टर पैथालॉजी के अनुरूप मल-मूत्र, धड़कन, तापमान, रक्त आदि की जाँच-पड़ताल तथा कारणों की पूछताछ करते हैं। होम्योपैथ लक्षणों की भिन्नता देखते हुए शरीर की विषाक्तता को जानते और उस कमीवेशी को ‘विषस्य विषमौषधम’ सिद्धान्त के अनुरूप सन्तुलित करते हैं। बायोकैमी में लवणों को न्यूनाधिकता को रुग्णता का कारण माना जाता है। और उस क्षति-पूर्ति से उपचार की बात सोची जाती है। यह सभी पद्धतियाँ चिर पुरातन हैं। उनके सहारे आयेदिन अनेकानेक रोगी एक को छोड़ दूसरे चिकित्सक के दरवाजे भटकते रहते हैं। अन्धे के हाथ बटेर पड़ने की बात दूसरी है, किन्तु यथार्थता इतनी ही है कि अभी तक एक भी रोग का कारगर इलाज किसी भी चिकित्सा पद्धति के हाथ नहीं लगा है। सभी अँधेरे में ढेला फेंकते और संयोगवश किसी को कुछ लाभ मिल सके तो उसी का श्रेय झपटते हुए मूँछों पर ताव देते हैं।
चिकित्सा क्षेत्र का यह भटकाव क्या भविष्य में भी ऐसा ही बना रहेगा ? क्या यह अनिश्चितता इसी प्रकार चलती रहेगी ? इसकी निराशाजनक सम्भावनाओं में आशा की एक किरण फूटती दिखाई पड़ती है वह है जीवकोष के नाभिक में पाई जाने वाली असीम क्षमता और उसमें होने वाले तनिक से हेरफेर से कायिक परिस्थितियों में हो सकने वाले परिवर्तनों की सम्भावना। कठिन और जटिल रोगों का कारण जीवकोष के इसी अन्तराल में खोजा जा सकता है और वहाँ सुधार परिवर्तन करने के लिए हारमोन स्रावों का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।
आशा की इस किरण के बावजूद भी यह प्रश्न बना ही रहता है कि हारमोन क्षेत्र के किस घटक को किस प्रकार इस स्तर की भूमिका निभाने के लिए कहा जाय, जिससे वे अमुक क्षेत्र के जीवकोषों के अन्तराल में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली भूमिका निभा सकें।
अभी इस क्षेत्र में चिकित्सा शास्त्री मौन हैं। वे कारण को समझ लेने पर अगले दिनों उसमें सुधार कर सकने का रास्ता निकालने की आशा लगा रहे हैं। धरती से रेडियो सिगनल भेज कर जब अंतरिक्षीय यानों पर नियन्त्रण किया जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि जीवकोषों के अन्तराल को परमाणु नाभिक की तरह वशवर्ती न बनाया जा सके। भौतिक उपाय उपचार भी इस प्रयोजन के लिए कारगर हो सकते हैं। अध्यात्म विज्ञान तो ऐसे प्रयोजनों की पूर्ति में अपनी विशिष्टता चिरकाल से सिद्ध करता रहा है अब जबकि अध्यात्म विज्ञान का पुनर्जीवन हो रहा है तो कोई कारण नहीं कि हारमोन एवं जीवकोष के मध्य में चलने वाले सूक्ष्म आदान प्रदानों को अभीष्ट उद्देश्य के लिए प्रयुक्त न किया जा सकें।
कारनेल यूनीवर्सिटी मेडिकल कालेज के मूर्धन्य डॉक्टर जूलियन मैकगिलन ने लम्बी शोधों के उपरान्त यह सिद्ध किया है कि किस प्रकार जीव कोषों में विकृति आने पर अनेकानेक रोग उपजते और बढ़ते हैं। विषाणुओं का आक्रमण, आहार बिहार का व्यतिक्रम आघात प्रतिघात जैसे कारण ही अब तक रोगों के कारण माने जाते रहे है। इनमें से एक के भी न होने पर रोग उपज पड़ने में जो असमंजस होता था उसका समाधान उत्पन्न विक्षेप बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के भयानक रोगों को जन्म दे सकते हैं।
इतना सिद्ध होने पर मात्र आधी मंजिल पार हुई है। आधी अभी भी शेष है। कारण ढूँढ़ लेना एक बात है और उसका उपचार ढूँढ़ना दूसरी। विशेषतया तब, जब कि जीवकोष के बहिरंग की जाँच पड़ताल में उलझा हुआ चिकित्सा विज्ञान उसके अन्तराल में प्रवेश पाने और ‘माइटोकाण्ड्रिया’ जैसे सूक्ष्म संस्थान को समझने और उसमें उलट-फेर करने के संबंध में एक प्रकार से अनाड़ी जैसी स्थिति में ही रह रहा है।
जहाँ स्थूल का अन्त है वहाँ से सूक्ष्म का आरम्भ होता है। पदार्थ विज्ञान जहाँ थक जाता है, वहाँ अध्यात्म उस भार वहन की जिम्मेदारी उठाता है। समझा जाना चाहिए कि अध्यात्म विज्ञान उस असमंजस को दूर करेगा जिसमें जीवकोष और हारमोन के मध्यवर्ती विद्युत प्रवाह को आरोग्य रक्षा एवं रोग उपचार के लिए ठीक प्रकार तालमेल मिला सकने की स्थिति तक पहुँचाया जा सके।