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Magazine - Year 1972 - Version 2

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अणुशक्ति से अधिक सामर्थ्यवान आत्मशक्ति

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विश्व का कण-कण शक्ति से भरा पड़ा है। पर दुर्भाग्यवश हम उसके अभाव में पग-पग पर अभाव और कष्ट अनुभव कर रहे हैं। अणु की शक्ति का क्या ठिकाना सूर्य तो शक्ति का स्रोत ही है। गामा किरणें, कॉस्मिक किरणें, रेडियो किरणें, एक्स किरणें प्रभृति कितनी ही शक्तिधाराएं लोक-लोकान्तरों से इस पृथ्वी पर आती रहती हैं, उनका एक बहुत छोटा अंश प्रयुक्त होता है, शेष ऐसे ही अस्त-व्यस्त होकर विनष्ट हो जाता है।

शक्तिशाली बनने के लिए हमें दो कदम उठाने पड़ेंगे एक, आस-पास बिखरी हुई शक्ति का संचय; दूसरे उसका सदुपयोग। संचय कर सकने की क्षमता न होने से घोर जल वर्षा होते रहने पर भी एक बूँद चुल्लू पानी नहीं मिलता और हाथ मलते रह जाते हैं। इस प्रकार प्रस्तुत वस्तुओं का यदि सदुपयोग न हो सके तो भी लाभदायक स्थिति प्राप्त करने से वंचित ही रहना पड़ता है। यदि शक्ति की व्यापकता और प्रचुर मात्रा में उपस्थिति से परिचित होने के साथ-साथ उसका संग्रह और सदुपयोग विधान भी समझ में आ जाय तो समझना चाहिए कि हम सर्वशक्तिमान न सहीं अतीव शक्तिशाली अवश्य बन सकते हैं और आज की दयनीय स्थिति से कहीं आगे बढ़ सकते हैं।

अणु के स्वरूप, बल तथा बाहुल्य पर दृष्टिपात करें तो आश्चर्य होता है कि अपने अति समीप अतिशय शक्ति भण्डार प्रस्तुत है किन्तु उससे लाभ उठाते नहीं बन पड़ रहा है। अणु शक्ति की संक्षिप्त जानकारी भी हमें आश्चर्य में डाल देती है।

अणु का आकार एक इंच के 20 करोड़वें भाग की बराबर होता है। अब तक बने सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों में से कोई भी अणु को अकेला नहीं देख सकता। उसे तोलने की कोई तराजू भी नहीं बनी है। फिर भी गणित के आधार पर उसकी नाप-तौल, आकृति-प्रकृति, आदि का बहुत कुछ विवरण जान लिया गया है। परमाणु को एक ब्रह्माण्ड कह सकते हैं। उसके भीतर ग्रह नक्षत्र भी हैं और आकाश भी। बीचों-बीच एक ‘केन्द्रक’ है प्रोटोन और न्यूट्रॉन से बना। बाकी खाली मैदान पड़ा है जिसके इलेक्ट्रोन चक्कर लगाते रहते हैं। ‘केन्द्रिक’ को यदि एक गेंद की बराबर माना जाय तो पूरे परमाणु कलेवर को 2000 फुट व्यास का मानना पड़ेगा। भ्रमणशील इलेक्ट्रानों का भार न्यूट्रॉन या प्रोट्रॉन की अपेक्षा 1850 अंश ही होता है। सभी परमाणुओं में इन उप अणुओं की संख्या समान नहीं होती। किसी तत्व में वे कम होते हैं किसी में अधिक।

भूतकाल में यह मान्यता थी कि यह समस्त संसार पाँच तत्वों से मिल कर बना है। उन पाँच तत्वों के नाम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश माने जाते थे। पर ज्ञान के अभिवर्धन के साथ उपरोक्त मान्यता को झुठला दिया है। नये प्रतिपादन यह बताते हैं कि पूर्व मान्यता वाले तथाकथित पञ्च तत्व मौलिक तत्व नहीं है। वे एक प्रकार के सम्मिश्रण हैं। जल कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं। वह कुछ गैसों का सम्मिश्रण है। यही बात शेष चार तत्वों के संबंध में कही गई है।

भौतिक तत्वों की शोध का क्रम चल ही रहा है। वह अभी पूर्ण नहीं हुआ। पिछले दिनों 104 मौलिक तत्व ज्ञात किये जा चुके हैं। इनमें से 92 को सर्वथा प्राकृतिक माना जाता है शेष को मिश्रित या कृत्रिम। अगले दिनों इन तत्वों की संख्या और भी बढ़ने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

