
काम प्रवृत्तियों का नियंत्रण परिष्कृत अन्तः चेतना से
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भारतीय तत्व वेत्ताओं ने कामोत्तेजना को मनोजमनसिज आदि नाम देकर बहुत पहले ही यह स्वीकार कर लिया था कि यह उद्वेग शारीरिक हलचल नहीं मानसिक उभार है। यदि मन पर नियंत्रण किया जा सके− उसे ईश्वर भक्ति,कला,साधना एवं आदर्श, निष्ठा में नियोजित किया जा सके तो युवावस्था में भी शरीर और मन से ब्रह्मचारी रहा जा सकता है। इसके विपरीत यदि शारीरिक नियन्त्रण तो निभाया जाय पर मानसिक उत्तेजना उभरती रहे तो ब्रह्मचर्य का वह लाभ न मिल सकेगा जैसा कि साधन ग्रन्थों में उसका महात्म्य बताया गया है। दृष्टि कोण में परिवर्तन ही इन्द्रिय का प्रधान आधार है। आहार−विहार के संयम से तो उसमें थोड़ी सी सहायता भर मिलती है।
आमतौर से यह समझा जाता है कि सुन्दरता या परिपुष्ट स्थिति के नर नारी अधिक काम तृप्ति करते होंगे एवं वैज्ञानिक तथ्यों के विपरीत है। मनुष्य की चेतनात्मक विद्युत शक्ति ही कामोत्तेजना उत्पन्न करती है और उसी की प्रबलता से यौन−तृप्ति एवं उत्कृष्ट प्रजनन का सम्बन्ध रहता है भ्रम अब दूर होता चला जा रहा है कि शरीर गठन का कामोल्लास से सीधा सम्बन्ध सम्बन्ध है। वह जिस आयु में भी − जिस मात्रा में उल्लसित रहेगी उसी स्थिति में कामोद्वेग उठते रहेंगे और तृप्ति तथा प्रजनन की सफलता भी उसी अनुपात से सामने आती रहेगी।
भूमध्य भाग में अवस्थित पिट्यूटरी ग्रन्थि एक विशेष प्रकार के हारमोन उत्पन्न करती है, जो कामोत्तेजना की वृद्धि तथा यौन अवयवों की परिपुष्टि करते हैं। विशेषज्ञ हर्मन्शन का कथन है ‘कामुकता को भावुकता का ऐसा आवेश कह सकते हैं जिसे प्रजनन हारमोनों की प्रबलता उत्पन्न करती है’। इसी आधार पर लोगों में न्यूनाधिक कामोत्तेजना पाई जाती है। हो सकता है कि कोई पूर्ण स्वस्थ पूर्ण भी हो, इसके विपरीत दुर्बल शरीर में कही आवेश अनियन्त्रित स्थिति में उभर रहा हो।
शिकागो मनोविश्लेषण संस्थान के डा. थेरेसी वेनेडेक्र तथा जीव रसायन शास्त्री डा0 स्टीन ने मासिक धर्म को जल्दी तथा देरी का,न्यूनता तथा अधिकता से होना हारमोन स्राव के साथ अति घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ बताया है। रजोदर्शन के कुछ पहले से लेकर कुछ दिन पश्चात तक नारी प्रवृत्ति में आमतौर से भावुकता और उत्तेजना बढ़ जाती है। दिनों वे अधिक चंचल होती है। या तो यौन उत्तेजना की बात सोचती है या फिर खीज, झुझलाहट अथवा आक्रोश प्रकट करती है। गृह कलह प्रायः इन्हीं दिनों अधिक होता है। महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अपराधों में तीन चौथाई इन्हीं दिनों होते हैं।
मेडिकल न्यूज ट्रिव्यून नामक लन्दन से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पत्र डा0एन0एन जोफरी का एक अन्वेषण लेख छापा हैं जिसमें उन्हें प्रकाश और उष्णता के प्रभाव से जल्दी यौवन उभर आने का उल्लेख किया। कई जीवों को गरम और प्रकाश के वातावरण में रखने पर उनमें युवावस्था जल्दी उभरी।
