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Magazine - Year 1972 - Version 2

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भावना और शालीनता अन्य प्राणियों में भी है।

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जिस प्रकार ज्ञान के अंकुर अन्य जीवधारियों में एक सीमा तक मौजूद हैं उसी प्रकार उनमें भावनायें भी विद्यमान हैं। भावुकता पर मनुष्य का ही एकमात्र अधिकार नहीं है, वह अन्य जीवों में भी पाई जाती है और अवसर मिलने पर वह विकसित भी होती है।

टारजन-प्रख्यात वन मानव की कथा प्रसिद्ध है। वह मात्र गप्प नहीं है, उसमें यथार्थता का बहुत बड़ा भाग विद्यमान है। एक 11 वर्ष का अंग्रेज बालक एक जहाज से बिछुड़ कर अफ्रीका के जंगलों में जा फँसा, वहाँ उसे वानरों ने पाल लिया। अन्य पशुओं का भी उसे भावनात्मक सहयोग मिला और लगातार पन्द्रह वर्ष तक उनके बीच रहकर वह वन परिवार के प्राणियों का परिचित ही नहीं स्नेह भाजन भी बन गया।

वन प्रदेशों में तप साधना करने वाले तपस्वियों के पास सिंह, व्याघ्र निर्भय आते-जाते रहते हैं। उन्हें कष्ट देना तो दूर उलटे सहायता करते हैं। सिंह, गाय का तपोवनों में जाकर एक घाट पर पानी पीना, इस बात का प्रमाण है कि उन्हें भाव शून्य न समझा जाय; अवसर मिलने पर उनकी भावुकता मनुष्य से भी आगे बढ़ सकती है। उत्तर प्रदेश आगरा जिले के खंदोली कस्बे के पास जंगलों में एक मादा भेड़िया ने मनुष्य के बच्चे को उठा लिया था पर करुणावश उसे मारा नहीं वरन् उसे दूध पिलाकर पाल लिया जब वह छः वर्ष का हो गया तब शिकारियों ने इस बालक को भेड़ियों की माँद से पकड़ा था।

बंगाल के मालदा इलाके में राबर्ट वैसी नामक शिकारी ने अपने शिकार वर्णन में एक ऐसे अन्धे चीते का जिक्र किया है जिसकी मित्रता एक बन्दर से थी और वह बन्दर ही अपनी आहट तथा आवाज के सहारे चीते को साथ ले जाकर शिकार कराता था। उक्त शिकारी ने जब उस चीते को मारा तो बन्दर लड़ने आया और जब उसे भी गोली लगी तो मरे हुए चीते की लाश तक दौड़ता हुआ पहुँचा और उसी से लिपट कर प्राण त्यागे।

सिन डिगो में (अमेरिका) चिड़िया घर निर्देशक एम॰ बेले वेन्शली ने अपने एक प्रयोग की चर्चा करते हुए लिखा है-चिड़ियाघर में एक भालू के नवजात शिशु को सुअर के नये जन्मे बच्चे के साथ रखा गया। दोनों में भारी मित्रता हो गई। दोनों साथ-साथ घूमने घर से निकलते और शाम को साथ-साथ वापिस आते। भालू के बच्चे का नाम रखा गया-गागिला। सुअर के बच्चे का कोशे। कोशे बड़ा हो गया तो कुछ उच्छृंखलता बरतने लगा और मनमौजी की तरह कहीं जाकर पड़ा रहा। शाम को चिड़ियाघर के अधिकारियों ने कोशे को गैर हाजिर पाया। तलाश किया तो मिला नहीं। ढूँढ़ने की एक युक्ति निकाली गई। रीछ के बच्चे गागिल को कटघरे से बाहर ले जाकर अँधेरे में छोड़ दिया गया। वह अँधेरे से डर कर चिल्लाने लगा। आवाज सुनते ही कोशे से न रहा गया और वह जहाँ छिपा था वहाँ से निकल कर सीधा गागिल के पास आया और उसे पकड़ लिया गया।

आरा (बिहार) जिले के एक गाँव में एक कुतिया ने बन्दर के मातृविहीन बच्चे को अपना दूध पिलाकर पाला था। बच्चा अपनी सुरक्षा के लिए कुतिया की पीठ पर बैठा फिरता था। कुतिया अपने अन्य बच्चों के साथ उसे लेकर एक जगह सोती थी।

