• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सौभाग्य भरे क्षणों को तिरस्कृत न करें
    • स्वल्प साधन—कठिन मार्ग
    • सबसे बड़ी उपासना
    • आदर्श विहीन प्रगति हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेंगी
    • Quotation
    • रीति शक्ति का उपयोग और दीर्घ जीवन
    • Quotation
    • भीतरी का खोखलापन और सड़ी जडे
    • Quotation
    • सौंदर्य की कुँजी अपनी हाथ में है
    • और नारी में कोई छोटा बड़ा नहीं
    • VigyapanSuchana
    • काम प्रवृत्तियों का नियंत्रण परिष्कृत अन्तः चेतना से
    • संपत्तियां ही नहीं, विभूतियाँ भी कमायें
    • सत्यवादन घाटे का सौदा नहीं
    • Quotation
    • बड़े कार्य करें
    • पेट और अन्न एक दूसरे को कैसे आत्मसात् करते हैं
    • Quotation
    • सन्त एकनाथ (kahani)
    • भक्तों की दरिद्रता
    • Quotation
    • हृदय रोगों का कारण और निवारण
    • योग और उसकी उपयोगिता
    • रोग के साथ रोगी को भी मार डालना उचित न होगा
    • पीछे की ओर नहीं आगे की ओर देखकर चलें
    • बाहर खोजें या अन्दर तथ्य एक ही है
    • महामना मालवीय जी (kahani)
    • VigyapanSuchana
    • गायत्री विद्या के अमूल्य ग्रन्थरत्न
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सौभाग्य भरे क्षणों को तिरस्कृत न करें
    • स्वल्प साधन—कठिन मार्ग
    • सबसे बड़ी उपासना
    • आदर्श विहीन प्रगति हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेंगी
    • Quotation
    • रीति शक्ति का उपयोग और दीर्घ जीवन
    • Quotation
    • भीतरी का खोखलापन और सड़ी जडे
    • Quotation
    • सौंदर्य की कुँजी अपनी हाथ में है
    • और नारी में कोई छोटा बड़ा नहीं
    • VigyapanSuchana
    • काम प्रवृत्तियों का नियंत्रण परिष्कृत अन्तः चेतना से
    • संपत्तियां ही नहीं, विभूतियाँ भी कमायें
    • सत्यवादन घाटे का सौदा नहीं
    • Quotation
    • बड़े कार्य करें
    • पेट और अन्न एक दूसरे को कैसे आत्मसात् करते हैं
    • Quotation
    • सन्त एकनाथ (kahani)
    • भक्तों की दरिद्रता
    • Quotation
    • हृदय रोगों का कारण और निवारण
    • योग और उसकी उपयोगिता
    • रोग के साथ रोगी को भी मार डालना उचित न होगा
    • पीछे की ओर नहीं आगे की ओर देखकर चलें
    • बाहर खोजें या अन्दर तथ्य एक ही है
    • महामना मालवीय जी (kahani)
    • VigyapanSuchana
    • गायत्री विद्या के अमूल्य ग्रन्थरत्न
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


संपत्तियां ही नहीं, विभूतियाँ भी कमायें

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 13 15 Last
जीवन में धन संपत्ति की कमाई का भी महत्व है पर उतना ही जिससे शरीर यात्रा का आवश्यक निर्वाह होता रहे—अथवा पारिवारिक उत्तरदायित्वों को उस स्तर पर पूरा किया जा सके जिसमें अपने देश के औसत निवासी को गुजर करनी पड़ती है। भौतिक कमाई के लिए इस सीमा के अंतर्गत जो चेष्टाएँ की जाती हैं उनका औचित्य है। जिस शरीर के उपकरण से जीवन यात्रा चलानी है उसे पोषण तो देना ही चाहिए और जिस परिवार के साथ हमारे कर्तव्य उत्तरदायित्व जुड़े हैं उसका निर्वाह भी चलना ही चाहिए।

