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Magazine - Year 1971 - Version 2

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आश्चर्य जगत के अधिष्ठाता की खोज

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मनुष्य एकाकी खाता-सोता तो है, पर वस्तुतः वह इस विराट् विश्व का नन्हा-सा घटक भर है। उसे निर्वाह सामग्री, प्रसन्नता, सम्पन्नता और सफलता की अनेकानेक उपलब्धियाँ समूचे समाज के योगदान से ही उपलब्ध होती है। लगने को तो यह भी लग सकता है कि हमारा सम्बन्ध-संपर्क एवं आदान-प्रदान थोड़े से लोगों तक हैं, पर थोड़ी लम्बी-दृष्टि फैलाने पर पता चलता है कि मानवी समुदाय के मध्य सहयोग की एक लम्बी शृंखला बनी हुई है। भूतकाल के दिवंगत मनुष्यों के अनुसंधान एवं उपार्जन का लाभ हम-सब अद्यावधि उठा रहे हैं और भविष्य में भी अनुदानों का यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने वाला है। मछली का जीवन जल है और मनुष्य का अस्तित्व समाज पर निर्भर है।

विद्वान् ‘हेगल ने समष्टि मन को ही ‘विराट् पुरुष’ का संज्ञा दी है। विराट् ब्रह्म के रूप में इस निखिल ब्रह्माण्ड की सत्ता को ही चित्रित-प्रतिपादित किया जाता रहा है और “सियाराम मय सब जग जानी” वाली उक्ति के अनुसार समाज या संसार को भी विराट् की उपमा दी जाती रही हैं, किन्तु तत्वदर्शियों के गहन प्रतिपादन में ‘समष्टि-मन’ को ही वह गरिमा प्रदान की जा सकती है, जिसमें उसे ईश्वर या उसके समतुल्य ठहराया जा सकें।

ब्रह्माण्ड में भला-बुरा सब कुछ हैं। यहाँ नीति के साथ अनीति भी चलती है और देव के साथ असुर का अस्तित्व भी मौजूद है। किन्तु ‘समष्टि-मन’ विश्व के समग्र हित साधन को ही आधारभूत कारण मानता है। तद्नुरूप मात्र कल्याणकारी प्रतिपादनों को ही अंगीकार करता है। यह समूहवाद या समाजवाद से ऊँची स्थिति है। समूह वर्ग विशेष के होते हैं। उसमें मनुष्य के स्तरों का विभेद भी हो सकता है और अन्य प्राणियों को मानवी नीति-नियमों से पृथक भी रखा जा सकता है, किन्तु ‘समष्टि-मन’ तो एक प्रकार से सार्वभौम नीति-निष्ठा-सहकारिता एवं उदारता का समन्वित स्वरूप रहेगा। अन्यथा उसके प्रभाव से व्यष्टि-मन को-उत्कृष्टता की दिशा देने योग्य प्रखरता एवं क्षमता ही न रह जायेगी।

विराट् पुरुष अथवा समष्टि-मन में उस श्रेय का ही बाहुल्य रहेगा। ऐसा श्रेय जिसे सहयोग एवं औचित्य का समन्वय कहा जा सके। ‘हेगल’ के प्रतिपादन का यही सार संक्षेप है।

कार्डिनल न्यूमेन ने अपने ग्रन्थ ‘ग्रामर आफ असेण्ड’ में अन्तरात्मा से उठने वाली उच्चस्तरीय प्रेरणाओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है और उसे ‘इलेक्ट्रिक फेकल्टी’ नाम दिया है। वे कहते हैं-”धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली ‘श्रद्धा’ इसी उद्गम स्त्रोत से निःसृत होती है।”

व्यक्ति और समाज के हित साधन की बात सोचने वाली चिन्तन प्रक्रिया को बुद्धिमत्ता या दूरदर्शिता ही कहा जा सकता है, पर अन्तःकरण का विस्तार इतने सीमित क्षेत्र में ही समाप्त नहीं हो जाता, वरन् इसके आगे की उच्चस्तरीय स्थिति है-अन्तरात्मा। यह विशुद्ध रूप में उन्हीं आदर्शों का समर्थन करती है जो व्यक्ति और समाज के बुद्धिसंगत प्रतिपादनों से भी कहीं ऊँचे होते हैं।

न्यूमेन के अनुसार मनुष्य के विचारों के तर्क से परे एक विलक्षण शक्ति कार्य करती है, जिसे श्रद्धा-विश्वास की शक्ति कहा जा सकता है। तर्क, तथ्य और प्रमाण बुद्धि को प्रभावित करते हैं, पर वह प्रभाव व्यक्ति को उतना ही स्वीकार करने की आज्ञा देता है जिसमें पूर्व कल्पित स्वार्थों पर आँच न आती हो।