मौलिक तत्वों के शोध प्रयास में ‘परमाणु’ को ‘अविभाज्य’ तत्व की मान्यता मिली हुई थी पर पीछे उसे भी एक सम्मिश्रण सिद्ध कर दिया गया। विज्ञानी-प्राउट ने उसे धनावेश और ऋणावेश दो घटकों में विभक्त बताया। धनावेश को ‘प्रोटोन’ नाम दिया गया और ऋणावेश को-इलेक्ट्रोन। पीछे क्यूरी दम्पत्ति ने परमाणु में एक और तत्व की खोज की जिसे ‘न्यूट्रॉन’ नाम दिया गया, इसे आवेश रहित बताया गया। सी0डी0 टन्डरसन ने इलेक्ट्रान के समतुल्य किन्तु आवेश में विपरीत स्थिति के एक ओर नये कण की खोज की उसका नाम ‘पॉजीट्रान’ पड़ा। जापानी वैज्ञानिक युकावा ने उसी परमाणु परिवार के मेसान कणों की खोज की, इन्हें पाई मेसान, के मेसान क्यूमेसान नाम दिया गया है।

परमाणु के उपरोक्त अंग-प्रत्यंगों में भी अब भेद उपभेद निकलते चले आ रहे हैं। हाइपेरान परिवार के ‘लैक्वडा कण, ऐन्टा हाइपे रान, सिग्मा केस्केड, फोटान, न्यूट्रिनों आदि परमाणु के उपभेद इन दिनों विशेष शोध के विषय बने हुए हैं। इन मौलिक तत्वों के अतिरिक्त लगभग वैसी ही विशेषताओं से युक्त नये तत्व कणों का कृत्रिम सम्मिश्रण तैयार किया जा रहा है। इन सब एटॉमिक कणों की आकृति और प्रकृति में अति आश्चर्यजनक नवीनतायें प्रकट होती चली जा रही हैं।

भावी शक्ति स्रोत के लिए इन दिनों परमाणु शक्ति पर निगाह लगी हुई है और उसका सुलभ उपयोग तलाश किया जा रहा है। आश्चर्य है कि परमाणु जैसी नगण्य इकाई-तुच्छ सी वस्तु किस प्रकार शक्ति का प्रचण्ड स्रोत बनकर मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकेगी।

परमाणु में शक्ति उत्पन्न करने का क्रियाकलाप है-अणु-विखण्डन। इसके लिए मूल तथा यूरेनियम का प्रयोग किया जाता है। उस पर न्यूट्राणुओं का आघात करने से आसानी से टूट जाता है। उपलब्ध यूरेनियम का सर्वांश विखण्डन के योग्य नहीं होता। उसमें 0.71 प्रतिशत ही विखण्डनीय अंश है शेष तो अन्य वस्तुयें ही उसमें मिली हुई हैं-जिन्हें उर्वर कहा जा सकता है। प्रयत्न यह हो रहा है कि इस उर्वर अंश को भी विखण्डन से सहायता देने योग्य बनाया जाय। वैज्ञानिकों की भाषा में शुद्ध अंश को यूरेनियम-235 और अशुद्ध अंश को -238 कहा जाता है। इस 238 अंश पर न्यूट्रानों का आधार करके उसे भी एक नये पदार्थ-प्लूटोनियम-239 में परिणत कर लिया जाता है। इस प्रकार लगभग यह सारा ही मसाला घुमा फिरा कर परमाणु शक्ति उत्पन्न करने में प्रयुक्त हो सकने योग्य बना लिया जायगा।

एक घन फुट यूरेनियम से इतनी शक्ति उत्पन्न की जा सकती है जितनी 17 लाख टन कोयले में से अथवा 72 लाख बैरल तेल में होती है। इसे 320 खरब घनफुट प्राकृतिक गैस की बराबर भी समझा जा सकता है।

अणु शक्ति का न केवल बिजली उत्पन्न करने में उपयोग है वरन् केन्सर सरीखे जटिल रोगों की चिकित्सा में भी उसे प्रयुक्त किया जाता है। बम्बई के टाटा संस्थान ने इस दिशा में बहुत प्रगति की है।

