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Magazine - Year 1972 - Version 2

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Language: HINDI
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कारखानों का धुँआ घुट-घुटकर मरने को विवश करेगा

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विज्ञान की अन्धी दौड़ कल कारखानों की भरमार करती चली जा रही है। बहुत जल्दी-अधिकाधिक मात्रा में लाभ उपार्जन के लिए लालायित लोग नित नये कारखाने खड़े करते चले जा रहे हैं। इसे प्रगति कहा जाता है और सभ्यता का वरदान घोषित किया जाता है।

सरकारें इसका समर्थन करती हैं और उन्हें टैक्स आदि की अधिक आमदनी होती है। अर्थ शास्त्रियों की दृष्टि तात्कालिक लाभ पर केन्द्रित रहती है। वे कहते हैं कारखाने सस्ती चीजें बनाते हैं, साफ सुथरी और सुन्दर। हाथ से काम करने पर चीजें उतनी साफ सुथरी भी नहीं बनती हैं और महँगी भी पड़ती हैं। इसलिए गृह उद्योग, हस्त कौशल अधिक श्रम साध्य और स्वल्प लाभ देने के कारण निरर्थक हैं। प्रोत्साहन कारखानों को ही मिलना चाहिए।

जनता की गरीबी बेकारी को देखते हुए गृह उद्योगों का प्रत्यक्ष और प्रबल विरोध तो नहीं किया जाता। आँसू उनके भी पोंछे जाते हैं पर ध्यान सभी का बड़े कल कारखानों पर है। इनमें चन्द लोगों को काम मिलता है और शेष असंख्यों को बेकार बेरोजगार बना दिया जाता है।

इस हानि के अतिरिक्त सबसे बड़ी हानि है, कारखानों से निकलने वाले धुँए से उत्पन्न होने वाला वायु दूषण। कारखानों का धुँआ हवा में मिलकर जन साधारण के शरीर में विषैले तत्व पहुँचाता है, इससे स्वास्थ्य बिगड़ता है, बीमारियाँ बढ़ती है, आयुष्य घटता है और अकाल मृत्यु का शिकार बनना पड़ता है। आँखों से न देखते हुए भी परोक्ष रूप से यह कारखाने सार्वजनिक स्वास्थ्य को जिस बुरी तरह से नष्ट करते हैं उसे देखते हुए इनकी उपयोगिता के पक्ष में दिये जाने वाले सभी तर्क निरर्थक सिद्ध होते हैं।

यह धुँआ कभी-कभी आकाश में वायु सघनता और शीतलता की मात्रा बढ़ जाने से जहाँ-तहाँ बरसने लगता है, उससे होने वाली तात्कालिक हानि को लोग देखते समझते हैं और उस संबंध में हाय तौबा मचाते है; पर स्थिति सुधरते ही फिर सब कुछ ठण्डा हो जाता है।

वायु दूषण मानव जाति के लिए एक संकट बनता जा रहा है। कारखाने, मोटरें, भट्टियाँ दिन-रात विषैला धुँआ उगलती रहती हैं। सभ्यता की घुड़दौड़ में यह बाढ़ थोड़े ही दिन से आई है, उसी ने हर विचारशील को चिन्ता में डाल दिया है। आगे चलकर दिन दूने रात चौगुने क्रम से बढ़ने वाले इन कारखानों द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य का कैसा सर्वनाश होगा उस विभीषिका का स्वरूप सामने आते ही सिर चकराने लगता है।

पेन्सिलवेनिया (अमेरिका) में मोनोनग सेला नामक नदी के किनारे डोनोरा नामक एक छोटी सी औद्योगिक बस्ती है, यहाँ कल कारखाने बहुत हैं। यों यहाँ इन फैक्ट्रियों का धुँआ आमतौर से छाया रहता है और उसे सहन करने में लोग अभ्यस्त भी हो गये हैं पर 28 अक्टूबर को तो वहाँ स्थिति ही विचित्र हो गई। धुँए और धुलि भरी धुन्ध ऐसी छाई कि चार दिन तक बरसाती घटाओं जैसी अँधियारी छाई रही। किसी ने यह जाना ही नहीं कि दिन निकला। दिन में भी रात लगती रही, कालोंच इतनी बरसी कि सड़कों पर उनकी परतें जम गई और निकलने वालों के पैर उस पर स्पष्ट रूप से छपने-उभरने लगे। हवा में गन्धक मिली हुई तेज गन्ध सूँघी जा सकती थी। सड़क पर कारें चलना बन्द हो गई। बीमारों से अस्पताल खचाखच भरे थे। डॉक्टर अपनी जान बचाने के लिए कहीं दूर चले जाने के लिए पलायन करने लगे।