ब्रिटेन के एक दूसरे साप्ताहिक पत्र ‘लान्सेट’ में यह विवरण प्रकाशित हुआ है कि इंग्लैंड का तापमान क्रमशः बढ़ रहा है अब वहाँ पहले जितनी ठण्ड नहीं पड़ती। फलस्वरूप लड़कियाँ जल्दी रजस्वला होने लगी है और लड़कर हर वर्ष में चार मास पहले रजस्वला होने लगी है इसी प्रकार संतानोत्पादन समर्थता भी पहले की अपेक्षा अब कम आयु में परिपुष्ट होने लगी है।
आहार−विहार और वातावरण की गर्मी बढ़ जाने से नर −नारियों में काम प्रवृत्ति तीव्र होने की मान्यता पुरानी हो गई। अब शरीर शास्त्री इस नये निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उत्तेजनात्मक चिन्तन से जो मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह उमड़ते हैं वे ही यौन लिप्सा में मनुष्य को बलात् प्रवृत्त करते है। यह विद्युत धारा घटाई भी जा सकती है और बढ़ाई भी। तदनुसार संयम और असंयम के लिए पृष्ठभूमि अपने ही प्रयास से बन सकती है। इसके लिए सोचने का तरीका बदलने भर से काम नहीं चलता हारमोन प्रवाह क की रोकथाम कर सकने वाली अन्तःचेतना का बलिष्ठ होना भी आवश्यक है। जो योगाभ्यास जैसे उपायों से ही सम्भव है। यह उमंगे श्रृंगार रस का वातावरण बनाने से उठती है किन्तु मुख्यतया वे उस अन्तः चेतना पर निर्भर हैं, जिन्हें हारमोन स्राव का जन्मदाता कहा जा सकता हैं।
पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने में भी उस आवेश विद्युत का ही प्रधान हाथ रहता है। सामान्यतया शु्रक कीटाणुओं और रज अण्ड की स्थिति को गर्भ धारण के लिए उत्तरदायी माना जाता है और यह कहा जाता है कि पुत्र जन्म के लिए और कन्या जन्म के लिए अलग अलग कीटाणुओं का हाथ रहता हैं।
शरीर शास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि नर के शुक्राणुओं में मादा और नर जाति के जीवाणु पाये जाते हैं जबकि नारी रज में केवल एक ही प्रकार के नारी जाति के जीवाणु रहते हैं। इन दोनों के मिलने से गर्भ बीज सफल हुआ तो लड़की की और यदि उसका नर बीज सफल हुआ तो लड़के के की उत्पत्ति होती है। मोआ सिद्धान्त सभी प्राणियों में यही लागू होता है इसलिए कन्या या पुत्र की उत्पत्ति के लिए नर शरीर को ही उत्पत्ति के लिए नर शरीर को ही उत्तरदायी माना जाता है। इस संदर्भ में नारी सर्वथा निष्पक्ष निर्दोष है।
शु्रक में उभयपक्षीय जीवाणुओं में से एक वर्ग को यदि निष्क्रिय बनाया जा सके तो संतान अभीष्ट लिंग की उत्पन्न हो सकती है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ऐसी औषधियों की खोज बहुत दिन तक चली जिनके आधार पर एक पक्ष के जीवाणु मूर्छित बनाये जा सके। इन प्रयोगों में सफलता न मिलने ने रतिक्रिया के समय प्रयुक्त हो सकने वाले ऐसे रसायन तैयार कि ये जो एक वर्ग के जीवाणुओं को मूर्छित कर सकें पर यह प्रयोग
भी असफल ही रहा।
रूपी महिला वैज्ञानिक वी0एन0श्रोडर ने अपने साथी एन0के कोलस्तोव की सहायता से यह अन्वेषण किया कि बौर्य बीज बिजली की ऋण और धन धाराओं से प्रभावित होते है। शरीर में यदि एक वर्ग को ही बिजली कहें तो एक वर्ग के शुक्र बीज विशेष रूप से उत्तेजित होंगे और दूसरे वर्ग के मन्द स्थिति में पड़े रहेंगे। धन बिघु नर बीजों को और दूसरे वर्ग के मन्द स्थिति में पड़े रहेंगे। धन विद्युत नर बीजों को और ऋण धारा नारी बीजों को उत्तेजित करती हैं। उन्होंने ‘एलेक्ट्री फोटेसिस’ कर सहायता से बीजाणुओं का पृथक्करण करके खरगोशों से संतानोत्पादन कराया परिणाम आशाजनक रहा।
इंग्लैंड के शेरीलेवीन और अमेरिका के मेनुयल गोडिन ने भी इस दिशा में प्रयोग किये। वे पूर्ण सफलता तक तो नहीं पहुँचे पर यह प्रतिपादन पूर्ण विश्वास के साथ व्यक्त कर सकें कि निकट भविष्य में अभीष्ट लिंग की सन्तान उत्पन्न कर सकना सम्भव हो जाय हो ऐसे आधार हाथ लग गये हैं।
उपरोक्त प्रतिपादन यह सिद्ध करते हैं कि शुक्राणुओं में से किस वर्ग के कीटक प्रबल होंगे और किस लिंग का बालक जन्म देंगे इसकी बागडोर उन कीटाणुओं की संरचना में रहने वाली रासायनिक विशेषता पर निर्भर नहीं है वरन् उस विद्युत प्रवाह पर निर्भर है जो अमुक वर्ग के कीटाणुओं को उत्तेजित करती है। अब औषधि सेवन कराके नपुँसक का पौरुवान बनाने की बात व्यर्थ माना जाती है और इसी प्रकार उन औषधियों का झुठला दिया गया है कि जो पुत्र या कन्या उत्पन्न कराने का दावा करती हैं। आधुनिक तम मान्यता यह है कि मानव शरीर अन्तः क्षेत्र में प्रवाहित रहने वाली विद्युत शक्ति का स्तर डडडड नारी का रज का न केवल गर्भाधान की स्थिति में लाता है वरन् उसी पर पुत्र या कन्या का जन्म भी निर्भर है।
कोलम्बिया विश्व विद्यालय के प्रसूति शास्त्र के अध्यापक डा0 लंड्रस शेटल्स ने एक हजार मनुष्यों के शुक्राणु संग्रह करके उन पर विभिन्न प्रकार के परीक्षण किये। वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि क्रोसोसा कणों कणों का विद्युत धारा द्वारा इस स्तर तक प्रभावित किया जा सकता है कि उनसे इच्छित लिंग की सन्तान पैदा कराई जा सके।
फ्लैडलफिया मेडिकल सेन्टर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अधिक मात्रा में और अधिक सक्षम जीवाणुओं की उत्पत्ति कामोत्तेजना की मन्द अथवा तीव्र स्थिति पर निर्भर है अन्य मनस्क मनःस्थिति में हुए संयोग से उत्पादन जीवाणु भी निष्क्रिय और निस्तेज ही पाये गये हैं। ऐसे निस्तेज निराश गर्भाधान से मनस्वी और प्रतिभाशाली बालक उत्पन्न नहीं हो सकते।
अधिक संख्या में सन्तानोत्पादन शरीर की रासायनिक स्थिति पर निर्भर नहीं है वरन् हारमोन उत्तेजना से सम्बन्धित है। रासायनिक दृष्टि से जिस स्थिति का एक शरीर बन्ध्यस्य ग्रस्त होगा उसी स्थिति का दूसरा शरीर बहु प्रजनन की अति भी कर सकता है। ऐसे शरीरों का विश्लेषण करने पर उनके आन्तरिक विद्युत प्रवाह को ही उस भिन्नता के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।