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Magazine - Year 1974 - Version 2

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Language: HINDI
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ऊँचा उठें तो बहुत कुछ मिले

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जो कुछ सामने विद्यमान है, उसमें ऊँचे उठकर दूरदर्शी की रीति−रिवाज अपनाने वाले ही अधिक विस्तृत और परिष्कृत ज्ञान प्राप्त करते हैं। सीमाबद्ध संकीर्णता में जकड़े रहने वाले लोग तो कूप−मंडूक बन कर ही रह जाते हैं। जो सामने पड़ा है,वही सब कुछ नहीं है उसमें आगे भी कुछ है और जो नहीं जाना, समझा जा सके उपयोगी भी झाँकी करने की आवश्यकता है। यह प्रवृत्ति ही जिज्ञासा बन कर विकसित होती है और ज्ञान सम्पादन की ओर बढ़ चलने की प्रेरणा देती है। मनुष्य−जाति ने अब तक जो ज्ञान सम्पदा एकत्रित की है, उसके पीछे ज्ञान क्षेत्र में आगे बढ़ने और ऊँचे उठने की अकुलाहट ही काम करती रही है।

न केवल ज्ञान क्षेत्र में वरन् जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने एवं ऊंचे उठने की आवश्यकता सदा से समझी जाती है। क्षुद्र और दुराग्रही लोग ही यथा स्थिति को पर्याप्त मान बैठते हैं और उसी के लिए दुराग्रह ठाने रहते हैं। प्रगतिशीलता का तकाजा सीमाबद्धता से सन्तुष्ट न रह कर असीम की ओर उड़ चलने का है। जिनके प्रयास ऊपर उठने के हैं, उनकी भावनायें उष्णता के उच्च−शिखर पर चढ़ने के लिए उमड़ती, मचलाती हैं, उन्हें ही जीवन साधना के साधक कहा जाता है। वे ही आकाश के तारे तोड़ लाने जैसी बढ़ी−चढ़ी सफलतायें प्राप्त करते हैं।

आकाश में उड़ाये गये गुब्बारे मनुष्य की इसी आकाँक्षा और चेष्टा के मूर्तिमान प्रतीक प्रतिनिधि हैं। आरम्भ में वे ऐसे ही कौतूहलवश उड़ाये गये थे पर पीछे वे वायुयानों का महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरा करने लगे। अब अंतर्ग्रही उड़ानों की भूमिका भी वे ही राकेट गुब्बारे निबाह रहे हैं। ऊँची छलाँग लगाने की यह प्रक्रिया निकट भविष्य में मानव−जाति की प्रगति और सुख−सुविधाओं की सम्भावनाओं को और भी अधिक तरह सम्पादित करेंगी। उपग्रह संचार व्यवस्था, टैलेक्स, टेलीग्राफ, डाटा−प्रेषण,रेडियो, फोटो, ध्वनि प्रसारण आदि अनेक प्रयोजन भी पूरे होंगे। किसी भी घटना के टेलीविजन चित्र कुछ ही सेकेंड में संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजे जा सकेंगे। टेलीविजन प्रक्रिया में माइक्रो तरंगें काम आती हैं और वे सीधी पंक्ति में चलती हैं। पृथ्वी गोल है। दूर स्थानों तक इन माइक्रो तरंगों के जाने में पृथ्वी की गोलाई बाधक होती है। इसलिए यदि टेलीविजन चित्र दूर तक भेजने हों तो हर 50 किलो मीटर पर एम्पलीफायरों से युक्त ॐ ची ऐसी मीनारें बनानी पड़ेंगी, जो दृष्टि रेखा, लाइन आफ साइट— पर स्थित हो। इस कठिनाई के कारण टेलीविजन एक स्थानीय आवश्यकता पूरी कर सकने वाली व्यवस्था बनी हुई है और उसका लाभ व्यापक क्षेत्र में उठाया जा सकना सम्भव नहीं है। समुद्र पार के टेलीविजन कार्यक्रमों को हम किसी भी प्रकार देख नहीं सकते।

अन्तरिक्षयानों के विकास की स्थिति अब निकट भविष्य में ही हल होने जा रही है। 1 भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर 36000 किलोमीटर ऊँचाई पर— एक दूसरे से सामान्य दूरी पर तीन संचार उपग्रह स्थापित किये जाने वाले हैं, इनके माध्यम से समस्त संसार को टेलीफोन, टेलीविजन जैसी सुविधायें सहज ही मिलने लगेंगी। विश्व−रेडियो दुनिया भर के ज्ञान वर्धन की अभीष्ट आवश्यकताओं पूरी करने लगेगा।