शरीर जब तक है तब तक ही भौतिक कमाई का उपयोग है। शरीर ही इस उपार्जन का उपयोग करता है। किन्तु जीवन इतने में ही समाप्त नहीं हो जाता, वह तो अनन्त है, आगे भी चलने वाला है। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार कल−परसों की शारीरिक आवश्यकताऐं पूरी करने के लिए आज से ही कुछ कमाने और बचाने की चिन्ता है, वैसी ही चेष्टा अनन्त जीवन की लम्बी अवधि में काम आने वाली कुछ सामग्री संचित की जानी चाहिए। यदि आत्मा की यात्रा का महत्व ही न समझें और उसे शान्ति पूर्वक गतिशीलता रहने के लिए आवश्यक साधन जुटाने की उपेक्षा करें तो यह भयंकर भूल होगी। शरीर सुविधा के साधन जुटाने में अहिर्निशि जुटे रहें। जो काया कल−परसों नष्ट होने वाली है उसकी तत्कालीन सुविधाओं का संचय हमें आवश्यक प्रतीत हो और आत्मा की लम्बी यात्रा के साधन जुटाने में उपेक्षा बरती जाय तो इसे अदूरदर्शिता पूर्ण ही कहा जायगा।

मृत्यु के उपरान्त जीवन समाप्त नहीं हो जाता यह सुनिश्चित है। उसके बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है उसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं। शरीर त्यागने के बाद आत्मा खाली हाथ नहीं जाता वरन् उसके साथ भी बहुत सी सूक्ष्म वस्तुएँ चली जाती हैं। वन, परिवार, पद, वैभव जैसी भौतिक वस्तुएँ जहाँ की तहाँ रह जाती हैं, वे आत्मा के साथ नहीं जातीं। शरीर भी गल या जल कर ऐसे ही समाप्त हो जाता है। मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अंग है। सरकस के नट जिस प्रकार हाथ पैरों को कई तरह की कलाबाजी दिखाने के लिए प्रशिक्षित कर लेते है उसी प्रकार को भी शिक्षा−शिल्प अथवा कलाकौशल में प्रवीण बना लिया जाता है। जिस प्रकार मरने के बाद शरीर के अन्य अंग यही नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मस्तिष्क और उसका शिक्षा कौशल भी जीवन लीला समाप्त होने के साथ ही नष्ट हो जाता है।

अनन्त जीवन के साथ रहने वाली वस्तुओं में ‘संस्कार’ ही मुख्य है। संस्कार अर्थात् अन्तःकरण में जमी हुई प्रगाढ़ आस्थाएँ और परिपक्व आदतें। जीव की चेतन सत्ता के साथ यह संस्कार ही सघन रूप से इतने घुले मिले रहते हैं कि उन्हें अस्तित्व का एक अंग ही कहा जा सके। यह संस्कार ही आगामी जन्म के आधार होते हैं। इसी परिपक्व प्रकृति की दिशा में आत्मा की लालसा भटकती है तदनुरूप उसका प्रचण्ड चुम्बकत्व लगभग उसी स्तर की परिस्थितियों में—उसी स्तर की काया में जन्म ग्रहण कर लेता हैं। आत्मा स्वसंचालित यन्त्र की तरह हैं। उसके भीतर ही वह व्यवस्था मौजूद है जो अपने भाग्य एवं भविष्य का निर्धारण स्वयं कर सके। इसके लिए किसी अन्य द्वारा दण्ड पुरस्कार देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

कहा जाता है कि मरने के बाद चित्रगुप्त के दरबार में जीव को उपस्थित होना पड़ता है। वहाँ उसके कर्मफल का लेखा−जोखा लेकर तदनुसार स्वर्ग−नरक को—पुनर्जन्म की व्यवस्था की जाती है। यह चित्रगुप्त का दरबार कहीं अन्यत्र नहीं अपने ही अन्तःकरण में विद्यमान है। हमारी आस्थाएँ—आकाँक्षाऐं एवं गतिविधियाँ जिस दिशा में चलती है जो सोचती है और करती हैं उनका सार तत्व अन्तःकरण के भीतरी पर्त पर जमा होता रहता है। इन्हीं को कर्म बीज कहते हैं, इन्हीं को संस्कार कहा जाता। वे अपने स्थान पर सुरक्षित भण्डार की तरह जमा होते रहते हैं। मरण के उपरान्त अनुकूल अवसर पाते ही वे संस्कार उभर आते है और उनकी प्रतिक्रिया सहज ही सामने आती चली जाती है।