परमाणु को अँग्रेजी में ‘एटम’ कहते हैं। यह मूलतः ग्रीक भाषा का शब्द है-जिसका अर्थ होता है-’अविभाज्य’ ग्रीक ही क्यों सर्वत्र यही मान्यता था। अणु को पदार्थ की सबसे छोटी इकाई माना जाता था पर अब वह लगभग 30 इकाइयों का-एक प्रकार का राष्ट्र मण्डल है। एक 30 ग्रह नक्षत्रों वाला परिभ्रमण शील सौर परिवार भी कहा जा सकता है।

अणु बम, पनडुब्बियों के संचालन, बर्फ तोड़ने आदि में उसका प्रयोग काफी दिनों से चल रहा है। अन्तः ग्रह नक्षत्रों में यात्रा करने वाले राकेटों में अणु शक्ति का भारी योगदान है। आगे तो वह सर्वसाधारण की दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने में लिए सर्वसुलभ ही बनने जा रही है।

यूरेनियम में अग्नि और रेडियम सक्रियता के दोनों गुण हैं। इसलिए उसके निर्माण एवं उपयोग में पूरी-पूरी सावधानी बरतनी पड़ती है। तनिक सी असावधानी से भयंकर अग्नि काण्ड हो सकता है। और रेडियो सक्रियता फैल पड़े तो महाविनाश उत्पन्न कर सकती है। जहाँ यह प्रयोग होते हैं वहाँ ऐसे विशिष्ट उपकरण लगाये जाते हैं जिनसे हवा में यूरेनियम के धूलि कण जमा न होने पायें।

अणु शक्ति की तरह ही मनुष्य की चेतना शक्ति है जिसके अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त, आत्मबोध को अन्तःकरण के रूप में जाना जाता है। लगन, तत्परता, एकाग्रता, तन्मयता, निष्ठा, दृढ़ता, हिम्मत जैसे मानसिक गुण ऐसे हैं जिनके आधार पर अणु शक्ति से भी करोड़ों गुनी अधिक प्रखर आत्मिक शक्ति को जगाया, बढ़ाया, रोका, सँभाला और प्रयुक्त किया जा सकता है।

अणु विज्ञान से बढ़कर आत्म विज्ञान है। जड़ अणु में जब इतनी शक्ति विद्यमान है तो जड़ की तुलना में चेतन का जो अनुपात है उसी हिसाब से आत्म शक्ति की महत्ता होनी चाहिए। अणु विज्ञानी अपनी उपलब्धियों पर गर्वान्वित हैं और उस सामर्थ्य को युद्ध अस्त्र से लेकर बिजली की कमी को पूरा करने जैसी योजनाओं में प्रयुक्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं। आत्म विज्ञानियों का कर्त्तव्य है कि वे उसी लगन और तत्परता के साथ आत्म शक्ति की महत्ता और उपयोगिता को इस प्रकार प्रमाणित करें कि सर्वसाधारण को उसकी गरिमा समझा सकना सम्भव हो सके।

महामानव वस्तुतः एक जीवन्त प्रयोग परीक्षण है जिन्हें आत्म शक्ति के संग्रह और सदुपयोग कर सकना आया और उस प्रयोग के द्वारा प्रगति पथ पर बढ़ चलने का लाभ उठाया। ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति की त्रिवेणी को केन्द्रित कर उससे उत्पन्न सामर्थ्य को रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त कर सकने की विधि व्यवस्था को अध्यात्म विज्ञान कहते हैं। मध्यकाल में उसका स्वरूप अन्धविश्वासी जनता और श्रद्धा शोषक साधना व्यवसायी लोगों द्वारा विकृत अवश्य हो गया और उससे अनास्था भी फैली; पर उससे मूल तथ्य पर कोई आँच नहीं आती। सत्य जहाँ था वहाँ का वहीं मौजूद है।

अणु शक्ति की ऊर्जा बिखर जाने से हानि होती है। आत्म शक्ति का रावण, कुम्भकरण, भस्मासुर, हिरण्यकश्यपु की तरह दुरुपयोग होने का खतरा है। सिद्धि चमत्कारों के हास-परिहास में उसे कौतुक-कौतूहल के बाजारू स्तर पर रखकर उपहासास्पद भी बनाया जा सकता है; पर यदि उसे ठीक तरह समझा और सँभाला जाय-वैयक्तिक विकास और सामाजिक उत्कर्ष में उसका सुविज्ञ व्यक्तियों द्वारा उपयोग किया जाय तो उसकी गरिमा अणु शक्ति की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है।

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