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Magazine - Year 1974 - Version 2

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मनुष्य तो मकड़ी से भी पिछड़ा हुआ है

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First 19 21 Last
चतुरता और कुशलता ही यदि बड़प्पन का पैमाना हो तो फिर इस क्षेत्र में मनुष्य को नहीं, प्रतियोगिता में मकड़ी को प्रथम पुरस्कार मिलेगा।

मनुष्य को अनेक संभावनाओं से जुड़ा मस्तिष्क मिला है सो ठीक है, उसकी शारीरिक मानसिक क्षमतायें अद्भुत हैं सो भी ठीक है, पर मात्र इतनी ही उपलब्धियां के बलबूते उसे सृष्टी का मुकुट मणि नहीं कहा जा सकता है। शरीरों के प्रकार की तुलना को यदि ध्यान में रखा जाय तो प्रकृति प्रदत्त अनुदान के अनुपात में मकड़ी को कहीं अधिक भाग्यशाली माना जायगा छोटे से आकार की मकड़ी को कहीं अधिक भाग्यशाली माना जायगा। छोटे से आकार की मकड़ी कितनी अनोखी क्षमताओं से भरी पूरी है इसको गहराई से देखा जाय तो दाँतों तले उँगली दबा कर रह जाना पड़ेगा। इतने छोटे जीव में इतनी अद्भुत विशेषतायें? इसी अनुपात से यदि मनुष्य को मिला होता तो वह अबकी अपेक्षा न जाने क्या क्या कर गुजरता और तो वह अबकी अपेक्षा न जाने क्या क्या कर गुजरता और न जाने अपने को क्या क्या कहता समझता।

मकड़ी के इच्छित यातायात में नदी नाले भी बाधा नहीं पहुँचाते। जब उसे नदी पार जाना होता है तो किसी ऊँचे पेड़ पर चढ़कर अनुकूल हवा की प्रतीक्षा में बैठी रहती है। हवा का रुख ठीक होते ही वह वहां में तैरती हुई अपने मुँह से निकलने वाले जाले के सहारे नदी पार के किसी पेड़ आदि पर जा पहुँचती है। उसका पुल मुद्दतों काम देता रहता है और मज में इधर से उधर आती जाती रहती है।

जलाशयों में पानी के भीतर जाला तनने वाली जलचर मकड़ी थलचर भी होती है बिन पंखों के उसे नभचर होने का भी अवसर मिल जाता है इस प्रकार यूरेशियन जाति की मकड़ी जलचर,थलचर और नभचर तीनों वर्गों में अपनी गणना करती है।

मकड़ी का जाला देखने में तुच्छ वस्तु प्रतीत होती है पर उस पर बारीकी से ध्यान दिया जाय तो प्रतीत होगा कि यह अद्भुत प्रकार की वस्तु है। इस जाले के ऐसे तन्तु भी मिल सकते है जो फौलाद से भी ज्यादा मजबूत हों, इन धागों की पृथ्वी को लपेट सकने लायक लबाई का वजन 400 ग्राम से भी कम होगा। दृष्टि तथा प्रकाश संबंधी आप्टिकल सूक्ष्म यंत्रों के क्रसवायर इन्हीं तन्तुओं से तैयार किये जाते हैं। अठारहवीं सदी में एक धुनि के धनी ने मकड़ी के जाले से ही हाथ के दस्ताने और पैर के मौज बनाये थे।

मकड़ी के रक्त में एक विशेष रासायनिक पदार्थ होता हैं एमीनो एसिड यह तन्तु उत्पादक ग्रन्थियों में जाकर एक चिपचिपे गाढ़े द्रव के रूप में परिणत हो जाता है। इन ग्रन्थियों के सिरे पर चार छोटे छोटे छेद होते हैं जिन्हें स्पिनेकेट कहते हैं इनके भीतर द्रव को धागे के रूप में निकलने और कातने वाले वलयनल लगे होते है। किसी मकड़ी में यह वलयनल 600 का संख्या तक पाये जाते हैं। बुनने कान आने वाली रसायन लुगदी को रसायन विज्ञान की भाषा में पालिमार कहा जाता है।