सीधी (मध्य प्रदेश) में एक राजपूत का कुत्ता अपने मालिक को अतिशय प्यार करता था। मालिक की मृत्यु हो गई। लाश को जलाया गया। कुत्ता देखता रहा। सब लोग घर चले गये पर वह नहीं गया। चिता के पास ही बैठा रहा। लोगों ने उसे हटाने की बहुत कोशिश की पर हटा नहीं। खाने को दिया पर खाया नहीं। आँसू बहाता और कराहता रहा। इसी स्थिति में तेरहवें दिन उसकी मृत्यु हो गई। उसे भी मालिक के पास ही चिता में जलाया गया। शाकाहारी जानवरों में इस तरह की भावनात्मक-करुणा और सहृदयता बहुत देखने को मिलती है। यह आहार की सात्विकता का प्रभाव है। माँसाहारी पशु इस दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए होते हैं उनकी क्रूरता शिकार तक ही सीमित नहीं होती वरन् अपने निज के बच्चों के प्रति भी वे वैसे ही निर्दय होते हैं। मौका मिल जाय तो अपने बच्चों का सफाया करने में वे चूकते नहीं। रीछ और बाघों की मादायें अपने पति देवताओं की इस क्रूरता से भली-भाँति परिचित होती हैं इसलिए वे छोटे बच्चों को छिपाये-छिपाये फिरती हैं। कहीं इधर-उधर जाती है तो बच्चों को झाड़ियों में छिपा जाती हैं। बच्चे भी डरे सहमे तब तक चुपचाप अपनी जान बचाये बैठे रहते हैं जब तक कि उनकी माँ लौटकर नहीं आ जाती। इस सिलसिले में कई बार तो बच्चों की हिमायत में मादा को नर से काफी झगड़ना पड़ता है और उसमें चोट-चपेट तक हो जाती है।

सिंह स्वभावतः बहादुर नहीं होता। शिकार करते समय लुक छिपकर आक्रमण करने की और तनिक सा खतरा दिखाई पड़ने पर भाग खड़े होने की, प्रवृत्ति उसकी कायरता ही प्रकट करती है। हाँ दाँत, पंजे, शरीर की बनावट और क्रोध की मात्रा ही उसे वीर बनाये हुए है।

ईशागढ़ के राजा ने एक शेर का बच्चा पाला। उसे कटघरे में रखा जाता था और कटा हुआ माँस दिया जाता था। जवान हो गया तो एक दिन जिन्दा बकरा उसके कटघरे में घुसाया गया और उसके द्वारा शिकार किये जाने का दृश्य देखने का प्रबन्ध किया गया। पर बकरे को देखते ही शेर डर गया और एक कोने में मुँह छिपाये बैठा रहा। दो घण्टे तक यही स्थिति रही। जब बकरा बाहर निकाला गया तब कहीं सिंह की जान में जान आई।

ऐसी ही एक घटना भरतपुर राज्य में बहुत दिन पूर्व हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर हुई थी। सुअर सिंह के कटघरे में छोड़ा गया तो सिंह डरकर हक्का-बक्का हो गया और सुअर को छेड़ने की बजाय अपनी ही जान बचाने की तह ढूँढ़ता रहा।

मन की दृष्टि से ही नहीं शरीर की दृष्टि से भी हिंस्र पशु पिछड़े हुए होते हैं और जल्दी थकते हैं। माँसाहारी प्राणी शक्तिशाली होते हैं और शाकाहारी दुर्बल। यह मान्यता सही नहीं है। माँसाहारियों में क्रूरता और धूर्तता की मात्रा अधिक होती है। शाकाहारी सरल स्वभाव के होते हैं। सरलता का अनुचित लाभ उठाकर ही माँसाहारी जीतते हैं अन्यथा शक्ति की दृष्टि से उनका पिछड़ापन ही सिद्ध होता है।

यदि सूँड़ को अस्त-व्यस्त करने में सिंह सफल न हो सके तो हाथी निश्चय ही सिंह को मार देगा। सिंह और हाथी के युद्ध में यदि दाव लग जाय तो सिंह को सूँड़ में लपेट कर पछाड़ देना और पैरों तले कुचल देना हाथी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। बाघ, चीते आदि अपनी दहाड़ से ही हिरन को डरा कर भयाक्रान्त कर देते हैं और उसे दबोच लेते हैं। अन्यथा दौड़ में हिरन ही आगे रहेगा। उसकी छलाँग 11 गज की होती है जबकि शेर, चीते 6 गज से अधिक नहीं उछल सकते। भेड़िये, लोमड़ी, खरगोश को दौड़ में नहीं पकड़ सकते। वे धूर्तता से उन्हें घेर कर ही दबोचते हैं। खुले मैदान में यदि दौड़ने की प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़े तो भेड़िये हताश हो जाते हैं। पहले ही झपट्टे में यदि उनका दाँव न लगा तो पीछा करना छोड़ देते हैं और वापिस लौट आते हैं।

कई प्राणी बुद्धि, भावना और कुशलता तीनों ही दृष्टि से काफी आगे बड़े-चढ़े होते हैं। कई बार तो वे मनुष्य को चुनौती देते हैं। उनकी बुद्धिमता, व्यवस्था और सृजनात्मक शक्ति देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। इस स्तर के प्राणियों में ‘बीवर’ प्रख्यात है।