उपरोक्त संचार व्यवस्था के लिये आवश्यक डिजाइन और यन्त्र उपकरण बनाने में इन्टरनेशनल टेलिक् म्युनिक् शन्स सैट कन्सार्टियम (इंटेलसैट) और कम्युनिकेशन सैट लाइट कारपोरेशन (कम्साट) नामक संस्थानों को सौंपा गया है और वे अपना काम जल्दी पूरा कर देने के लिये अनवरत श्रम कर रहे हैं। पिछले दिनों इस प्रकार के छोटे प्रयत्न हुये भी हैं और उन्हें सफलता भी मिली है। ‘इटेल सैट’ छोटा उपग्रह उत्तर अमेरिका और योरोप के बीच 240 दुतरफा टेलीफोन चैनलों को स्थापित कर चुका है और उसने इन दोनों महाद्वीपों के बीच टेलीफोन चित्रों का भी सफल आदान−प्रदान किया है। इसके बाद उसी शृंखला के और भी अधिक विकसित उपग्रह छोड़े गये। इंटेलसैट 3 ने हिन्द महासागर पर 1100 टेलीफोन चैनलों की स्थापना की। इसमें 150 करोड़ रुपया खर्च आया, जिसे सभी सम्बद्ध देशों ने मिल−जुल कर पूरा किया। पूना (आरबी) का भारतीय संचार स्टेशन इसी उपग्रह शृंखला से लाभ उठा रहा है। भारत की विदेशों के साथ जितनी दूर संचार व्यवस्था है, उसका 42 प्रतिशत बम्बई से, 26 प्रतिशत दिल्ली से और 22 प्रतिशत कलकत्ता से होती है। प्राकृतिक सुविधा और अधिक कार्य भार को ध्यान में रखते हुये इस स्टेशन के लिये बम्बई क्षेत्र चुना गया और उसके लिये सत्रह मंजिली ऐसी इमारत बनाई गई जिसकी छत्त पर 45 मीटर ऊँची मीनार पर ऐटेना यन्त्र लगा है।

पिछले दिनों पृथ्वी से 400 मील की ऊँचाई पर 18 हजार मील प्रति घंटा गति से धरती के चारों ओर घूमने वाला टाइकोस (टेलीविजन एण्ड इन्फ्रारेड आवजर्वेशन सेटी लाइट उपग्रह उड़ाया गया था। 19 इंच ऊँचा, 45 इंच व्यास का, 270 पौंड भारी यह यंत्र यों जरा सा था पर उसमें दो टेलीविजन कैमरे एक टेपरिकार्डर तथा सैकड़ों छोटे वाले ऐसे यंत्र लगे हुये थे जो आकाश में ऋतु प्रवाह सम्बन्धी जानकारियाँ इकट्ठी करके धरती पर भेज सकें, इसमें बीस वाट बिजली की जरूरत पड़ती थी जो सौर बैटरियों से मिलती है। इसने अपने 78 दिवसीय जीवन में, 20 हजार चित्र पृथ्वी पर भेजे थे, जिससे आकाश की वर्तमान स्थिति का और भावी ऋतु परिवर्तन सम्बंधी उतार−चढ़ावों का पूर्वाभास मिल सके।

तब से लेकर अब तक इस दिशा में क्रमशः अधिक बड़े खोज प्रयत्न होते रहे हैं। 4000 पौंड भारी, निम्बस ने भी अपने समय में बहुत जानकारी दी और तदुपरांत ए. टी. एस. उपग्रह ने पृथ्वी से 22,300 मील ऊँचाई पर जाकर अन्तरिक्ष से धरती पर उतरने वाले प्रकृति प्रवाहों की जानकारी का नया अध्याय खोला। तब से लेकर अब तक अधिक विकसित शोध−यंत्र आकाश में उड़ाये जाते रहे हैं। उनके आधार पर आँधी, तूफान, वायु, भ्रमर, समुद्री तटवर्ती तूफान, मानसून आदि की पूर्व सूचनायें अधिक स्पष्टता पूर्वक उपलब्ध होने लगी हैं।

बम्बई में फ्लोरा फउन्टन के निकट एक सत्रह मंजिला भवन उपग्रह संचार व्यवस्था से लाभ उठाने के लिये बना है। इसी व्यवस्था की दूसरी कड़ी पूना से 80 किलो मीटर दूर अरबी नामक ग्राम के समीप बना है। उस व्यवस्था का उद्देश्य अन्तरिक्ष में विचरण करने वाले उपग्रहों के माध्यम से सरलतापूर्वक विश्व−व्यापी संचार व्यवस्था से लाभान्वित होना है। इस माध्यम से विदेशों को फोन करने के 600 चैनल प्राप्त हो सकेंगे और 15 मिनट के भीतर ही दुनिया के किसी भी भाग के साथ टेलीफोन सम्बन्ध जोड़ सकना सम्भव हो सकेगा।