मकड़ी गुरुत्वाकर्षण के नियम के विरुद्ध ऊपर से नीचे ही नहीं नीचे ऊपर को भी चल उछल सकती है। बिना धागे की सहायता के भी उसकी यह ऊर्ध्वगामी क्रिया होती है। पूछ की तरह ताना पीछे−पीछे तना जाता रहता है और वह न केवल अपना शरीर वरन इस धागे को अपने साथ घसीटती हुई जमीन से छत की ओर गमन करती है।

मकड़ी क औसत धागा जो हमें दिखाई देता है एक इंच का एक लाख धागा ही मोटा होता है। यह भी एक नहीं है। सैकड़ों न दीखने वाले पतले धागों से यह वैसे ही बना है जैसे कि हम बहुत से धागे बंटकर मोटा रस्सा बनाते हैं। इतने पर भी यह लचकदार होता है और आसानी से खिंचकर सवाया हो सकता है। जाले अक्सर हवा के झोंके या दूसरे कारणों से टूटते रहते हैं। मकड़ी टूटे धागे जोड़ने में बहुत कुशल है वह टूट फुट की मरम्मत ऐसी बूँटी से करती है जैसे इलैक्ट्रिक वैल्िडग वाले धातु खंडों की भी नहीं कर सकते। जोड़ की जगह से धागा फिर दुबारा नहीं टूटता। ध्यान पूर्वक देखने से इस जाले की बुनावट मछली, चिड़िया या हिरन पकड़ने के लिए शिकारियों द्वारा बनाये गये जाल की अपेक्षा कहीं अधिक कुशलता के साथ की गई प्रतीत होती है। जो कीड़ा इसमें एक बार फँसा कि फिर उससे जीवित बच निकलना प्रायः संभव ही नहीं होता।

मकड़ी का जाला रेशम की तुलना में भी कहीं अधिक मजबूत होता है। आस्ट्रेलिया और मैडागास्कर के आदि वासी मकड़ियों के जाले से मछली पकड़ने के जाल तथा तन ढकने के आवश्यक वस्त्र तैयार करते थे जो सुन्दर भी लगते थे और टिकाऊ भी होते थे। जहाँ तहाँ रेशम के कीड़ों की तरह मकड़ी को भी उनका जाला प्राप्त करने के लिए पाला गया है पर उसमें खर्च अधिक और आय कम होने से बन्द कर दिया गया।

शीत ताप सहने की तितिक्षा शक्ति मकड़ी में इतनी होती है जितनी तथाकथित योगी−तपस्वियों में भी नहीं पाई जाती। वह बाईस हजार फु ट ऊंची हिमाच्छादित हिमालय की चोटियों पर भी पाई गई है और जमीन के भीतर दो हजार फुट गहरे उन गर्तों में भी जहाँ का ताप मान काफी अधिक होता है। उसकी संवेदन शक्ति और स्मरण शक्ति मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक सूक्ष्म होती है।

प्राणि शास्त्रियों ने संसार के विभिन्न भागों में प्रायः 14 हजार जाति की मकड़ियाँ खोजी हैं इनमें पानी के भीतर रहने वाली और वाटर प्रूफ जाला तनने वाली मकड़ियाँ भी सम्मिलित हैं। वर्ग की दृष्टि से इन्हें ‘लूता’ संज्ञा दी जाती है। इनका शरीर−शिर और धड़ के दो भागों में बँटा होता है शिर में आठ आँखें और धड़ में आठ टाँगें होती हैं। उनकी टाँगों को अन्तिम भाग की बनावट और क्रिया कुशलता ऐसी होती है जैसी मनुष्य में हाथ के पंजों की। अपनी सारी क्रिया कुशलता में मकड़ियाँ इन्हीं टाँगों में जुड़े पंजों से काम लेती हैं

मकड़ी के पिछले भाग में कई खोखली घुँडियाँ होती हैं। प्रत्येक घुँडी के मुख पर एक छेद होता है। उनके भीतर एक तरल द्रव भरा रहता है। जाला तनते समय मकड़ी इस तरल द्रव से भरी घुँडी—कोठरी पर भीतरी दबाव डालती है और वह बाहर निकलने लगता है। हवा लगते ही वह सूख जाता है और धागा बन जाता है। जाले को इच्छानुसार पतला मोटा करने के लिए वह घुँडी के छेद को आवश्यकता के अनुरूप छोटा बड़ा कर लेती है। कई बार तो यह धागे इतने बारीक होते हैं कि आँखों से सीधी तरह दिखाई भी नहीं पड़ते।

कुछ मकड़ियाँ अन्धी होती हैं पर उनकी स्पर्श शक्ति तथा संवेदना−शक्ति ऐसी अद्भुत होती है कि शरीर से छूने वाले रेडियो कंपन उसे समीपवर्ती परिस्थितियों का पूरा ज्ञान करा देते हैं फल स्वरूप उसका क्रिया कलाप ऐसे ही चलता रहता है मानों आँखें भी उसे प्राप्त हों। गंध शक्ति उनमें कम होती है पर स्पर्श शक्ति में वे दूसरे कीड़ों से कहीं अधिक आगे बड़ी चढ़ी होती हैं और किसी को छुए बिना उसके विद्युत कम्पनों का अनुभव करके ही वे आवश्यक जानकारी प्राप्त कर लेती हैं।

मित्रघात और विश्वास घात में मनुष्य ने अब भारी प्रवीणता प्राप्त करती है। किसी जमाने में लड़ कट कर ही शत्रुता का परिचय दिया जाता था। अब वे हथियार पुराने पड़ गये। किसी को मीठे व्यवहार से भित्न बनाना और फिर उसका विश्वास प्राप्त करके ऐसी पटक मारना कि वह चित्त पट हो जाय, यही आज का सर्व प्रचलित आक्रमण पद्धति है। छल के सहारे किसी को आसानी से उदरस्थ किया जा सकता है। मित्र बनाकर शत्रुता का आचरण करना यही मनुष्यों की वह उपलब्धि है, जिस पर वह फूला नहीं समाता और अपनी चतुरता पर गर्व करता है। पशुओं को लाड़ प्यार से पालना और फिर देखते देखते मित्र से शत्रु बनकर उनके गले पर छुरी फेर देना यही स्वादिष्ट माँसाहार का सरल तरीका है। इस रीति−नीति को वह अपने मित्रों और स्वजन संबंधियों के साथ बरतता रहता है। चतुरता का सबसे अधिक उपयोग मनुष्य उसी प्रयोजन के लिए करते हैं।

मकड़ी इस क्षेत्र में भी मनुष्य से पीछे नहीं। वह मकड़े को प्रेमपाश में फँसाती है। अपना मतलब जब निकल जाता है तो आँखें बदलने में एक क्षण नहीं लगाती और इस निर्ममता के साथ उदरस्थ कर जाती है मानो उसका उससे कुछ संबंध तो क्या कुछ परिचय भी न हो।

मकड़ियाँ अपने सहचरों के प्रति भी निष्ठुर होती हैं। उन्हें अपने अण्डों तथा नन्हें बच्चों तक ही लगाव होता है। पति को तो वे आमतौर से खा ही जाती हैं। प्रणयकेलि का आनन्द लेने के उपरान्त वे मकड़े का दूसरा उपयोग स्वादिष्ट आहार के रूप में ही करती हैं। मैत्री और सान्निध्य के नाम पर एक तीर से दो शिकार करने वाली मकड़ियों का यह व्यवहार निर्मम ही कहा जा सकता है। किशोर मकड़ी यदि थोड़ी मजबूत हुई तो अपने ही जाले में रहने वाले भाई बहिनों को चट कर जाती हैं।