‘बीवर’ एक प्रकार का जल और थल निवासी-एक प्रकार का बड़ा चूहा है जो पहले केवल उत्तरी अमेरिका में पाया जाता था पर अब उसकी नस्ल प्रायः सभी ठण्डे मुल्कों में फैल गई है। उसकी लम्बाई पूँछ समेत 3 से 4 फुट और वजन में 50 से 65 पौण्ड तक होते हैं। उनकी आयुष्य 15-20 वर्ष तक होती है। शरीर पर बहुत ही मुलायम और चमकीली ऊन होती है।

बीवर की समाज भावना और गृह निर्माण कला अद्भुत है। वे अपना या अपने परिवार का ही ध्यान नहीं रखते वरन् सुख-दुःख में अपने क्षेत्रवासियों की भी पूरी सहायता करते हैं। रोगी, दुर्बल, आपत्तिग्रस्त या भोजन कमाने में असमर्थ साथियों को वे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते। अपनी सुविधाओं के साधनों में ही व्यस्त नहीं रहते वरन् यह भी तलाश करते हैं कि किसी साथी को कोई कष्ट तो नहीं है। प्रसव काल आने पर मादा बीवर की सहायता करने अनेक सहेलियाँ आ जाती हैं और उस समय की आवश्यकताओं को देखते हुए जच्चा की समुचित सहायता करती हैं। अपने बच्चों की तरह पड़ोसिन के बच्चों का भी यह मादायें ध्यान रखती हैं और उन्हें न कुछ असुविधा होने देती हैं और न उच्छृंखलता बरतने देती हैं।

किसी शत्रु के आक्रमण होने अथवा प्राकृतिक विपत्ति आने पर सूचना पाते ही साथियों को सावधान कर देते हैं और भाग निकलने में पहले कमजोरों को अवसर देते हैं।

मकान तो उनके देखने ही योग्य होते हैं। पेड़ों की छाल, पत्तियाँ, घास, लकड़ी के टुकड़े, गीली मिट्टी आदि वस्तुओं की सहायता के बीवर अपने मजबूत और शानदार कमरे बनाते हैं। उनकी लम्बाई चौड़ाई 4-5 फुट और ऊँचाई 3 फुट होती है। मुलायम घास के सुविधा सम्पन्न और गरम रहने वाले बिस्तर तैयार करते हैं। पत्तियों, कलियों और दूसरी रंग-बिरंगी चीजों से वे उन्हें सजाते भी खूब हैं। इन्हें देखकर उनकी कलाप्रियता सराहने को जी करता है। परिवार की वृद्धि के साथ एक दूसरे से सम्बद्ध तथा सटे हुए नये कमरे बन जाते हैं। बड़े परिवार तो एक गाँव, मुहल्ले की तरह बने हुए देखे गये हैं।

पेड़ काटने में वह बहुत कुशल होता है। दाँतों के सहारे 100 फुट ऊँचे और 7 फुट मोटे विशाल वृक्षों को काटकर जमीन पर पटक देना उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। यह पेड़ पुल और बाँध बनाने के लिए काटता है, नदी, नालों को पार कर दूर-दूर तक आहार की खोज में जाने के लिए पुल बनाता है, काटे हुए पेड़ों को कई बीवर मिलकर कंकड़ पत्थर की सहायता से लुढ़का ले जाते हैं और उन्हें यथा स्थान जमाते हैं। वे बहने न पायें इसलिए कंकड़ पत्थरों के भार से उनके सिर दबाते हैं। यह पुल हलके फुलके नहीं वरन् कई बार तो इतने बड़े होते हैं कि हाथी उन पर से उतर जाय। किसानों को, ग्वाले गड़रियों को, इस निर्माण से जल प्रवाहों को पार करने में बड़ी सुविधा होती है।

वे अपना घर इन पुलों के आस-पास बनाते हैं और उसके दो द्वार रखते हैं एक जल की ओर दूसरा थल की ओर। आहार ढूँढ़ने और विपत्ति के समय भागने के लिए वे किसी भी क्षेत्र को चुन लेते हैं। पानी में मछली की तरह वे देर तक रह सकते हैं और वहाँ मछली, केकड़ों, मकोड़ों का शिकार करते हैं। थल में घास, छाल, कन्द, मूल बीज जो कुछ मिलता है इकट्ठा करते हैं। सर्दियों के लिए इतना आहार इकट्ठा कर लेते हैं कि उस असुविधा के समय किसी प्रकार का कष्ट न हो।

समझदारी और शालीनता का ठेका मनुष्य के पास ही नहीं है। अन्य प्राणी भी अपनी स्थिति के अनुरूप कई क्षेत्रों में काफी आगे बढ़े चढ़े हैं। हमें दूसरों से श्रेष्ठ होने का ही अहंकार नहीं करते रहना चाहिए वरन् अन्य प्राणियों से कुछ सीखना भी चाहिए। हो सके तो उनकी कुशलता बढ़ाने में सहयोग भी करना चाहिए।

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