• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • हमारा भविष्य अन्धकारमय नहीं हैं
    • Quotation
    • बुद्धिमत्ता और मूर्खता की कसौटी
    • आत्म और शरीर की भिन्नता जानें ही नहीं माने भी
    • सन्त चिदम्बर (kahani)
    • यथार्थवादी बनें-संकल्पबल प्रखर करें
    • ब्रह्माण्डव्यापी तथ्य जिनका जीवन में भी स्थान है
    • दूरदर्शी नीतिमत्ता (kahani)
    • नया! स्वर्गलोक बनेगा और वहाँ जाने का रास्ता भी
    • परावलम्बन छोड़ें आत्मावलंबन अपनायें
    • धर्म—आदर्शवादिता और एकता का प्रतीक बने!
    • सूखा आसमान भी बरस सकता है
    • जीवनसत्ता जड़ प्रकृति प्रतिक्रिया नहीं हैं
    • सन्तोष की बात (kahani)
    • मनुष्य पूर्वजों के ढांचे में ढला खिलौना मात्र नहीं
    • माँसाहार से लाभ कुछ नहीं हानि बहुत हैं
    • न हर्षोन्मत्त हों न अधीर होकर रोयें कलपें
    • निरंकुश बुद्धिवाद हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेगा
    • आकाश पर विजय किन्तु हृदयाकाश में पराजय
    • मनुष्य तो मकड़ी से भी पिछड़ा हुआ है
    • Quotation
    • आवेशग्रस्त मनःस्थिति दुर्बलता की निशानी है
    • सम्पन्नता ही नहीं−शालीनता भी बढ़ाई जाय
    • इन प्रयोजनों में तो चूहा भी मनुष्य से आगे है
    • ऊँचा उठें तो बहुत कुछ मिले
    • राज्य नाशवान है पर सन्त अविनाशी (kahani)
    • छोटे भी जीवित रहेंगे ही
    • शिवलिंग प्रतिमा की प्रबल प्रेरणा
    • बुद्धिमान और दूरदर्शी (kahani)
    • ज्योतिर्विज्ञान का दुर्भाग्यपूर्ण दुरुपयोग
    • क्रूरता को सौजन्य जीत सकता है
    • ध्यानयोग−चरम आत्मोत्कर्ष की साधना
    • कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को झुठलाना (kahani)
    • अपनों से अपनी बात - वाणी सत्र के बाद—लेखनी सत्र
    • अगले प्रत्यावर्तन तथा संगीत सत्र
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • हमारा भविष्य अन्धकारमय नहीं हैं
    • Quotation
    • बुद्धिमत्ता और मूर्खता की कसौटी
    • आत्म और शरीर की भिन्नता जानें ही नहीं माने भी
    • सन्त चिदम्बर (kahani)
    • यथार्थवादी बनें-संकल्पबल प्रखर करें
    • ब्रह्माण्डव्यापी तथ्य जिनका जीवन में भी स्थान है
    • दूरदर्शी नीतिमत्ता (kahani)
    • नया! स्वर्गलोक बनेगा और वहाँ जाने का रास्ता भी
    • परावलम्बन छोड़ें आत्मावलंबन अपनायें
    • धर्म—आदर्शवादिता और एकता का प्रतीक बने!
    • सूखा आसमान भी बरस सकता है
    • जीवनसत्ता जड़ प्रकृति प्रतिक्रिया नहीं हैं
    • सन्तोष की बात (kahani)
    • मनुष्य पूर्वजों के ढांचे में ढला खिलौना मात्र नहीं
    • माँसाहार से लाभ कुछ नहीं हानि बहुत हैं
    • न हर्षोन्मत्त हों न अधीर होकर रोयें कलपें
    • निरंकुश बुद्धिवाद हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेगा
    • आकाश पर विजय किन्तु हृदयाकाश में पराजय
    • मनुष्य तो मकड़ी से भी पिछड़ा हुआ है
    • Quotation
    • आवेशग्रस्त मनःस्थिति दुर्बलता की निशानी है
    • सम्पन्नता ही नहीं−शालीनता भी बढ़ाई जाय
    • इन प्रयोजनों में तो चूहा भी मनुष्य से आगे है
    • ऊँचा उठें तो बहुत कुछ मिले
    • राज्य नाशवान है पर सन्त अविनाशी (kahani)
    • छोटे भी जीवित रहेंगे ही
    • शिवलिंग प्रतिमा की प्रबल प्रेरणा
    • बुद्धिमान और दूरदर्शी (kahani)
    • ज्योतिर्विज्ञान का दुर्भाग्यपूर्ण दुरुपयोग
    • क्रूरता को सौजन्य जीत सकता है
    • ध्यानयोग−चरम आत्मोत्कर्ष की साधना
    • कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को झुठलाना (kahani)
    • अपनों से अपनी बात - वाणी सत्र के बाद—लेखनी सत्र
    • अगले प्रत्यावर्तन तथा संगीत सत्र
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