गले की खराबी, सिर में चक्कर, उलटी, आँखों की सूजन आदि रोगों से उस 18 हजार आबादी की छोटी सी बस्ती में 6 हजार बीमार पड़े। इनमें से कितनों को ही मौत के मुँह में जाना पड़ा।

ऐसी ही एक घटना घटी मेक्सिको के रोजारिका क्षेत्र में बस्ती तो सिर्फ 15 हजार की है पर वहाँ हाइड्रोजन सलफाइड तथा दूसरी तरह के कारखाने बहुत हैं। एक दिन किसी गलती से कारखाने की गैस बन्धन तुड़ाकर एक घण्टे के लिए खुले आकाश में भ्रमण करने के लिए निकल पड़ी। इतनी सी देर में उसने सारे नगर को हिला दिया। 320 तो अस्पताल में भरती हुए जिनमें से कितने ही तो घर लौटे नहीं वहीं प्राण गँवाने पड़े।

ऐसी ही विपत्ति एक बार लन्दन में आई। दिसम्बर का महीना था। यकायक काले धुँए के बादल आसमान में घिर आये। उनकी सघनता इतनी अधिक हो गई कि दस फुट से आगे कुछ भी दीख नहीं पड़ता था। आसमान में वायुयानों का उड़ना और जमीन पर मोटरों का चलना असम्भव हो गया। सूरज आसमान में एक धुँधली बत्ती की तरह लटकता भर दीखता था, रोशनी उसमें से निकल ही नहीं रही थी। हवा में सल्फर डाइ ऑक्साइड जैसी अनेकों विषाक्त वस्तुयें घुली थीं। साँस लेना कठिन हो रहा था। इससे कितने बीमार पड़े यह गिनना तो कठिन है पर मौत का लेखा-जोखा यह है कि उन्हीं 4-5 दिनों में 4 हजार तुरन्त मर गये और बीमारों में से 8 हजार कुछ ही दिन में चल बसे।

सन् 56 में ऐसा ही एक और वायु दूषण लन्दन पर बरसा था जिसमें एक हजार व्यक्ति मरे थे। इसके कुछ दिन पहले ऐसा ही एक और झोंका चार सौ की जान ले चुका था। न्यूयार्क में सन् 93 में दो सौ इसी कुचक्र में फँसकर मरे थे। सन् 66 में 168 लोग मरे। वायु में बढ़ी हुई धुन्ध तथा विषाक्तता को देखकर स्वास्थ्य अधिकारियों ने लोगों को घरों में बन्द रहने की ही सलाह दी। सड़कों पर तो इतनी कालोंच बरस रही थी कि उसका साँस के साथ भीतर जाना खतरे से खाली नहीं था। लोग सब काम छोड़ कर यह विपत्ति टलने तक घरों में ही बन्द बैठे रहे।

धुँआ उगलने वाली कारखानों की भट्टियाँ बन्द की गई, मोटरें चलना रोका गया, घरों में चूल्हे जलाने पर पाबन्दी लगी। अच्छा हुआ मौसम सुधर गया अन्यथा स्थिति को देखते हुए 40 लोगों के इस विपत्ति के चपेट में आने का अनुमान लगा लिया गया था।

बेल्जियम की म्यूजा घाटी में लोहे के कल कारखाने अधिक हैं। उस क्षेत्र में विशेष रूप से और अन्य क्षेत्रों में सामान्य रूप से एक दिन धुँए से भरा कुहासा छाया, धुन्ध और घनी होती गई। तीन दिन तक यही स्थिति रही लोगों के दम फूलने लगे। खाँसी हुई, दमा जैसी बीमारी उमड़ी, अनेकों लोग बीमार पड़े। अस्पताल भर गये डाक्टरों के यहाँ भीड़ लग गई और देखते-देखते उसी घुटन में 63 व्यक्तियों को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मृतकों में बूढ़ों और बच्चों की संख्या अधिक थी।

कारखानों और दूसरी भट्टियों का धुँआ निकल कर आकाश में छाने लगता है। अवसर पाते ही वह धरती की ओर झुक जाता है और ‘थर्मला इन्वर्शन’ (ताप-व्युत्क्रमण) का अवसर पाते ही धुन्ध के रूप में बरसने लगता है। जब वह वायु गर्मी से प्रभावित रहती है तब तक धुँए धुन्ध के कारण हवा के साथ ऊपर उठते रहते हैं पर जब शीतलता के कारण वायु नम होती है तो धूलि का उठाव रुक जाता है और वह वायु दूषण नीचे की ओर ही गिरने लगता है। हवा का बहाव बन्द हो जाने पर तो यह विपत्ति और भी बढ़ जाती है।

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