जीवित अवस्था में चिन्तनशील जागृत मस्तिष्क अपने विचार−प्रवाह में बहता रहता है। शरीरगत क्रिया−कलापों की स्नायविक उत्तेजना भी चेतना पर छाई रहती है। इस दबाव से मूल संस्कार अचेतन मनः क्षेत्र में दबे पड़ें रहते हैं। तब उन्हें उतना अधिक उभरने का अवसर नहीं मिलता, थोड़ा बहुत जो मिलता है, उसके अनुसार तत्काल कर्मफल भी मिलने लगते हैं।

आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से कितने ही शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते है यह वैज्ञानिक तथ्य अब भली प्रकार स्पष्ट हो गया है। आधे से अधिक बीमारियाँ ऐसी होती हैं, जिनकी चिकित्सा दबा−दारु के द्वारा सम्भव ही नहीं होतीं। उनका निवारण केवल आन्तरिक कुसंस्कारों के निराकरण से ही सम्भव होता है। असाध्य समझे जाने वाले शारीरिक और मानसिक रोगों की सूची अब दिन−दिन लम्बी होती जाती है। इनका निवारण कर सकने में चिकित्सा विज्ञानी अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं, क्योंकि अन्तःकरण के गहन स्तर में जमे हुए उन कुसंस्कारों को पकड़ना—उखाड़ना उनके साधनों में नहीं आता, जो उन असाध्य रोगों के करण कारण बने होते हैं।

इसी प्रकार जीवन में अन्यान्य कष्टकर परिस्थितियाँ इन्हीं कुसंस्कारों के करण उपस्थिति होती रहती है। चोरी की आदत के कारण लोक सम्मान चला जाना, जेल भुगतना और सहयोग से वंचित हो जाना कितना कष्टकारक और कितना प्रगति बाधक होता है? इसे भुक्त भोगी भली प्रकार जानते हैं। सामान्य कामों में भी पग−पग पर असफलताएँ मिलना अस्थिर चित का ही प्रतिफल होता है यह अस्थिरता अनायास ही पीछे नहीं पड़ जाती वरन् संचित कुसंस्कारों की एक व्यवस्थित प्रतिक्रिया ही होती है। ऐसे−ऐसे कितने ही अवरोध और संकट जीवन−क्रम में आये दिन उपस्थित होते रहते हैं जिन्हें अपने ही अन्तःकरण में संचित कुसंस्कारों की प्रतिक्रिया कह सकते हैं।

चेहरे में आकर्षण, वाणी में अभाव, आँखों में चमक, कार्यों में स्फूर्ति जैसी कितनी ही विशेषताओं का यदि विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह सारी विशेषताएँ संचित सुसंस्कारों का ही फल हैं वे ही हमें निष्कृष्ट परिस्थितियों में धकेलते हैं और वे ही प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचा देने वाले साधन जुटाते हैं।

यह तो जीवित अवस्था की बात हुई। संस्कारों का प्रभाव व्यक्तित्व के उत्कृष्ट एवं निष्कृष्ट स्तर में समाविष्ट देखा जा सकता है और उनके आधार पर उत्थान−पतन का आधार बनता हुआ अनुभव किया जा सकता है। मरणोत्तर जीवन में यही संस्कार—सम्पदा साथ रहती है शरीर और मस्तिष्क का तनाव दबाव हल्का पड़ते ही यह संस्कार उभरते है और प्राणी को स्वर्ग एवं नरक जैसे दृश्य दिखाते हैं—अनुभव कराते हैं। अपना स्वर्ग−नरक हम विकसित होकर अंकुर एवं पौधें की स्थिति प्राप्त होती है। तो मृतात्मा अनुभव करता है कि उसे कुसंस्कारों का दण्ड और सुसंस्कारों का पुरस्कार मिल रहा है। नरक और स्वर्ग की अनुभूतियों का आधार यही होता है।