जीवनसत्ता जड़ प्रकृति प्रतिक्रिया नहीं हैं

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 12 14 Last
ए. एन. विडगेरी ने अपनी पुस्तक “कान्टेम्पोरेरी र्थाट आफ ग्रेट ब्रिटेन” में इस बात पर चिन्ता व्यक्त की है कि साँसारिक अस्तित्व के सम्बन्ध में जितनी खोज की जा रही है, उतना मानवी-अस्तित्व के बारे में नहीं खोजा जा रहा है। लगता है-मानवी सत्ता, महत्ता और आवश्यकता को आँखों से ओझल ही किया जा रहा है अथवा चेतन को जड़ क अनुगामी सिद्ध किया जा रहा है। बौद्धिक-प्रगति के यह बढ़ते हुए चरण हमें सुख-शान्ति के केन्द्र से हटाकर ऐसी जगह ले जा रहे हैं, जहाँ हम याँत्रिक अथवा रासायनिक बोलने-सोचने वाले उपकरण मात्र बनकर रह जायेंगे। तब हम साधन-सम्पन्न कितने ही क्यों न हों—सभ्यता और संस्कृति जन्य गरिमाओं से हमें सर्वथा वंचित हो होना पड़ेगा। जड़-जीवन के लिए बाधित की गई चेतना कितनी अपंग हो जायगी? जब यह कल्पना करते हैं तो प्रतीत होता है कि विकास की दिशा में चल रही हमारी दौड़ विनाश में अधिक विघातक सिद्ध होगी।

कई रूपों में हम—अपने पूर्वजों की अपेक्षा अधिक अच्छे समय में रह रहे हैं। आज एक विधि तथा नियम का स्थिर शासन और निश्चित संविधान है। व्यक्ति गत संपत्ति एवं स्वतन्त्र अभिव्यक्ति अधिक सुरक्षित है। विज्ञान की प्रगति के कारण मृत्यु दर घट रही है। व्याधियों पर नियन्त्रण किया जा रहा है। औसत आयु बढ़ रही है। शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। देश-भक्ति जगी है। सुविधा-सामग्री सस्ती तथा सामान्य हो गई है। शासन की स्थापना में जनता का हाथ है। इतना सब होते हुए भी एक भारी क्षति मानवी-दृष्टिकोण का स्तर बहुत नीचा गिर जाने की हुई है। आज सर्वाधिक ज्ञानी, सर्वाधिक धनवान् और सर्वाधिक सामर्थ्यवान् लोगों का दृष्टिकोण भी संकीर्ण और स्वकेन्द्रित हो रहा है। वर्तमान से आगे की उनकी चिन्ताऐं तथा रुचियाँ जाती रही हैं। आत्मा के सम्बन्ध में सोचने के लिए उनके पास समय नहीं और न यह सूझ पड़ रहा है कि मानव-जाति का भविष्य बनाने के लिए-बिगाड़ को रोकने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है?

