
निरंकुश बुद्धिवाद हमारा सर्वनाश करके ही छोड़ेगा
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बुद्धिवाद की अपनी उपयोगिता है। उसके बिना तर्क, अन्वेषण, परीक्षण और निष्कर्ष तक पहुँच सकना कठिन है। विविध विधि आविष्कारों उद्योगों और क्रियाकलापों का संचालन बुद्धि के आधार पर ही करते हैं। कला, शिल्प, व्यवसाय, प्रभृति क्षेत्रों में बुद्धि वैभव ही अग्रणी है। साँसारिक सम्पदाओं का उपार्जन उसी के आधार पर संभव भी है इसलिए बुद्धि की सूक्ष्म सत्ता विज्ञान की अगणित धाराओं का आश्रय लेकर अनेकानेक सुख सुविधाओं का सृजन करती चली जा रही है। प्रस्तुत प्रगति को बुद्धिवाद की प्रगति कहा जाय तो यह उचित ही होगा। हमारा सारा ध्यान उस शिक्षा प्रशिक्षा के अभिवर्धन पर लगा हुआ है जो बुद्धि को विकसित करके मनुष्य को अधिकाधिक सुयोग्य अधिकाधिक बुद्धिमान बना सके।
बुद्धि की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है। उसका अपना मूल्य है और अपना महत्व। किन्तु यह नहीं भूल जाना चाहिए कि बुद्धि एक मदोन्मत्त हाथी की तरह हैं, इच्छित प्रयोजन का समर्थन करके उसे सुलभ बनाने के लिए ऐसे आधार प्रस्तुत कर सकती है जो उचित को भी अनुचित सिद्ध कर सके। वह प्रत्यक्ष लाभ के ऐसे आकर्षण सामने ला सकती है, जो परोक्ष को, भविष्य को, नीति सदाचरण को चूर्ण विचूर्ण करके रख सके। इसलिए यह माना जाता रहा है कि उस पर हृदयवाद का अंकुश रहना चाहिए। बुद्धिमत्ता को विशुद्ध तर्क पर अवलंबित नहीं रहने देना चाहिए उस पर हृदय का शासन रखा जाना चाहिए। आदर्श वादिता और भावनाओं से रहित बुद्धिमत्ता तो एक प्रकार की कूटनीति ही सिद्ध होगी। उससे तात्कालिक लाभ कुछ भी क्यों न उठा लिया जाय कालान्तर में ऐसी उलझनें ही उत्पन्न होंगी जिन्हें सुलझाना बुद्धिवाद के हाथ में भी न रहेगा।
वस्तु व्यवहार में बुद्धि की उपयोगिता स्वागत करने योग्य है पर जहाँ पर मानवी गरिमा का-समाज व्यवस्था और सद्गुणों एवं सत्प्रवृत्तियों का संबंध है वहाँ बुद्धि का समर्थन नहीं मिल सकता। वहाँ हृदय वाद समर्थ होगा। बुद्धि की कसौटी पर नीति का नहीं अनीति का ही समर्थन हो सकता है, परोक्ष को झुठला कर प्रत्यक्ष को ही मान्यता मिल सकती है ऐसी दशा में स्वार्थ ही सब कुछ रह जायगा, परमार्थ को मूर्खता ठहराया जाएगा। प्रत्यक्ष लाभों के लिए परोक्षवादी आदर्शों को तिलाञ्जलि देने में बुद्धि वादी तर्कों की कोई आपत्ति नहीं हो सकती।
मनुष्य की आहार समस्या को हल करने के लिए पशु पक्षियों का वध करके मांसाहार का समर्थन जोरों से किया जाता रहा हैं, किया जा सकता है। जिनका माँस निकाला जाता है उन्हें कितनी मर्मान्तक पीड़ा सहनी पड़ती है। उनका करुण क्रन्दन कितना रोमांच कारी होता है इसे देखने समझने की बुद्धि को कोई आवश्यकता नहीं। वरन माँस को अधिक बोझिल और स्वादिष्ट बनाने के लिए वध के समय उन प्राणियों को अधिक देर तक अधिक मर्मवेधी पीड़ा