पुनर्जन्म कहाँ मिले? किस प्रकार के परिवार में अथवा कैसे वातावरण में जन्म मिलें? इसकी व्यवस्था भी अपना ही स्वसंचालित चेतना यन्त्र संस्थान स्वयं ही कर लेता है। इसके लिए अन्य किसी बाहरी न्यायाधीश या नियन्त्रणकर्ता की आवश्यकता नहीं पड़ती! इतने अधिक प्राणियों के—इतने अधिक कर्मों का लेखा−जोखा रखना और उनके लिए दण्ड, पुरस्कार, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि की व्यवस्था करना अन्य किसी बाहरी व्यवस्थापक के लिए सम्भव नहीं है। यह सारा कार्य अपनी ही अन्तः चेतना निपटाती है मरने के बाद तर्क−बुद्धि समाप्त हो जाती है। भीतर कुछ बाहर कुछ का झंझट नहीं रहता। भले या बुरे जैसे भी कुछ संस्कार जमें होते हैं उन्हीं के अनुरूप आकांक्षाएं उभरती है और उभार का आकर्षण अभीष्ट परिस्थितियों के साथ पुनर्जन्म का ताल−मेल बिठा देता है। जीवित मनुष्य में दुहरा व्यक्तित्व रहता है। उसकी आकांक्षा कुछ और रहें और व्यक्ति कुछ और करे यह सम्भव है पर मरणोत्तर काल में वह स्थिति नहीं रहती। इसलिए यदि निष्कृष्ट संस्कार जमें होंगे तो निष्कृष्ट व्यक्तियों अथवा निष्कृष्ट परिस्थितियों की ओर ही खिंचाव रहेगा और जीव उसी वातावरण में उसी स्तर के शरीर में जन्म ग्रहण कर लेगा। तर्क−बुद्धि रहती तो शायद वह निष्कृष्ट संस्कारों के कारण मिलने वाली निष्कृष्ट परिस्थितियों की हानि भी सोचता और अपने स्वाभाविक स्तर से भिन्न प्रकार की उत्कृष्ट परिस्थिति में जन्म लेने की चेष्टा करता, पर स्थिति में वैसा सम्भव नहीं रहता। एक ही व्यक्तियों—एक ही रुचि—एक ही चेष्टा का वर्चस्व इन दिनों रहता है। भौंरा फूल पर जर बैठता है और गुबरीला कीड़ा गोबर तलाश करता है। इसके लिए न उसे किसी की सलाह लेनी पड़ती है और न कोई जोर जबरदस्ती करता है। वे कीड़े अपनी प्रकृति के अनुरूप ही परिस्थिति ढूंढ़ लेते हैं और वहाँ जाकर सन्तोष करते हैं। ठीक इसी प्रकार अन्तः चेतना अपने संचित संस्कारों के अनुरूप जन्म ग्रहण कर लेती है। इसमें रहने से सुख मिला या दुख यह तो तब पता चलता है जब जिस योनि में जन्म लिया गया है उसमें रहने के बाद दूसरे प्राणियों के साथ अपनी तुलना कर सकने की बुद्धि विकसित होती है।

अगले जन्म का स्थान शरीर, वातावरण बनाकर ही वे संस्कार समाप्त नहीं हो जाते वरन् उस जन्म में अनेकानेक प्रेरणाओं, आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन भी वे ही करते है। यदि वह संचालन हेय स्तर का ही रहा होगा तो उस प्राणी को उसकी प्रतिक्रिया नाना प्रकार के कष्ट संकटों के रूप में भुगतनी पड़ेगी यदि वह सूक्ष्म संचालन श्रेष्ठ स्तर का हो रहा होगा तो उस जीव को सुखद एवं सुसम्पन्न परिस्थितियों का लाभ मिल रहा होगा। पतित एवं उत्कृष्ट निन्दित एवं सम्मानास्पद—दरिद्र एवं समुन्नत—दुखी एवं प्रसन्न रखने वाली परिस्थितियों का कारण यही अदृश्य आंतरिक सूत्र संचालन ही होता है जिसे दूसरे शब्दों में “समुच्चय” भी कह सकते हैं।

