
जीवन के अपव्यय का पश्चाताप
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भोगा मेधवितानस्थविद्युल्लेखेव चञ्चलाः।
आयुरप्यग्निसन्तप्तलोहस्थजलबिन्दुवत्॥
यथा व्यालगलस्थोऽपि भेको दंशानपेक्षते।
तथा कालाहिना ग्रस्तो लोको भोगानशाश्वतान्
पितृमातृसुतभ्रातृदारबन्ध्वादिसं् गमः।
प्रपायामिव जन्तूनाँ नद्याँ काष्ठोधवच्चलः॥
छायेव लक्ष्मीश्चपला प्रतीता-
तारुण्यमम्बूर्मिवदध्रुवं च।
स्वप्नोपमं स्त्रीसुखमायुरल्पं-
तथापि जन्तोरभिमान एषः॥
-अध्यात्म रामायण
जीवन के भोग मेघ रूपी वितान में चमकती हुई बिजली के समान चंचल हैं और आयु अग्नि में तपाये हुए लोहे पर पड़ी हुई जल बिन्दू के समान क्षणिक है। जिस प्रकार सर्प के मुँह में पड़ा हुआ भी मेंढक मच्छरों को ताकता रहता है; उसी प्रकार लोग काल रूप सर्प से ग्रस्त हुए भी अनित्य भोगों को चाहते रहते हैं। पिता, माता, पुत्र, भाई, स्त्री और बन्धु-बान्धवों का संयोग प्याऊ पर एकत्रित हुए जीवों अथवा नदी प्रवाह से इकट्ठी हुई लकड़ियों के समान चञ्चल और यौवन जल तरंग के समान अनित्य है; स्त्री सुख स्वप्न के समान मिथ्या और आयु अत्यन्त अल्प है, जिस पर भी प्राणियों का इनमें कितना अभिमान है?
श्री भर्तृहरि कहते हैं -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो -
न तप्तं वयमेवतप्ताः।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा-
न जीर्णा वरमेव जीर्णा॥
हमने विषयों को तो भोगा नहीं उल्टे विषय ही ने हमें भोग लिया, हम तप न तपे पर तप ने हमें तपा दिया और समय नहीं बीता परन्तु हमारी आयु अलबत्ता व्यतीत हो गई। परन्तु इतने पर भी तृष्णा बुड्ढी नहीं हुई, बल्कि हमीं वृद्ध हो गये।
यत्रानेकः क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको।
यत्राप्येकस्तदनु वहवस्तत्र चान्ते न चैकः॥
इत्थं चेमौरजनि दिवसौ दोलयन् द्वाविवाक्षौ।
कालः काल्या सह बहुकलः क्रीड़ति प्राणसारै॥
जिस घर में एक थे, वहाँ अनेक देख पड़ते हैं और जहाँ अनेक थे वहाँ अब एक है। मालूम होता है, काल रात-दिन के पासे संसार रूपी चौपड़ के खेल में प्राणियों की गोटी बनाकर अपनी कालतत्व शक्ति के साथ खेल रहा है।
बालिभिर्मुखमा क्रान्तं पलितैरंकितंशिरः।
गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णै का करुणायते॥
मुँह के चमड़े सिकुड़ गये, सिर के बाल पक गये और अंग शिथिल हो गये पर एक तृष्णा ही ऐसी है जो युवा होती जाती है।
जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं जरा यौवनं।
हन्ताँगेषु गुणाश्च वन्धयफलता यातागुणज्ञैबिना॥
किं युक्तं सहसाभ्युपैति बलवान् कालः कृतान्तोऽक्षमी।
ह्याज्ञातंस्मरशासनाँघ्रियुगलं मुक्तास्तिनान्यागतिः॥
सभी मनोरथ हृदय में जीर्ण जीर्ण हो गये, कुछ सिद्ध न हुआ और जवानी बीत गई, मेरे सारे गुण बिना गुण ग्राहक के व्यर्थ हुए और सर्वनाशी भयंकर काल समीप आ रहा है; ऐसे समय में बिना शिवजी के चरण के कोई दूसरी गति नहीं है।
व्याघ्रीव तिष्ठित जरा परितर्जयन्ती।
रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम्॥
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो।
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्॥
बुढ़ापा बाघिनी सी डाँट रही है, रोग शत्रुओं के समान देह पर दण्ड प्रहार कर रहे हैं, आयु दिन दिन घटती जाती है, जैसे फूटे घड़े से जल निकलता जाता है, तिस पर भी वही काम करते हैं जिससे हमारा नुकसान हो।