भौतिक स्वार्थों की उपेक्षा करके भी जो उत्कृष्टता को अपनाने की प्रेरणा उत्पन्न करती और उसे अपनाने में कुछ भी हानि उठाने का साहस देती है वही ‘श्रद्धा’ है। इसे अन्तरात्मा की आवाज या अंतर्ध्वनि भी कह सकते हैं। यह परत जिनकी भी विकसित हो सके उन्हें देवताओं की श्रेणी में गिना जा सकता है। ऐसे ही लोग महामानव कहलाते हैं और ऋषि-कल्प श्रद्धा के अधिकारी बनते हैं। समय परलोक मानस पर-ऐसे लोग ही गहरी छाप छोड़ते और महत्वपूर्ण परिवर्तन की भूमिका सम्पादित करते हैं।

बोगार्ड्स कहते है-समाज का प्रवाह उस दिशा में बहना चाहिए जिससे उसके सदस्यों को सत्प्रवृत्तियाँ पनपाने के लिए प्रोत्साहन एवं पोषण मिल सके। साथ ही व्यक्तियों का निजी तथा सम्मिलित प्रयास यह होना चाहिए कि वे सभ्य समाज के गठन में योगदान दें। बादल बरसने से नदियों में पानी पहुँचता है और नदियाँ समुद्र को भरा-पूरा रख कर उसे बादल उत्पन्न कर सकने योग्य बनाये रहती है। इसी प्रकार व्यक्तियों के पुरुषार्थ का लक्ष्य होना चाहिए। समुन्नत समाज की संरचना और समुन्नत कहलाने वाले समाजों को इस तथ्य की प्रमुखता देनी चाहिए कि उस ढाँचे में सुसंस्कृत व्यक्तित्वों को ढालने, परिपुष्ट करने की क्षमता पर्याप्त मात्रा में बनी रहे।

डेविस कहते है-”आज देशों और समाजों के उन्नत-अवनत होने का अनुमान इस आधार पर लगाया जाता है कि उनके पास सम्पन्नता के साधन-स्त्रोत कितने है ? शस्त्र-सज्जा तथा अर्थव्यवस्था कितनी मजबूत है? व्यक्ति का उसकी बलिष्ठता, सम्पन्नता और शिक्षा-कुशलता के आधार पर ऊँचे और नीचे होने का निर्णय किया जाता है। किन्तु स्मरण रखने योग्य बात यह है कि जिस प्रकार अनेकों मूढ़ मान्यताएँ हट रही हैं उसी प्रकार यह मान्यता भी देर तक बनी नहीं रहेगी कि साधनों-सुविधाओं के आधार पर समाजों एवं व्यक्तियों का मूल्य-निर्धारण किया जाता रहे।

वह दिन दूर नहीं जब उत्कर्ष एवं अपकर्ष के सम्बन्ध में नई परख-प्रक्रिया व्यवहार में आने लगेगी। उसके अनुसार यह सोचा जायेगा कि जिस समाज में सामाजिकता की भावना जितनी अधिक होगी-उसके सदस्य नागरिक जिस हद तक सहकारी प्रयासों में, जितनी गहरी श्रद्धा के साथ संलग्न हों, उसे उतना ही श्रेष्ठ और समुन्नत स्वीकार किया जाय।

“अगले दिनों प्रजाजनों की चरित्र-निष्ठा और व्यवहार कुशलता ही व्यक्तियों को सम्मान और सहयोग दिला सकेंगे और राष्ट्रों-समाजों की श्रेष्ठता भी इसी पर अवलम्बित रहेगी कि सदाशयता को कहाँ किस स्तर तक समझा और अपनाया जा रहा है।

मनुष्य की दो दुनिया है, एक अपनी दूसरी सम्मिलित। दोनों का अपना-अपना महत्व है। एक-दूसरे की पूरक रहने के कारण उन दोनों का समन्वय रहना आवश्यक है।

निजी दुनिया वह है जिसमें इंद्रियां तृप्ति की वासना और मनःतुष्टि की तृष्णा कहा जाता है। इन दोनों के समन्वय को आकाँक्षा कहते हैं। व्यक्तिगत उमंगे और चेष्टाएँ इसी प्रेरणा केन्द्र से उद्भूत होती है। आत्मा केन्द्रित व्यक्ति इसी परिधि में अपने चिन्तन एवं प्रयास को नियोजित किये रहते हैं। इसी परिधि की उपलब्धियों के अनुरूप अपने को सुखी-दुःखी, सफल-असफल मानते रहते हैं।