असल में ये संस्कार ही व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होते हैं। उन्हीं को प्रारब्ध, विधि का विधान, ईश्वर इच्छा, कर्मफल आदि की गहन पृष्ठ भूमि कह सकते हैं हमारे ऊपर कोई बाहरी शक्ति कुछ थोपती नहीं है। इस संबंध में ईश्वर भी निस्पृह है। उसे अथवा साक्षी इसलिए कहा गया है कि वह किसी की प्रगति, अवनति में सहायक अथवा बाधक नहीं होता। एक व्यवस्था उनकी बना दी। स्वसंचालित चेतना यन्त्र फिट कर दिया अब उसका उत्तरदायित्व समाप्त हो गया। प्राणी अपने स्वतन्त्र कर्तव्य के आधार पर उठते गिरते है और सुख−दुख सहन करते हैं। कुछ भी कर गुजरने की छूट मनुष्य को पूरी तरह दी गई है, पर साथ ही प्रतिफल एवं प्रतिक्रिया भुगतने के लिए उसे बाध्य विवश कर दिया गया है। ईश्वरीय न्याय, कर्मफल, स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म विधि−विधान, प्रारब्ध योग आदि अदृश्य जगत के प्रतिपादनों का यदि रहस्योद्घाटन करना हो तो उसका समाधान इस संस्कार संचय के केन्द्रबिन्दु में ही सन्निहित दृष्टिगोचर होगा।

भविष्य को उज्ज्वल एवं अन्धकारमय बनाने वाले इन सुसंस्कारों एवं कुसंस्कारों का संचय पूर्णतया अपने हाथ की बात है। इनका संचय हम अपनी आज की आस्थाओं आकाँक्षाओं एवं क्रिया−पद्धति में सुधार करके सहज ही किया जा सकता है। यह भली प्रकार समझ लिया जाना चाहिए कि धोखा बाहर वालों को दिया जा सकता है अपने आपको नहीं। दुहरी चाल अन्य लोगों से चली जा सकती है अपने आपे को भुलाया नहीं जा सकता। मूल अन्तः चेतना का जो स्तर होगा ठीक उसी के अनुरूप संस्कारों का फोटोग्राफ खिंचेगा। दुष्प्रवृत्तियों में निरत रहकर अन्तः चेतना में सुसंस्कारों के पर्त जमाये जा सकें यह किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता वहाँ सत्य का ही निर्वाह होता है। चालाकी और किसी के भी साथ की जा सकती है अपने आपे को ठग सकना और उसे उलटी पट्टी पढ़ा सकना किसी के लिए भी शक्य नहीं है। सत्य रूपी नारायण का अन्तःकरण पर अविछिन्न आधिपत्य है। वहाँ यथार्थता के अतिरिक्त और किसी नीति का प्रवेश नहीं हो सकता। सुखदायी संस्कारों को संचय करना हो तो अपने आस्था केन्द्र को उच्चस्तरीय आदर्शों से ओत−प्रोत करना होगा। उसी स्तर की आस्थाएँ, भावनाएँ नये सिरे से जमानी पड़ेगी। इसके लिए पुराने कुसंस्कारों को उखाड़ना पड़ेगा। उन्हें हटाकर रिक्त हुए स्थान पर ही तो सुसंस्कारों का बीजारोपण किया जा सकेगा।

