
इन प्रयोजनों में तो चूहा भी मनुष्य से आगे है
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प्राणधारी की आकाँक्षा और चेष्टा जिस भी दिशा में तत्पर होती है, उसी दिशा में आशातीत सफलता मिलने लगती है। चेतना की तत्परता का चमत्कार चूहे जैसे छोटे प्राणी में भी देखा जाता है। पेट पालने और सन्तानोत्पादन में उसे भी असाधारण उत्साह रहता है उसने इन दिनों ही क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलता प्रदान की है।
अनुमान है कि भारतवर्ष में चूहे प्रायः 330 लाख टन अनाज हर वर्ष खा जाते हैं। फसल घर आने से पहले ही खेत−खलिहानों में प्रायः 10 प्रतिशत अनाज साफ कर देते हैं। खाने के अतिरिक्त वे बखेरने की बर्बादी भी कम नहीं करते। अपने बिलों में भी वे भविष्य के लिए काफी अन्न जमा करते हैं। तलाशी लेने पर कई चूहों के बिलों में 14 किलो तक अनाज बरामद हुआ है। अनुमान है कि पूरे देश में प्रायः 5 अरब 80 करोड़ चूहे है। आबादी के हिसाब से हर एक मनुष्य पीछे 10 चूहों का अनुपात आता है। एक चूहे को भर पेट खाने का अवसर मिले तो वह लगभग अपने शरीर के बराबर प्रायः आधा पौंड अनाज आसानी से खा और पचा सकता है। खाऊपन की आदत ने उनके पेट का बहुत परिपुष्ट कर दिया है।
चूहों की सन्तानोत्पादन क्षमता भी ऐसी ही आश्चर्यजनक है। पेट भरने के बाद उनको दूसरा प्रिय−कार्य, काम, कौतुक ही सूझता है। उनकी इस अभिरुचि ने अभीष्ट सफलता प्राप्त की है और परिवार बढ़ाने में वे अन्य प्राणियों से कहीं आगे रहते है।
चुहिया वर्ष में प्रायः 3−4 बार बच्चे देती है। उनका वार्षिक प्रजनन प्रायः 10 बच्चों का होता है। एक साल की चुहिया जवान हो जाती है और बच्चे पैदा करने लगती है। इस प्रकार की उसकी वंश वृद्धि को देखते हुए मारने−पकड़ने के उपाय प्रायः बेकार ही साबित होते हैं।
चूहों जैसा निरुद्देश्य जीवन पेट और प्रजनन के उपरान्त दुष्टता और उच्छ खलता अपनाने में प्रवृत्त होता है। उनके द्वारा किये जाने वाले उपद्रवों का लेखा−जोखा लेने पर विदित होता है कि दादागीरी में उन्होंने अपने को किसी से पीछे नहीं रहने दिया है।
प्रौढ़ चूहे मोटे होकर उद्दंड हो जाते हैं और अनाज से पेट भरने तक सन्तुष्ट नहीं रहते, तब वे पशु−पक्षियों पर आक्रमण करते हैं और मनुष्यों तक की खबर लेने से नहीं चूकते। अकेले बम्बई शहर में चूहे के काटे घायल लगभग 20 हजार की संख्या में अस्पतालों में भर्ती होते हैं। घरेलू मरहम पट्टी करके बैठ रहने वालों की संख्या तो इससे कई गुनी अधिक होगी।
पालतू मुर्गियों के अंडे चुराने में वे उस्ताद होते हैं। पेड़ों पर चढ़ कर पक्षियों के अंडे भी वे मजे से खाते हैं। आयरलैंड में भूरे चूहों की संख्या इतनी बढ़ी कि उन्होंने तालाबों का सफाया ही कर दिया। साइकिल द्वीप समूह में एक बार वे इतने बढ़े कि पेड़ों पर पक्षियों के लिये बसेरा करना कठिन हो गया और वे हार मानकर उस क्षेत्र को छोड़ कर अन्यत्र घोंसले बनाने के लिये चले गये। आसाम के हाथी व्यवसायी ने बताया कि एक बार उसके तीन हाथी चूहों द्वारा पिछले पैरों का माँस काटे जाने से घायल हो गये। सिवनी (मध्य प्रदेश) के एक गाँव में डेढ़ किलो भारी चूहे को बन्दूक की गोली से मारना पड़ा। वह तीस मुर्गियों के बच्चों को दबोच कर उदरस्थ कर चुका था और सोते आदमियों का माँस काटने लगा था।
निरुद्देश्य मानव−जीवन भी चूहे जितनी ही प्रगति करता है और उतनी ही सफलता प्राप्त करता है। किसी भी रीति से कामना और कुछ भी करने में खर्च करना—वासना और विलासिता की ललक−लिप्सा में आंखें बन्द करके डूबे रहना, इसके बाद बची शक्ति को अहंकार आतंक के उद्धत प्रदर्शन में लगाये रहना, क्या ही मानवोचित जीवन है। इस प्रकरण को तो मनुष्य की अपेक्षा चूहा भी अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेता है।