खोज और प्रगति के लिए मात्र भौतिक-क्षेत्र में ही अपने को अवरुद्ध कर लेना हमारे लिए उचित न होगा। यह और भी अधिक आवश्यक है कि जिस जीवधारी के लिए प्रकृति की शक्तियों को करतलगत करके विपुल सुविधा साधन जुटाये जा रहे हैं, उसकी अपनी हस्ती क्या है? इस पर भी विचार किया जाय और यह भी खोजा जाय कि जीवन-सत्ता का विकास-विस्तार किस हद तक सुख-शान्ति की आवश्यकता पूर्ण कर सकता है? विज्ञान का यह पक्ष भी कम उपयोगी और कम महत्वपूर्ण नहीं समझा जाना चाहिए।

अभावों और असुविधाओं से लड़ने और प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने के लिए जीवधारी की संकल्पशक्ति को प्रखर बनाया जाना चाहिए। साधनों की बहुलता तो मनुष्य को अकर्मण्य और अशक्त बनाती चली जायगी। प्रगति का मूल आधार विचार-प्रवाह एवं संकल्प-बल ही रहा है। जीवधारियों की प्रगति का इतिहास इन्हीं उदाहरणों से भरा पड़ा है।

सृष्टि के आरम्भ में बहुकोशीय जन्तुओं की बनावट बहुत ही सरल थी। स्पञ्ज, हाइड्रा, जेलीफिश, कोरल, सी. ऐनीमोन आदि ऐसे ही बहुकोशीय जीव थे। इनके आहार और मल-विसर्जन के लिए शरीर में एक ही द्वारा था। इसके बाद क्रमशः सुधार होता चला गया। आहार और मल-विसर्जन के लिए दो द्वार खुले। फिर हड्डियाँ विकसित हुई। मेरुदण्ड बने, बिना खोपड़ी वाले जानवर धीरे-धीरे खोपड़ी वाले बने। जलचरों ने थल में रहना सीखा। फिर तो कुछ हवा तक में उड़ने लगे। यही विकास क्रम उद्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज प्राणियों में अग्रगामी हुआ। स्तनपायी जीवों की काया जैसे-जैसे बुद्धिमान होती गई, वैसे ही वैसे उनमें अनेक प्रकार की शक्ति यों और विशेषताओं का विस्तार हुआ। तदनुसार ही उनकी इन्द्रिय क्षमता एवं अवयवों की संरचना परिष्कृत होती चली गई। इसी लम्बी मंजिल को पार करते हुए जीवन आज की स्थिति तक बढ़ता चला आया है।

विकासवाद के अनुसार दुनिया के प्राचीनतम और सरलतम जीव प्रोटोजोन्स वर्ग के हैं। इन जीवों का शरीर एक कोशीय होता है। उदाहरण के लिए अमीबा, यूग्लीना, पैरामीसिमय, वर्टीसेला आदि का आरम्भ एक कोशीय-जीव के रूप में ही हुआ था। पीछे इनमें से कुछ ने सुरक्षा और सुविधा के लिए परस्पर मिल-जुलकर रहना आरम्भ कर दिया। बालकाक्स नामक जीव छोटी-छोटी कालोनी बना कर रहने लगे। इनने अपने-अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व बाँटे और मिल-जुलकर रहने के लिए आवश्यक व्यवस्था क्रम का सूत्र संचालन किया। उनमें से कुछ आहार जुटाने, कुछ वंश-वृद्धि करने, कुछ सुरक्षा सँभालने, कुछ सूत्र-संचालन और कुछ वर्ग के लिए विविध-विधि श्रम-साधना करने में तत्पर हो गये। इसे हम आदिम-कालीन वर्ण-व्यवस्था कह सकते हैं। इस सहयोग-व्यवस्था के फलस्वरूप जीवन-विकास में तीव्र गति उत्पन्न हुई और बहुकोशीय मल्टी सेल्यूलर-जन्तुओं का उद्भव सम्भव हुआ।

सृष्टि के आदि में जीव बहुत ही छोटे एवं आकार और बनावट में बहुत ही सरल थे। धीरे-धीरे समय के साथ और वातावरण के अनुकूलन की परिस्थिति में सरल से जटिल और जटिल से जटिलतम होते गये। प्रकृति की इस मौलिक प्रक्रिया के फलस्वरूप सृष्टि बनी और विविधता का सूत्रपात हुआ।

सरल जीवों को जटिल जीवों में बदलने की प्रक्रिया को ‘विकास’ कहते हैं। इस विकासवाद को समझने के लिए विभिन्न सूत्र जो समय-समय पर वैज्ञानिकों ने अपने दृष्टिकोण से सामने रखे, उन्हें ‘विकासवाद के सिद्धान्त’ कहते हैं। इन्हें कई वैज्ञानिकों ने विविध तर्कों, तथ्यों और उदाहरणों सहित प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया हैं। लेमार्क और ह्यूगोडिब्राइस ने पिछली शताब्दी में चार्ल्स डार्विन ने विशेष ख्याति प्राप्त की है।

उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान देने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि अभाव ही नहीं, अदक्षता और असमर्थता का निराकरण भी संकल्प-शक्ति को विकसित करके ही किया जा सकता है। क्रमिक-विकास की खोजों से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। वे बताती हैं कि भावी-प्रगति की जो भी योजनायें बनाई जायँ, उनमें मानवी-विचारणा, भावना और आन्तरिक प्रखरता को उच्चस्तरीय बनाने को सर्वोपरि प्रधानता दी जाय। मनुष्य इसी अवलम्बन के सहारे अन्य जीवों की तुलना में अधिक आगे बढ़ सका है। उसके भावी मनोरथ भी इस आधार को और भी अधिक दृढ़ता के साथ अपनाने पर ही पूरे हो सकेंगे।

वैज्ञानिक जीवन-तत्व को रासायनिक पदार्थ मात्र मानकर एक विचित्र उलझन में उलझ गये हैं। वे भूल जाते हैं कि रसायन की जड़ता, चेतना के भीतर संकल्प-शक्ति और आकाँक्षाओं का विस्मयकारी प्रभाव कैसे उत्पन्न कर सकती है?

जीवधारी का रासायनिक आधार—प्रोटोप्लाज्मा ही सब कुछ नहीं है। अब उसके भीतर अव्यक्त जीवन-रस—ईडोप्लाज्मा की सत्ता स्वीकार कर ली गई है। वंश परम्परा केवल रासायनिक ही नहीं है, उसके पीछे अभिरुचियाँ, आस्थाएँ,भावनाएँ और न जाने ऐसा कुछ भरा हुआ है, जिसकी व्याख्या रासायनिक द्रवों के आधार पर नहीं हो सकती। चेतना की एक अतिरिक्त शृंखला की स्वतन्त्र गति स्वीकार किये बिना ‘ईजोप्लाज्मा’ के क्रियाकलाप की व्याख्या हो ही नहीं सकती। एक ही स्थान पर जड़ और चेतन एकत्रित हो सकते हैं, सो ठीक है, पर दोनों एक नहीं हैं—उनकी सत्ता स्वतन्त्र है। भले ही एक दूसरे के पूरक हों, पर उन्हें एक ही मान बैठना भूल होगी।

जीवन के व्याख्याकारों ने उसके सम्बन्ध में विविध प्रकार के मत व्यक्त किये हैं। गतिशीलता, समर्थता, चेतना, विकास की क्षमता, भोज्य पदार्थों की ऊर्जा के रूप में परिणत कर सकना, जन्म दे सकने की क्षमता आदि-आदि कितनी ही शर्तें जीवन-अस्तित्व के साथ जोड़ी गई हैं।

यह सारी विशेषताएँ प्रोटोप्लाज्म में सीमित नहीं हो सकतीं, उसके लिए कुछ अतिरिक्त क्षमता की आवश्यकता है। हमारी भावी खोज और दिलचस्पी इस अद्भुत अतिरिक्त ता पर ही केन्द्रित होनी चाहिए, जो जड़ परमाणुओं के सीमित क्रियाकलाप से कहीं अधिक ऊँचा है।

विज्ञान वेत्ता रासायनिक विश्लेषण से कभी आगे बढ़ते हैं तो विद्युतीय स्फुरण के रूप में प्राण-चेतना की व्याख्या करने लगते हैं। मनुष्य शरीर में बिजली का विपुल-भण्डार भरा पड़ा है, यह ठीक है और यह भी सत्य है कि मस्तिष्क से विचारों के कम्पन विद्युत-प्रवाह के ही रूप में निकलते हैं और शारीरिक आन्तरिक क्रिया-प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं, साथ ही विश्व ब्रह्मांड में हलचल उत्पन्न करके अगणित मस्तिष्कों पर अपना प्रभाव डालते है और जड़ पदार्थों की दिशा मोड़ते हैं। किन्तु यह मान बैठना उचित न होगा कि यह बिजली बादलों में कड़कने वाली धूप—गर्मी के रूप में अनुभव आने वाली तथा बिजली-घरों में उत्पन्न होने वाली के ही स्तर की है। भौतिक-बिजली और प्राण-शक्ति में मौलिक अन्तर हैं। प्राण के कारण शरीर और मस्तिष्क में बिजली पैदा होती हैं, किन्तु यह विद्युत-प्रवाह तक सीमित न होकर अनन्त अद्भुत क्षमताओं से परिपूर्ण है।

मानवी विद्युत आकर्षण—ह्यूमन मैगनेटिज्म तथा जीवनी-शक्ति —मेटावोजिज्म का संयुक्त स्वरूप प्राण है। उसे विश्व-व्यापी महाप्राण का एक अंश भी कहा जा सकता है। क्योंकि भौतिक जगत में और चेतन संवेदनाओं में जो कुछ स्फुरणा रहती है, उनका समन्वित समीकरण मानवी-प्राणसत्ता में देखा जा सकता है।

‘प्रोजोक्टिजक आफ ऐस्ट्रल वाडी’ के लेखक ने बताया है कि शरीर की स्थूल रचना अपने आप में अद्भुत हैं, पर यदि उसके भीतर काम कर रहे विद्युत शरीर की क्रिया-प्रक्रिया को समझा-जाना जा सके तो प्रतीत होगा कि उसमें सूर्य से तथा अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों से धरती पर आने वाली ज्ञात और अविज्ञात किरणों का भरपूर समन्वय विद्यमान है। गामा, वीटा, एक्ट, लेजर, अल्ट्रावायलेट, अल्फा वायलेट आदि जितने भी स्तर की शक्ति किरणें भूमण्डल में भीतर और बाहर काम करती हैं, उन सबका समुचित समावेश मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में हुआ है। स्थूल शरीर जड़ पदार्थों के बन्धनों से बँधा होने के कारण ससीम है, पर सूक्ष्म शरीर की सम्भावनाओं का कोई अन्त नहीं। उसका निर्माण ऐसी इकाइयों से हुआ है, जिनकी हलचलें ही इस ब्रह्माण्ड में विविध-विधि क्रियाकलाप उत्पन्न कर रही हैं।

जीवन-तत्ववेत्ता ईडडडड के. लेनकास्टर ने अधिक गहराई तक जीवन-तत्व की खोज करने के उपरान्त उसे भौतिक-जगत में चल रही समस्त क्रिया-प्रक्रियाओं से भिन्न स्तर का पाया। उसके निरूपण के लिए जो भी सिद्धान्त निर्धारित किये, वे सभी ओछे पड़े। अस्तु उन्होंने कहा—जीवन सत्ता के बारे में मानव-बुद्धि कुछ ठीक निरूपण शायद ही कर सके। उसकी व्याख्या भौतिक-सिद्धान्तों के सहारे कर सकना सम्भवतः भविष्य में भी सम्भव न हो सकेगा। जीवन एक स्वतन्त्र विज्ञान है और ऐसा जिसकी नाप-तोल पदार्थ विद्या के बटखरों से नहीं ही हो सकेगी।

निर्जीव पदार्थ का केवल अस्तित्व हैं। उसमें अनुभूति नहीं और न जीवन। पौधों में अस्तित्व और जीवन है, पर ज्ञान का अभाव हैं। प्राणियों में अस्तित्व, जीवन और अनुभूति है, परन्तु ज्ञान या स्वतन्त्र इच्छा विकसित अवस्था में नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य में ये सब गुण विद्यमान हैं, उसमें अस्तित्व पूर्ण जीवन, अनुभूति, ज्ञान और स्वतन्त्र इच्छा शक्ति का समन्वय है, इस प्रकार उसे चेतना के सुविकसित स्तर पर प्रतिष्ठापित किया जा सकता है।

जड़ और चेतन की आणविक हलचलों में समानता हो सकती है, पर यह किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता कि जड़ का विकास इतना अधिक हो सके कि’ वह चेतना के उच्चतम स्तरों की परतें उधेड़ता चला जाय। अस्तु हार-थक कर वे अन्य प्रकार के उपहासास्पद निष्कर्ष निकालते हैं। उदाहरण के लिए केल्विन, हैमरीज, किचटर, अरहेनियस की मान्यता है कि ‘जीवन किसी अन्य लोक से भूलता-भटकता पृथ्वी पर आ पहुँचा है।’

टैण्डाल और पास्टयूर की मान्यता थी कि जीवन—जीवन से ही उत्पन्न हो सकता है। आरम्भ में सेल अपने आप अपनी वंश-वृद्धि किया करते थे, पीछे ‘नर-मादा संयोग‘ का क्रम चला। इसी प्रकार भीतरी-बाहरी अवयवों की संख्या एवं क्षमता भी क्रमशः ही विकसित हुई है। जड़ से चेतन की उत्पत्ति अथवा पदार्थ का जीवन में परिवर्तन उन्होंने अशक्य माना है। चेतना की वे स्वतन्त्र सत्ता ठहराते हैं।

ब्रह्माण्ड-व्यापी महाशक्ति यों में ने गुरुत्वाकर्षण की क्षमता सर्वविदित है। आकाश में सामंत ग्रह-नक्षत्र उसी के आधार पर टिके हुए हैं और जीवित हैं।

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शक्ति (विद्युत चुम्बकीय क्षमता) अगणित भौतिक प्रक्रियाओं का नियन्त्रण करती है। प्रकाश, तप, ध्वनि, विद्युत, रासायनिक परिवर्तन आदि का जो क्रियाकलाप इस जगत में चल रहा है, उसके मूल में यही शक्ति काम कर रही है। ईयर अपने विभिन्न आकार-प्रकारों में वस्तुओं पर शासन स्थापित किये हुए हैं।

यह विद्युत चुम्बकीय क्षमता मात्र जड़ नहीं है, यदि वह जड़ ही होती तो अणु-परमाणुओं की संरचना में जो अद्भुत व्यवस्था दिखाई पड़ती है, उसके दर्शन नहीं होते। साथ ही चेतन प्राणियों में दूरदर्शिता, आकाँक्षा, भावना जैसी कोई विशेषता न होती और न किसी जीव में कोई ऐसी अतीन्द्रिय-क्षमता पाई, जाती, जिसका जड़चेतन के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं हो।

आइन्स्टाइन कहते थे—आज न सही, कल यह सिद्ध होकर रहेगा कि अणु सत्ता पर किसी अविज्ञात चेतना का अधिकार और नियन्त्रण है। भौतिक-जगत उसी की स्फुरणा हैं। पदार्थ मौलिक नहीं है, चेतना की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ही पदार्थ का उद्भव हुआ है। भले ही आज यह तथ्य प्रयोगशाला में सिद्ध न हो सकें, पर मेरा विश्वास है कि कभी वह सिद्ध होगा अवश्य।

जीव-तत्व की शोध के स्वस्थ कदम आत्मा की स्वतन्त्र चेतन सत्ता स्वीकार करने पर ही आगे बढ़ सकेंगे। आत्मा को जड़ सिद्धान्तों के अर्थगत बाँधते रहने से—चेतना विज्ञान के उपयुक्त विकास में बाधा ही खड़ी रहेगी और सही निष्कर्ष तक पहुँचने में एक भारी व्यवधान खड़ा रहेगा।