नर और मादा मकड़ी अलग−अलग किन्तु पास−पास जाला तान कर रहते हैं और आवश्यकतानुसार दांपत्य धर्म निवाहते हैं। मादा मकड़ी भूखी होने पर नर पर आक्रमण कर देती है और उसे ही चट कर जाती है। मकड़ा आमतौर से इस युद्ध में हारता है। विवाह के साथ मौत के गठबंधन से मकड़ा परिचित होता है इसलिए वह यथा−संभव अपना बचाव करने के लिए सतर्क भी रहता है और जान बचाने के लिए सहचरी भूखी न रहने पाये इसका ध्यान रखता है। मकड़े पहले अपनी कमाई मकड़ी को सौंपते है और बची खुची खाकर ही संतोष करते हैं।

मकड़ी लड़ाकू होती है और बहादुर। उसमें विष कम नहीं होता। मनुष्य की उस क्रूरता को भी वह चुनौती देती है जिसकी वह आमतौर से बहादुरी और वीरता के नाम पर डींगें हाँकता रहता है।

उसे आये दिन युद्ध करना पड़ता है और वह जान हथेली पर रख कर इस बहादुरों से लड़ती है कि उससे कई गुने आकार वाले शत्रु को भी प्राण गँवाने पड़ते हैं। सर्प की तरह मकड़ी में तेज विष भी होता है जिसे वह अपने शिकार को अथवा शत्रु को परास्त करने के लिए आवश्यकतानुसार प्रयोग करती रहती है।

मनुष्य इस संसार के लिए अधिक उपयोगी है या मकड़ियाँ। यह फैसला होना अभी बाकी है। क्योंकि मकड़ियाँ व्यवहार में कितनी ही निष्ठुर क्यों न हों वे संसार में स्वच्छता रखती हैं और ऐसे तत्वों को साफ करती हैं जो मानव जीवन के लिए संकट उत्पन्न करते हैं। मकड़ी की यह उपयोगिता स्पष्ट है। पर मनुष्य तो गंदगी, धूर्तता, दुष्टता और अशान्ति फैलाने के अतिरिक्त कितना कुछ उपयोगी काम करता है इस संदर्भ में विस्तृत लेखा जोखा लेने के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा।

मकड़ियाँ देखने में घिनौनी या गन्दी भले ही प्रतीत होती हों पर उनकी उपयोगिता मनुष्य जीवन के लिए असाधारण है। वे घर की छतों और कोनों में अपने जाले तानती हैं उनमें अपनी घर गृहस्थी बसाती हैं। आहार पकड़ती हैं। इससे बाहर निकल कर वे घर भर में रेंगते रहने वाले उन कीड़ों को खाती रहती हैं जो आसानी से दिखाई भी नहीं पड़ते किन्तु अपने हानिकारक प्रभाव से मानव जीवन के लिए भयानक हानि उपस्थित करते हैं। यह कीड़े खाद्य पदार्थों में शामिल होकर पेट में चले जाते हैं। और संकट खड़ा कर बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। मकड़ी ही है जो बिना वेतन, बिना पोषण और बिना धन्यवाद पाये हानिकारक कीड़ों से जूझती हुई हमारे लिए सुरक्षात्मक लड़ाई लड़ती रहती है ब्रिटेन के कृमि विशेषज्ञों का कथन है कि इंग्लैंड की मकड़ियाँ जितने कीड़े मकोड़े हर वर्ष खाती हैं उनका वजन इस देश की समस्त आबादी से भी अधिक होता है।

काश, मनुष्य में भी कुछ ऐसी उपयोगिता भी रही होती तो उसका यह ढोंग सार्थक हो जाता कि उसका बड़प्पन दूसरे जीवों की तुलना में बढ़ा चढ़ा है।

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