लोह और मोह की पशु−प्रवृत्तियों से हमारी अन्तः 26 अखिल 26 चेतना घिरी हुई है। वासना और तृष्णा की शरीरगत लिप्साओं से आगे की किसी बात में अपनी रुचि है ही नहीं। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। भौतिक दृष्टि से दूसरों की तुलना में बड़े बनने की अहंता ही उद्धत कर्म करती है। इन्हीं उलझनों में चिन्तन और कर्म में निरत रहते है। इन हलचलों के जो संस्कार अन्तः चेतना पर जमेंगे वे निश्चित रूप से आसुरी ही होंगे। उनका प्रति फल उस जीवन में एवं मरणोत्तर काल में दुखदायी विपत्तियों की ही वर्षा करेगा। अपनी करनी का फल हमें भुगतना ही पड़ेगा, भले ही उन संकटों का दोष किसी दूसरे पर मढ़ते हुए हम आत्म प्रवंचना करते है।

शरीर की सामयिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाली सम्पदा को कमाना उचित है पर सुसंस्कारों की विभूतियों की उपेक्षा करना अदूरदर्शिता पूर्ण है वर्तमान काया तो कुछ भी समय ठहरने वाली है अनन्त जीवन तो जीवात्मा को ही जीना पड़ेगा। उसमें केवल सुसंस्कारों की पूँजी ही काम देगी। धन वैभव के खोटे सिक्के उस यात्रा में किसी भी प्रकार सहायक सिद्ध न हो सकेंगे

सुसंस्कार किसी पूजा पाठ या कर्मकाण्ड से नहीं जम सकते। कथा-कीर्तन से लेकर तीर्थयात्रा तक के क्रिया कृत्यों से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। योगाभ्यास और तप साधना की शारीरिक, मानसिक कसरतें भी उस आवश्यकता की पूर्ति नहीं करती। इन समस्त आचरणों का मूल उद्देश्य एक ही है उच्चस्तरीय आस्थाओं, आकाँक्षाओं, आदर्शों की अन्तःकरण में इतनी सघन स्थापना जिसकी प्रेरणा से अपनी गतिविधियाँ केवल श्रेष्ठ सत्कर्मों की दिशा में ही गतिशील रह सकें। इस प्रयोजन को जीवन साधना से ही पूरा किया जा सकता है। निरन्तर सत्-चिन्तन और श्रेष्ठ कर्मों के साथ अपने को बाँधे रहकर ही हम सुसंस्कारों की सम्पत्ति उपार्जित कर सकते है और उस आधार पर अपने उज्ज्वल भविष्य का सुखद निर्माण कर सकने में सफल हो सकते है।

First 13 15 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सौभाग्य भरे क्षणों को तिरस्कृत न करें
  • स्वल्प साधन—कठिन मार्ग
  • सबसे बड़ी उपासना
  • आदर्श विहीन प्रगति हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेंगी
  • Quotation
  • रीति शक्ति का उपयोग और दीर्घ जीवन
  • Quotation
  • भीतरी का खोखलापन और सड़ी जडे
  • Quotation
  • सौंदर्य की कुँजी अपनी हाथ में है
  • और नारी में कोई छोटा बड़ा नहीं
  • VigyapanSuchana
  • काम प्रवृत्तियों का नियंत्रण परिष्कृत अन्तः चेतना से
  • संपत्तियां ही नहीं, विभूतियाँ भी कमायें
  • सत्यवादन घाटे का सौदा नहीं
  • Quotation
  • बड़े कार्य करें
  • पेट और अन्न एक दूसरे को कैसे आत्मसात् करते हैं
  • Quotation
  • सन्त एकनाथ (kahani)
  • भक्तों की दरिद्रता
  • Quotation
  • हृदय रोगों का कारण और निवारण
  • योग और उसकी उपयोगिता
  • रोग के साथ रोगी को भी मार डालना उचित न होगा
  • पीछे की ओर नहीं आगे की ओर देखकर चलें
  • बाहर खोजें या अन्दर तथ्य एक ही है
  • महामना मालवीय जी (kahani)
  • VigyapanSuchana
  • गायत्री विद्या के अमूल्य ग्रन्थरत्न
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj