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Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
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सन्त एकनाथ (kahani)

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First 19 21 Last
सन्त एकनाथ के पिता का श्राद्ध दिन था। उस दिन बहुत से पकवान , मिष्ठान  और स्वादिष्ट व्यंजन बने। व्यंजनों की महक मुहल्ले भर में फैल रही थी। पड़ोस में अछूता के घर थे। उनके बच्चों ने व्यंजनों की चर्चा सुनी तो उन्हें पाने के लिए लालायित हो गये। आपस में कहने लगे—हमारे भाग्य में यदि ऐसे ब्राह्मण होना बदा होता तो हम भी इन व्यंजनों को पाते।

एकनाथ ने वह चर्चा सुन ली। उनसे रहा न गया और तत्काल दौड़ते हुए गये, जाकर सब अछूत बच्चों को लिवा लाये और उन्हें ब्राह्मणों के स्थान पर बिठाकर आदर पूर्वक भोजन करा दिया।

स्पष्ट था कि निमन्त्रित ब्राह्मण यह सहन न करेंगे कि उनसे पहले ही अछूतों को भोजन करा दिया जाय। सो सन्त ने दुबारा अलग से रसोई बनवाई और आमन्त्रित ब्रह्मदेवों को सम्मान सहित नियत समय पर बुलाया।

पर चर्चा तो पहले ही फैल चुकी थी कि ब्राह्मणों के आने से पूर्व ही अछूत बालक भोजन कर चुके हैं। सो निमन्त्रित ब्राह्मणों में से कोई आने को तैयार न हुआ, सभी ने इसे अपना अपमान माना और जाने से इनकार कर दिया।

ब्रह्मभोज न हो तो श्राद्ध पूरा कैसे हो? पितरों की हव्य−कव्य कैसे मिले? असमंजस में सारा एकनाथ परिवार डूबा बैठा था।

पूजा में प्रतिष्ठापित भगवान् ने यह देखा सो वे बोल ही पड़े। ब्रह्मभोज तो पहले ही हो चुका। यदि पितरों को ही खिलाना है तो स्वयं उपस्थित होंगे। उनकी थाली लगाओ न।

थाली लगाई गई। सभी पितर सूक्ष्म शरीर से आये और अपना भाग ग्रहण करके प्रसन्नता पूर्वक वापिस चले गये। अछूत बालकों के रूप में असली ब्राह्मणों को समय से पूर्व ही भोजन करा देने की उन्हें प्रसन्नता थी—अप्रसन्नता नहीं।

First 19 21 Last


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