देने के उपाय प्रस्तुत करने में बुद्धि का कमाल सामने आता है। पूर्व काल में माँस प्रयोजन के लिए वध किये जाने वाले प्राणी को अधिक समय उत्पीड़न न सहना पड़े यह ध्यान रखा जाता था उसमें नृशंसता के बीच भी थोड़ी सहृदयता के अंश रहते थे। भूखा प्यासा नहीं मारते थे। पर अब सारा आधार ही बदल गया। अब बूचड़खानों की सफलता इस बात में है कि वे प्राणी को कितनी अधिक देर तक कितना अधिक उत्पीड़न देकर कितना उत्तेजित कर सकते हैं। माँस का अधिक वजन और खाने में अधिक स्वाद अधिक उत्पीड़न से ही मिलता है। अब विकसित बूचड़खाने उत्पीड़न का एक से एक अधिक नृशंस वध-विधान ढूँढ़ने और क्रियान्वित करने में लगे हुए हैं। बुद्धिमान, अर्थशास्त्र तथा उपयोगितावाद के तर्क प्रमाण देकर इसका प्रबल समर्थन करता जायगा। प्राणियों के रोमाँचकारी करुण क्रन्दन से गुँजित होने वाले गगन भेदी हाहाकार को सुनने के लिए उसे तनिक भी फुरसत नहीं। शुद्ध स्वार्थ को, भावुकता के कारण छोड़ने की उसे तनिक भी उपयोगिता प्रतीत नहीं होती।
एक-एक करके नैतिक आदर्श इसी प्रकार शुद्ध स्वार्थ की तुलना में झीने पड़ते जाते हैं। बूढ़े माता-पिता की सेवा करने का कोई तुक नहीं, वे अनुत्पादक और अवाँछनीय, उपयोगिता रहित होते हैं। उनसे कमाऊ लोगों की असुविधा बढ़ती है और अनावश्यक श्रम, समय तथा धन उनकी सेवा के लिए खर्च करना पड़ता है। यह भार विकासवान् बुद्धिवाद कब तक सहन करता रहेगा। जिस तर्क के आधार पर अनुत्पादक और वृद्ध पशुओं को छुरी के घाट उतार देने का फैसला कर लिया गया है वे ही तर्क बूढ़े और अनुत्पादक मनुष्यों पर भी लगा होने से रोके न जा सकेंगे। जानवरों के ढंग के न सही अधिक बुद्धिमत्ता और सुविधा भरे बूचड़खाने मनुष्यों के लिए भी बनेंगे। अर्थशास्त्र इसका असंख्य तर्कों के साथ समर्थन करेगा। आज भी वृद्धों की सेवा, क्या सच्चे मन से किसी की संतान करती है। मन ही मन कुड़कुड़ाते हैं पर लोक लाज से उन्हें घर में ही रूखा सूखा देकर आश्रय मिलता रहता है। अगले दिनों इस अर्थशास्त्र विरोधी रूढ़िवादिता को हटाने का प्रबल आन्दोलन चलेगा। पाश्चात्य देशों में इस दिशा में काफी प्रगति भी हो चुकी है। वहाँ बूढ़े अपनी संतान का घर नहीं घेरते। बूढ़ेखानों में भर्ती हो जाते है और मौत के दिन अपने ढंग से पूरे करते हैं। उनका भार उठाये? उतने पैसों से तो जवानों को अधिक कमाऊ बनाया जा सकता है। फिर बूढ़ों को जीवित रखने में उस धन की बर्बादी क्यों हो? सरकारों के अर्थ विभाग इस अपव्यय को रोकना चाहेंगे और लोक मत विक्षुब्ध न हो इसका ध्यान रखते हुए बूढ़ों को ठिकाने लगाने की बात सोचेंगे। हिटलर ने ऐसा किया
भी था, साम्यवादी देशों का चिन्तन इस दिशा में काफी आगे बढ़ चुका है अड़चन केवल भावुक लोकमत की बाधा की है। आशा की जाती है कि विकसित बुद्धिवाद के आगे अगले दिनों किसी प्रकार की भावुकता को बाधक नहीं रहने दिया जायगा और तब वृद्ध-वध का प्रचलन उसी सहज सरलता से होने लगेगा जिस प्रकार अब बूढ़े पशुओं को बूचड़खाने में भेजने में कोई विरोध-आन्दोलन नहीं होता।