वैज्ञानिक शोधों में जिस जिज्ञासा की आवश्यकता पड़ती है, उसी सूक्ष्म दृष्टि को अपना कर आत्म-सत्ता की महत्ता और उसके स्वस्थ विकास की सम्भावनाओं को समझा जा सकता है। इस लाभ से मनुष्य जिस दिन लाभान्वित होगा, उस दिन उसे न अभाव, दारिद्रय का सामना करना पड़ेगा और न शोक-सन्ताप का।

कठोपनिषद् के अनुसार ‘बालक नचिकेता’—महाभाग यम से जीवन और मृत्यु की पहेली का उत्तर पूछता है। तैत्तरीय उपनिषद् में भृगु अपने पिता वरुण से ब्रह्म की प्रकृति तथा सर्वोच्च यथार्थ के बारे में जानना चाहता है। श्वेतकेतु ज्ञान से समृद्ध होकर लौटता है तो उसके पिता उससे पूछते हैं कि क्या उसने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया? जनक निरन्तर याज्ञवल्क्य से एक के बाद एक प्रश्न पूछते हुए—एतरेय उपनिषद् में यही जानना चाह रहे हैं कि जीव को शुद्ध अंतर्दृष्टि से किस प्रकार पूर्णता का बोध होता है?

इस समाधान को प्राप्त करके ही मानवी-चिन्तन की सार्थकता और विकास क्रम की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

First 12 14 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • हमारा भविष्य अन्धकारमय नहीं हैं
  • Quotation
  • बुद्धिमत्ता और मूर्खता की कसौटी
  • आत्म और शरीर की भिन्नता जानें ही नहीं माने भी
  • सन्त चिदम्बर (kahani)
  • यथार्थवादी बनें-संकल्पबल प्रखर करें
  • ब्रह्माण्डव्यापी तथ्य जिनका जीवन में भी स्थान है
  • दूरदर्शी नीतिमत्ता (kahani)
  • नया! स्वर्गलोक बनेगा और वहाँ जाने का रास्ता भी
  • परावलम्बन छोड़ें आत्मावलंबन अपनायें
  • धर्म—आदर्शवादिता और एकता का प्रतीक बने!
  • सूखा आसमान भी बरस सकता है
  • जीवनसत्ता जड़ प्रकृति प्रतिक्रिया नहीं हैं
  • सन्तोष की बात (kahani)
  • मनुष्य पूर्वजों के ढांचे में ढला खिलौना मात्र नहीं
  • माँसाहार से लाभ कुछ नहीं हानि बहुत हैं
  • न हर्षोन्मत्त हों न अधीर होकर रोयें कलपें
  • निरंकुश बुद्धिवाद हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेगा
  • आकाश पर विजय किन्तु हृदयाकाश में पराजय
  • मनुष्य तो मकड़ी से भी पिछड़ा हुआ है
  • Quotation
  • आवेशग्रस्त मनःस्थिति दुर्बलता की निशानी है
  • सम्पन्नता ही नहीं−शालीनता भी बढ़ाई जाय
  • इन प्रयोजनों में तो चूहा भी मनुष्य से आगे है
  • ऊँचा उठें तो बहुत कुछ मिले
  • राज्य नाशवान है पर सन्त अविनाशी (kahani)
  • छोटे भी जीवित रहेंगे ही
  • शिवलिंग प्रतिमा की प्रबल प्रेरणा
  • बुद्धिमान और दूरदर्शी (kahani)
  • ज्योतिर्विज्ञान का दुर्भाग्यपूर्ण दुरुपयोग
  • क्रूरता को सौजन्य जीत सकता है
  • ध्यानयोग−चरम आत्मोत्कर्ष की साधना
  • कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को झुठलाना (kahani)
  • अपनों से अपनी बात - वाणी सत्र के बाद—लेखनी सत्र
  • अगले प्रत्यावर्तन तथा संगीत सत्र
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj