
और नारी में कोई छोटा बड़ा नहीं
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
नर और नारी एक दूसरे के पूरक है। दोनों अधूरे पक्षों के मिलन से पूर्ण इकाई बनती है इसलिए गाड़ी के दो पहियों की तरह उन्हें परस्पर मिल −जुलकर ही चलना होता है स्नेह,सौजन्य और सद्भावना,सद्−व्यवहार के आधार पर ही मैत्री की नींव मजबूत होती है। विवाह बन्धन और परिवार निर्माण की प्रक्रिया इसी धुरी पर धूमती है।
नर−नारी सहयोग के लिए हथकंडों को काम में नहीं लिया जाना चाहिए। नारी को बार−बार सन्तानोत्पादन करना पड़ता है इसलिए वह बलिष्ठता की दृष्टि से स्वभावतः कुछ हलकी पड़ेगी। शिशु पालन एवं गृह व्यवस्था के दोनों उत्तरदायित्व इतने बड़े हैं कि उनका ठीक तरह भार सम्भालना उसी के लिए सम्भव हो सकता है जो अहर्निश उस कार्य में दत्त−चित्त होकर लगा रहे। नियति ने यह कार्य नारी के जिम्मे किया है। ऐसी दशा में उसे स्वतन्त्र उपार्जन के लिए अतिरिक्त अवकाश कहाँ से मिलेगा। चूँकि पुरुष शारीरिक दृष्टि से अपेक्षाकृत परिपुष्ट होता है और धन उपार्जन करता हैँ उसी से उसे अपने को ज्येष्ठ और नारी को कनिष्ठ नहीं मान लेना चाहिए। थोड़ी बारीकी से देखा जाय तो भावनात्मक −कोमलता,सरसता,गृह व्यवस्था और शिशु निर्माण का कार्य इतना महान है कि बलिष्ठता एवं उपार्जन क्षमता को उस पर निछावर किया जा सकता है।
सहयोग से रहें तो ठीक अन्यथा दोनों अपने आप में परस्पर पूर्ण भी हैं दबाव और आतंक के आधार पर बँधे हुए बन्धनों की अपेक्षा तो उनका एकाकीपन भी बुरा नहीं है। उनका पारस्परिक सहयोग हर दृष्टि से उपयोगी है पर यह सोचना नहीं चाहिए कि किसी का काम किसी के बिना रुक जायगा। यहाँ तक कि वे संतानोत्पत्ति की दृष्टि से भी किसी समय स्वावलंबी थे और समय पड़ने पर सृष्टि उत्पादन का क्रम वे एकाकी भी चला सकते है।
प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने ईसा के जन्मे से तीन सौ वर्ष यह कहा था कि −”स्त्री और पुरुष आरम्भ में एक ही व्यक्तित्व में समाये हुए थे। किन्तु देवताओं की क्रोधाग्नि ने उनको अलग−अलग कर दिया। तब से वे दोनों एक दूसरे के साथ पुनः सम्मिलित होने के लिए लालायित हैं”
प्रसिद्ध जीव विज्ञानी क्रयू ने कहा है कि प्लेटो के इस कथन से बढ़कर सुन्दर यौन आकर्षण की ओर कोई व्याख्या हो नहीं सकती।
मनुस्मृति के अध्याय 1 श्लोक 32 में कहा गया है− “विधाता ने अपनी देह को विभक्त करके आधे अंश से पुरुष का और आधे से स्त्री का सृजन किया “
महादेव शिव को अर्धनारीश्वर कहा गया है भगवान् कृष्ण को भी आधे शरीर से राधा आवे से कृष्णा का समन्वय बताया गया हैं और उसी तरह चित्रित भी किया गया है।
सृष्टिगत पदार्थों को ही नहीं जीवों को भी द्वंद्वात्मक माना गया है। यहाँ प्रत्येक वस्तु दोनों भाव पाये जाते है विधु त धारा तक श्रम और धन आवेशों के समन्वय से विनिर्मित है। हर पदार्थ या जीव का एक पक्ष नर है एक पक्ष नारी। परिस्थिति वश जब जो पक्ष उभर आता है तब उस प्रकार की संज्ञा मिल जाती है।
प्रजनन की समर्थता का विकास दो अति सूक्ष्म ग्रन्थियों के रूप में होता हैं जिन्हें सेक्स ग्लोन्डस अथवा गोन्डेस कहते है भ्रूण में इन्हीं के कारण लिंग भेद उत्पन्न होता है। नर में यह अण्डकोष बनाती है और स्त्री में डिंबाणु। इन ग्रन्थियों से होने वाले रस प्रवाह को ‘सेक्स हारमोन’ कहते हैं।
जीवधारी की देह में जो कोष है उनमें नर और नारी तत्व के विकसित होने की पूर्ण समानता और पूर्ण संभावना रहती है। उपरोक्त ग्रन्थियाँ और उनके प्रवाह द्रव ही लिंग भेद का आधार उत्पन्न करते हैं।
कुछ प्राणी ऐसे भी होते है जिनमें आधी देह स्त्री लक्षण युक्त होती है और आधी में पुरुष के लक्षण विकसित होते है। ऐसे प्राणियों को गाइनेन्ड्रामार्फ के गिना जाता है।
प्राणि−जगत में ऐसे दृष्टान्त हैं जिनमें नर और मादा अलग−अलग न रहकर एक ही व्यक्तित्व में समाये हुए रहते है। केंचुए आदि निम्न जीव इसी श्रेणी के है वे न नर हैं न नारी। भोग के समय वे स्त्री और पुरुष दोनों के रूपों व्यवहार करते है। इससे भी नीची श्रेणी के जीवों में अमैथुनी प्रजनन का क्रम प्रचलित है अमीबा बैक्टीरिया आदि इसी वर्ग में आते है, वे अपनी काया को विखंडित करके नई पीढ़ियाँ उत्पन्न करते रहते है।
ऐसे मुर्गियाँ होती हैं जो बिना नर संयोग के अण्डे देती है। यद्यपि उन अण्डों से बच्चे नहीं निकलते,पर ऐसे भी पक्षी है जो बिना संभोग के सन्तान उत्पन्न करते है। कई मछलियां तथा कीड़े भी इसी प्रकार के होते है।
तर्क शास्त्र की पुस्तक ‘न्याय कुसुमाञ्जलि’ में भी सृष्टि का आरम्भ अर्मथुनि प्रजनन के रूप में हुआ सिद्ध किया गया है।
आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रन्थ सुश्रुत में उल्लेख हैँ कि बिना पुरुष संस्पर्श के मातृ गर्भ द्वारा मनुष्य का जन्म सम्भव है।
जीवों के क्रियोन्नति के पथ पर बहुत आगे चल लेने के उपरान्त जीवों में लिंग भेद उत्पन्न हुआ हैं। रति कर्म के लिए उपयुक्त अवयव,आधार तथा आकर्षण −आनन्द का विकास तो अभी भी केवल उच्चस्तर के प्राणियों में ही हैं। निम्न वर्ग के जीव तो ऐसे ही उदर क्षुधा के समय भोजन की तरह ही शरीर स्फुरता की यत्किंचित पूर्ति करते हुए गर्भ धारण और प्रजनन कार्य करते रहते हैं। इसमें उन्हें किसी विशेष आकर्षण की अनुभूति नहीं होती।
अमैथुनी प्रजनन प्रक्रिया को जीव विज्ञानी ‘पारथीनो जेनेसिस’ कहते है। यह स्वीकार किया जा चुका है कि वंश वृद्धि के लिए यौन सम्बन्ध अनिवार्य नहीं और प्राणि जगत में ऐसे भी दृष्टान्त हैं जहाँ दो जीवों के मिलने से एक नवीन जीव की उत्पत्ति होती है।
एडिनवटा विश्व विद्यालय के प्राध्यापक क्रयू महोदय का क थन है यौन आकर्षण का उद्देश्य मात्र वंश वृद्धि ही नहीं है उसके पीछे अनेक प्रकार के चुम्बकीय आधार भी काम करते हैं। प्राणी तत्ववेत्ता एलवार्डिस ने इसे और भी अधिक बल पूर्वक सिद्ध किया है कि वह मात्र सन्तानोत्पादन कर्म की प्रेरणा तक सीमित नहीं है।
यह तथ्य यह बताते है कि प्रत्येक मनुष्य हर दृष्टि से स्वावलंबी और परिपूर्ण है यहाँ तक कि प्रजनन प्रक्रिया की आवश्यकता पूरी करने की दोनों पक्षों में एकाकी क्षमता मौजूद है और वे बिना एक दूसरे की सहायता के भूतकाल में ऐसे उत्पादन करते रहे हैं और करते रह सकते हैं। ऐसी दशा में किसी को किसी का परावलम्बी मानने की आवश्यकता नहीं है।
अध्यात्म तत्व दर्शन की दृष्टि से आत्मा एक समान ही उसे नर या नारी के कलेवर में लपेटती है यदि वह उस रुझान को बदल दें तो अगले ही जन्म में उसका लिंग परिवर्तन हो सकता है। अधूरे उत्साह और संकल्प बल से लिंग परिवर्तन की आकाँक्षा करने वाले नपुँसक वर्ग के होते है। पर यदि वह आकाँक्षा तीव्र हो तो यह परिवर्तन सुनिश्चित हो जाता हैँ लिंग परिवर्तन के चिन्ह प्रकट होने पर आपरेशन द्वारा पूर्ण बदलाव होने के समाचार आये दिन समाचार पत्रों में छापते रहते है। वे यही बताते हैं कि नर और नारी जीवन की सामयिक अभिरुचि मात्र है जो आवश्यकतानुसार बदल भी जा सकती है। इस स्थिति में किस को छोटा या बड़ा समझने को पराश्रित या परावलम्बी मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।