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Magazine - Year 1972 - Version 2

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अन्य प्राणधारी भी विभूतियों से रहित नहीं

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मनुष्य अपने को ही महत्वपूर्ण मानता रहे और दूसरे प्राणियों को तुच्छ समझे यह उचित नहीं। सोचने की क्षमता, सामाजिक सूझ-बूझ बेशक मनुष्य में अधिक है और इन दो कारणों से उसने उन्नति भी बहुत की है पर इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य जीव कूड़ा-करकट ही हैं। भगवान ने उन्हें भी अनेक प्रकार की विशेषतायें दी हैं, जिनसे मनुष्य सर्वथा वंचित है। अपने इन ईश्वरीय अनुदानों के कारण वे मनुष्य की तुलना में कई अभाव रहते हुए भी सुख-सुविधा भरा जीवन जीते हैं। एक किस्म के खिलौने मनुष्य को दिये हैं तो दूसरी किस्म के खिलौने भगवान ने अपने इन छोटे बच्चों को, अन्य जीवों को भी दे रखे हैं और खाली हाथ उन्हें भी नहीं रहने दिया गया है।

दीमक और चींटियाँ परस्पर अंग स्पर्श करके -एक दूसरे साथी की अपनी बात बताती और सुनती हैं। इस पारस्परिक जानकारी के आधार पर उन्हें अपना भावी कार्यक्रम बनाने में बड़ी सहायता मिलती है।

तितलियाँ और पतंगे अपने शरीर से समय-समय पर भिन्न प्रकार की गन्ध छोड़ते हैं, उस गन्ध के आधार पर उस जाति के दूसरे पतंगे अपने साथियों की स्थिति से अवगत होते हैं और उपयोगी सूचनायें संग्रह करते हैं। किस दिशा में उपयोगी किसमें अनुपयोगी परिस्थितियाँ हैं उसका ज्ञान वे साथी पतंगों के शरीर से निकलने वाली गन्ध से ही प्राप्त करते हैं। उनकी दृष्टि दुर्बल होती है। आँखें उनकी इतनी सहायता नहीं करतीं जितनी कि नाक।

बहुत पतंगे एक दूसरे के विभिन्न अंगों का स्पर्श करके अपने विचार उन तक पहुँचाने और उनके जानने की प्रक्रिया पूरी करते हैं। मनुष्य का सम्भाषण वाणी से अथवा भाव भंगिमा के माध्यम से सम्पन्न होता है। पतंगे यही कार्य परस्पर अंग स्पर्श से करते हैं। जीभ से उच्चारण न कर सकने पर भी वे एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक स्थिति जान लेते हैं। इस प्रकार उनका पारस्परिक संपर्क एक दूसरे के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। मधुमक्खियों के पैर बहुत संवेदनशील होते हैं। वे उन्हें रगड़ कर एक प्रकार का प्रवाह उत्पन्न करती हैं। उससे न केवल ध्वनि ही होती है वरन् ऐसी संवेदना भी रहती है जिसे उसी वर्ग की मक्खियाँ समझ सकें और उपयोगी मानसिक आदान-प्रदान से लाभान्वित हो सकें।

टिड्डे और झींगुर अपने पिछले पैर और पंख रगड़कर अनेक चढ़ाव-उतार सम्पन्न ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करते हैं। सितार, सारंगी या वेला के तारों का घर्षण जिस प्रकार कई तरह की स्वर लहरी पैदा करता है, उसी तरह टिड्डे तथा झींगुरों के पैरों तथा पंखों के माध्यम से प्रस्फुटित होने वाला स्वर प्रवाह अनेक प्रकार का होता है और उसमें अनेक प्रकार के भाव तथा संकेत छिपे रहते हैं।

जीव विज्ञानी जर्मन वैज्ञानिक डॉक्टर फैवर ने योरोप भर में घूमकर विभिन्न जातियों के टिड्डे, झींगुरों की ध्वनियों का टैप संकलन किया है। उसने 400 प्रकार के शब्द पाये जो निरर्थक नहीं, सार्थक थे और सुरुचि पैदा करते थे। उन्होंने 14 प्रकार के प्रणय गीत भी इकट्ठे किये जिनमें प्रणय निवेदन के उतार-चढ़ाव, आग्रह, अनुरोध आकर्षण, निषेध, मनुहार, प्रलोभन, सहमति, असहमति की मनःस्थिति की जानकारी सन्निहित थी। इसके अतिरिक्त वे अन्य मनोभाव अपने वर्ग तक पहुँचाने के लिए अपनी अन्तः अभिव्यक्ति के लिये यह ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करते हैं इसका विस्तृत विश्लेषण और विवरण डॉक्टर फैवर ने तैयार किया है। ग्राईलस, कम्पोस्टिस, ग्राइवो, मेकूलेटस जाति के झींगुरों की शब्दावली और भी अधिक विकसित पाई गई।

मधु मक्खियाँ जब घर लौटती हैं तो अपनी दैनिक उपलब्धियों की जानकारी छत्ते की अन्य मक्खियों को देती हैं इसके लिए उनका माध्यम नृत्य होता है। स्थिति की भिन्नता को सूचित करने के लिए उनकी अनेक नृत्य पद्धतियाँ निर्धारित हैं। परिसंवाद से वे परस्पर एक दूसरे की उपलब्धियों से परिचित होती हैं और अगले दिन के लिए अपना क्रम परिवर्तन निश्चित करती हैं। कार्ल वाल फ्रञ्च का मधु मक्खियों सम्बन्धी अध्ययन अति विशाल है। रानी मधुमक्खी जब ऋतुमती होती है तो उसके शरीर से निकलने वाले आक्सोइका और ड्रनोइक द्रव हवा में उड़कर नरों तक सन्देश और आमन्त्रण पहुँचाते हैं।

कुछ लघु कार्य कीट पतंग केवल अपने नेत्र सञ्चालन और मुख मुद्रा में थोड़ा हेर-फेर करके अपनी मनःस्थिति से साथियों को अवगत करते हैं। प्रो. राबर्ट हिण्डे ने कितनी ही चिड़ियों को केवल नेत्र संकेतों से वार्तालाप करते देखा है। एक दूसरे के विचारों के आदान-प्रदान की आवश्यकता वे आँखों में रहने वाली संवेदना से कर लिया करती हैं, जुगनू अपने मनोभाव पूँछ में से प्रकाश चमकाकर प्रकट करते हैं। प्रकाश के जलने बुझने का क्रम उस वर्ग के दूसरे जुगनुओं के चमकते हुए प्रकाश के माध्यम से पारस्परिक परिचय तथा एक दूसरे की स्थिति समझने का अवसर मिलता है।

मेंढ़कों का टर्राना एक स्वर से नहीं होता और न निरर्थक। वे अपनी स्थिति की सूचना इस टर्राहट के द्वारा साथियों तक पहुँचाते हैं। इसलिये इस टर्राने में कितने ही प्रकार के उतार-चढ़ाव पाये जाते हैं। पक्षियों में कौए की भाषा अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत है। वे अपने वर्ग की ही बात नहीं समझते वरन् आस-पास रहने वाले अन्य पक्षियों की भाषा भी बहुत हद तक समझ लेते हैं और उस जानकारी के आधार पर चतुरतापूर्वक लाभ उठाते हैं।

आमतौर में छोटे-जीव जन्तुओं के पारस्परिक संवाद के विषय होते हैं, सहायता की पुकार, खतरे की सूचना, क्रोध की अभिव्यक्ति, हर्षोल्लास का गीत राग, व्यथा वेदना का क्रन्दन, ढूँढ़ तलाश। इन प्रयोजनों के लिये उन्हें अपने वर्ग के साथ सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। ऐच्छिक या अनैच्छिक कुछ भी हो यह विचार विनिमय उनके लिये उपयोगी ही सिद्ध होता है। यदि इतना भी वे न कर पाते तो सामाजिक जीवन का सर्वथा अभाव, नितान्त एकाकीपन उन्हें और भी अधिक कष्टमय स्थिति में धकेलता।

नीलकण्ठ पक्षी द्वारा मछली का शिकार देखते ही बनता है। वह पेड़ की डाली पर बैठा हुआ घात लगाये रहता है, और जहाँ मछली दिखाई पड़ी कि बिजली की तरह टूटता है और पानी में गोता लगाकर मछली पकड़ लाता है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस डाली पर से- जिस स्थान से वह कूदा था लौटकर ठीक वहाँ वापिस आता है और वहीं बैठता है। यह स्प्रिंग पद्धति का क्रिया-कलाप है। दीवार पर फेंककर मारी गई गेंद लौटकर फैंकने के स्थान पर ही आती है। नीलकण्ठ प्रकृति के उसी सिद्धान्त का जीता जागता नमूना है।

तोता, मैना, बुलबुल, रोबिन, चटक, कनारी कुलम जैसे कितने ही पक्षी मनुष्य की बोली की नकल उतारने में सक्षम होते हैं। पढ़ाये हुए तोता मैना राधा, कृष्ण सीताराम, कौन हैं, क्यों आये, आदि कितने ही शब्द याद कर लेते हैं, और समय-समय पर उन्हें दुहराते रहते हैं। ‘अमेजन’ जाति का तोता तो 100 शब्दों तक की नकल उतार सकता है। आस्ट्रेलियाई तोते 10 तक गिनती गिन ही नहीं लेते वरन् उस संख्या को पहचान भी लेते हैं।

कबूतरों की सन्देश वाहक के रूप में काम करने की क्षमता प्रसिद्ध है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने और वापिस लौटने में उन्हें सिखाया सधाया जा सकता है। डाक-तार की सुविधा से पूर्व वे सन्देश वाहक का काम खूबी के साथ निबाहते थे। पैरों में पत्र बाँध दिया जाता था, वे निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचते थे और उत्तर को दूसरा पत्र उसी पैर में बँधवाकर वापिस अपने स्थान को लौट आते थे।

शिकारी जानवरों के दाँत साफ करने के लिये कितने ही पक्षी अभ्यस्त रहते हैं। मगर, बाघ आदि अपने दाँतों की सफाई कराने के लिये मुँह फाड़कर पड़े रहते हैं और वे चिड़ियाँ अपने शरीर का बहुत सा हिस्सा उनके जबड़े में डालकर दाँतों की सफाई करती रहती हैं। उन्हें जरा भी डर नहीं लगता कि वे हिंसक पशु यदि चाहें तो जबड़ा बन्द करके उनका कचूमर बना सकते हैं। यह चिड़ियाँ निर्भय ही नहीं होती वरन् उनकी सहायता भी करती हैं। जहाँ शिकार होती हैं वहाँ चहचहा कर उनका मार्गदर्शन और प्रोत्साहन भी करती हैं।

चमगादड़ अपनी श्रवणेन्द्रिय के आधार पर आकाश में गतिशील विविध कम्पनों का अनुभव करती हैं और नेत्रों का प्रायः बहुत सा काम उसी से चला लेती हैं।

हाथी की दृष्टि बहुत मन्द होती है। प्राणियों के समीप में उपस्थित वह गन्ध के आधार पर ही भाँपता है। कुत्ता अपने प्रिय या परिचित व्यक्ति की ढूंढ़ खोज गन्ध के आधार पर करता है। हवा का रुख विपरीत हो और गन्ध का प्रवाह उल्टा हो जाय तो सौ गज दूर खड़े मालिक को पहचान भी उसके लिये कठिन होगा। पक्षियों की पहचान रंगों पर निर्भर है। उनके नेत्र रंगों के बहुत छोटे अन्तर को भी पहचानते हैं और उसी आधार पर अपने आवागमन की राह निर्धारित करते हैं।

सील मछली अपने बच्चे की नन्हीं सी आवाज हजारों अन्य मछलियों के कोलाहल में से पहचान लेती है। मोटे तौर से उस समूह में एक ही शक्ल के अनेकों शिशु वयस्क होते हैं पर सील अपने बच्चे की पुकार सुनते ही तीर की तरह उसी पर जा पहुँचती है। बीच के व्यवधान को हटाने में अपने पराये की ठीक, पहचान करने में उससे जरा भी भूल नहीं होती।

बया पक्षी का घोंसला कितना सुन्दर और व्यवस्थित होता है। घोर वर्षा होते रहने पर भी उसमें पानी की एक बूँद भी नहीं जाती। आँधी तूफान आते रहते हैं पर वे घोंसले टहनियों पर मजबूती के साथ टँगे रहते हैं। बया अपने बच्चों सहित उसमें मोद मनाती रहती है जबकि ऋतु प्रतिकूलता के कारण अन्य जीवधारी कई तरह के कष्ट उठाते रहते हैं।

जीवधारियों की इन विशेषताओं को देखते हुए यही मानना पड़ता है कि वे भी मनुष्य की तरह भी भगवान को प्रिय हैं और उन्हें भी कितनी ही तरह की विशेषतायें, विभूतियाँ दी गई हैं। अपने उन छोटे भाइयों के प्रति न तुच्छता का भाव रखा जाय और न उन्हें सृष्टि का निरर्थक निर्माण समझा जाय। मनुष्य की तरह ही वे भी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं।

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Language: HINDI
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