मिडास के बाद अब ‘सामोस’ उपग्रहों की बारी है। ये और भी अधिक तेज हैं। इनमें बहुत ही शक्ति शाली टेलीविजन लगे हैं। वे जमीन के भीतर परमाणु बमों के निर्माण कारखानों को, इस तरह की जानकारी को एकत्रित करते हैं। मानों उन्होंने जमीन के भीतर घुस कर ही वह सब देखा हो। इतना ही नहीं अमेरिका का यह भी दावा कि उसका ‘डाइना सोर’ नया प्रक्षेपास्त्र भी ऐसा अजेय है कि वह किसी भी सुरक्षा अथवा अवरोध को भेद कर निर्दिष्ट लक्ष्य को वेध सकता है।

रूस और अमेरिका के दावे एक दूसरे से बढ़−चढ़ कर हैं, वे अपनी मारक और सुरक्षात्मक उपलब्धियों को प्रतिद्वंद्वी पक्ष से अधिक होने का दावा करते हैं। सैटलाइट इंसपेक्टर, स्काई बोल्ट राकेट—दोनों ही पक्षों ने इतनी अधिक मात्र में छोड़ रखे हैं कि लगता है युद्ध स्तरीय जासूसी की परिधि से बाहर अब किसी का कोई प्रयास शायद ही छिपा रहा हो।

‘यू. एस. न्यूज एण्ड बर्ल्ड रिपोर्ट’ पत्रिका की दी गई एक मुलाकात देते हुये लेफ्टिनेंट जनरल फर्गुरसन ने कुछ दिन पूर्व अमेरिका के अन्तरिक्षीय सैनिक मिशनों का रहस्योद्घाटन किया था। उन्होंने बताया था कि अमेरिका के मिडास उपग्रह रूस की सभी सैनिक गतिविधियों की विधिवत सूचना देते हैं। मिडास का पूरा नाम है, ‘मिसिल डिफेन्स एलार्म सिस्टम’ यह पूरी उपग्रह शृंखला का नाम है, जिसके अंतर्गत अनेक राकेट आकाश में घूमते हुये संसार के विभिन्न स्थानों की, विविध स्तरों की जासूसी करते रहते हैं। ये लगभग दो हजार मील ऊँचाई पर उड़ते हैं और वहाँ से ‘इन्फ्राकेड़ सेन्सर’ प्रणाली के आधार पर ऐसी खोज खबर प्राप्त कर लेते हैं, जो साधारणतया मनुष्य के द्वारा कठिनाई से ही जाने जा सकते हैं।

कोई अणु आक्रमण सफल हो, इससे पूर्व आरम्भ हुई हरकतों की जानकारी यह ‘मिडास’ 28 मिनट पहले ही प्राप्त कर सकते हैं और जवाबी प्रहार के अड्डे आक्रमण सफल होने से पहले ही उसे निरस्त करने के अनेक कारगर कदम उठा सकते हैं।

बहुत दिन पूर्व रूसी प्रधान मन्त्री ने यह घोषणा की थी कि उसका ग्लोब राकेट अजेय है। वह किसी की भी पकड़ में नहीं आ सकता और उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। यह राकेट सीधा नहीं चलता वरन् औंधे तिरछे रास्तों से, आकाश में डूबता उछलता इस तरह चलता है कि उसके उद्देश्य को, दिशा को, स्वरूप को समझ सकना किसी भी जासूसी यन्त्र की सामर्थ्य से बाहर होगा। इसी के जवाब में मिडास शृंखला का ‘नाइक ज्यूस’ प्रक्षेपणास्त्र है, जिससे ग्लोब राकेट को नष्ट न कर सकने की चुनौती स्वीकार की है।

आकाश में उड़ने की उद्दीप्त आकाँक्षा जब कार्य रूप में परिणत होने के लिये तत्पर हो गई तो उसके परिणाम सामने आये। हम हवा में पक्षियों की तरह उड़ सकते हैं और भूतकाल में जो यात्रायें अत्यन्त कष्ट साध्य समय साध्य और धन साध्य थीं, उन्हें सहज ही पूरी कर सकते हैं। उड्डयन के विकास ने सारे संसार को घर−मुहल्ले की तरह निकटवर्ती और विश्व−विस्तार को छोटे परिवार के रूप में परिणत कर दिया है।

मौसम सम्बन्धी सूचनायें पाकर उससे आत्मरक्षा के उपाय खोजे जा सकेंगे। तार, टेलीफोन, रेडियो और टेलीविजन की विश्वव्यापी सुविधा हो जायगी। अडडडड युद्धों की रोकथाम हो सकेगी। अन्तरिक्षीय खोज−खबर पा सकने की सम्भावना बढ़ेगी और न जाने क्या−क्या होगा। ऊँचा उठने की जिज्ञासा जब तत्परता के रूप में कटिबद्ध हो जाती है तो उसके भौतिक लाभ प्रत्यक्ष होते ही हैं, हो भी रहे हैं। जब यह आकाँक्षा आध्यात्म क्षेत्र में उभरती है—मनुष्य ऊँचा उठना चाहता है तो प्रगति का स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि उड्डयन सम्बन्धी उपलब्धियाँ उसके सामने तुच्छ प्रतीत होने लगें।

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