सम्मिलित चेतना इससे आगे की है, उसमें परिवार, स्वजन, संपर्क और समाज का सुविस्तृत क्षेत्र आता है। इसकी तुष्टि और प्रगति का भी वैसा ही ध्यान रखना पड़ता है जैसा कि अपने आपका। दोनों के बीच इतनी सघनता है कि एक के बिना दूसरा का मनोरथ एवं प्रयोजन पूरा हो नहीं सकता। विकसित व्यक्तित्व ही साझे की दुनिया में अपना स्थान बनाने और उपयोगी आदान-प्रदान कर सकने में सफल होता है।

प्रगतिशील को उभयपक्षीय प्रगति का उसी प्रकार ध्यान रखना पड़ता है जैसा कि गाड़ी को अपने दोनों बैलों या पहियों का। इनमें से एक भी लड़खड़ाने लगे तो गतिरोध खड़ा होगा और गतिशीलता का लाभ मिलने के स्थान पर टूट-फूट को सुधारने का नया जंजाल खड़ा होगा। व्यक्तित्व की दृष्टि से ‘सुसंस्कारिता का जितना महत्व है उतना ही समष्टिगत सफलताओं के लिये सज्जनोचित शालीनता एवं सघन सहकारिता का।

यह सही है कि मनुष्य पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है और समीपवर्ती परिस्थितियाँ उसे अपने अनुरूप ढाँचे में ढालती चली जाती है। इस प्रतिपादन में बहुत कुछ सच्चाई होते हुए भी यह कमी है कि उसमें उस दूसरे पक्ष को महत्व नहीं दिया गया जो प्रायः इतना ही सामर्थ्यवान् है, जितना कि पारिवारिक एवं सामाजिक पर्यावरण।

व्यक्ति का ‘स्व’ भी एक प्रचण्ड सामर्थ्य है। वह दुर्बल पड़ता है, तो ही पर्यावरण से प्रभावित होती है। अन्यथा यही आत्मा जब अपनी प्रखरता को विकासवान बनाती है तो असाधारण समर्थता का परिचय देती है। इतना असाधारण जिसे परिस्थिति को उलट डालने अथवा उन्हें अवरोध न बन सकने की स्थिति में पहुँचाने योग्य बनाकर रख दे।

वातावरण भौतिक पदार्थों से बना है, किन्तु अन्तराल चेतनामय। चेतना की वरिष्ठता प्रख्यात है। वायुयान-जलयान जैसे विशालकाय संयन्त्र भी सचेतन-संचालक के संकेत पर चलते हैं। यदि चेतना का स्तर ऊँचा हो तो उसकी सामर्थ्य वातावरण को-उसके प्रवाह को मोड़ने-मरोड़ने में भी समर्थ हो सकती है।

चेतना सर्वथा परावलम्बी नहीं है। उसे परिपोषण की सामग्री भर बाहर से मिलती है। किन्तु वास्तविक शक्ति तो भीतर से ही उदय होती है। पेड़ हवा में साँस लेते हैं पर उन्हें जीवन-रस की उपलब्धि जमीन के भीतर छिपी हुई जड़ों से ही प्राप्त होती है। हीरा खरादा तो चरखी पर जाता है और बिकता जौहरी की दुकान पर है उनका निर्माण किसी अविज्ञात खदान की गहरी परत में ही होता है।

व्यक्ति स्वनिर्मित है ऐसा कहा जाय तो उसे अत्युक्ति नहीं माना जाना चाहिए। अपनी उमंग अपनी हिम्मत और अपनी मेहनत से ही कोई कुछ पा सकता है। जड़ों को खुराक मिलती तो है जमीन से ही, पर चूसने की विशिष्टता उनकी अपनी होती है। इसी आधार पर वह एक समूचे पेड़ को पनपाने और फला-फूला बनाने में समर्थ होती है।

चेतना की मौलिक विशेषता जिस स्तर की होती है, जितनी समर्थ होती है, उसी अनुपात से बाह्य जगत् का सहयोग मिलता चला जाता है। चेतना अनगढ़ मूर्छित और विकृत हो तो समझना चाहिए कि प्रचुर साधन और भरपूर सहयोग होते हुए भी प्रगति पथ पर बढ़ चलना तो दूर अपनी स्थिति को यथावत् बनाये रखना तक कठिन हो जायेगा।

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