भावुकता से और भी कई हानियाँ है। बहिन बेटी का रिश्ता पत्नी के सरल उपयोग में बाधा उत्पन्न करता है। सरल रति-सुख, गृह प्रबंध और स्वभाव, व्यवहार की दृष्टि से अपने ही घर परिवार में पैदा हुए लड़के लड़के अधिक आसानी से दाम्पत्य सुख ले सकते हैं। पतिव्रत और पत्नीव्रत के झंझट में सुविधा कम और असुविधा अधिक है। इन प्रतिबन्धों के कारण हर किसी को यौन-स्वतंत्रता पर अंकुश रखना पड़ता है, और इच्छानुसार आमोद-प्रमोद में बाधा पड़ती है। फ्रायड प्रभृति मनोविज्ञानी रति-सुख विरोधी प्रतिबन्धों को पहले से ही मानसिक रोग उत्पन्न करने वाले हानिकारक प्रचलन बताते रहे हैं। अब मूर्धन्य बुद्धि वादियों का एक बड़ा वर्ग यौन स्वेच्छाचार का समर्थन कर रहा है। अमेरिका ने एक कदम और आगे बढ़ाया है वहाँ कुछ क्लब सह संभोग की सुविधा देने के लिए खुले हैं। विवाहित और अविवाहित नर नारी उसके सदस्य बनते हैं और बिना किसी प्रतिबन्ध के ये यौन स्वेच्छाचार का रस लेते हैं। उनका प्रतिपादन है कि पति-पत्नी मिलजुल कर घर बसाये यह बात दूसरी है पर उन पर किसी प्रकार का यौन प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए।
मनुष्य को अधिकाधिक सुविधायें प्रदान करने में उत्साही बुद्धिवाद देर-सवेर में पतिव्रत के पत्नीव्रत प्रतिबन्धों को भी दकियानूसी ठहराकर ही दम लेगा। तब इस संदर्भ में मनुष्यों और पशुओं की स्थिति एक जैसी होगी। बच्चे सरकार पालेगी, प्रजनन करेंगी। जितने बच्चों की आवश्यकता रहेगी उतने जिन्दा रख कर शेष को कूड़े करकट में फेंक दिया जायगा। प्राचीन काल में अरब के बद्दू लोग देवताओं के नाम पर अनावश्यक संतान की बलि देते थे। बुद्धि वाद भी ऐसा ही करेगा पर उसका आधार देववाद न होकर बुद्धिवाद, तर्कशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाज शास्त्र होगा।
राजनीति का इन दिनों वर्चस्व है। प्रजा पर उसी कार शासन है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियाँ प्रधानतया कूटनीति के आधार पर ही संचालित होती हैं। उनका आधार शुद्ध स्वार्थ होता है। वचन पालन से लेकर सिद्धान्त और आदर्श तक का कोई झंझट उस क्षेत्र में नहीं है। लोकमत को बहकाने के लिए बुद्धिवाद सिद्धान्त पक्ष का आश्रय लेने वाली थोथी दलीलें देता रहता है, पर वह प्रोपेगण्डा मात्र होता है। मूल में विशुद्ध स्वार्थ ही काम करता है। देश-देश के बीच पार्टी-पार्टी के बीच, वर्ग-वर्ग के बीच ऐसी ही शतरंज बिछी है जिसमें सामने वाले को मात देना और अपना उल्लू सीधा करना ही लक्ष्य रहता है। राजनीति में इस प्रकार के व्यवहार की पूरी छूट है। युद्ध काल में भी नीति, अनीति का कोई झंझट नहीं, वहाँ छूट ही नहीं प्रशंसा भी है।
राजनीति और युद्ध जैसे महत्वपूर्ण मंच पर जो स्थान प्राप्त न करें यह कैसे संभव है। बड़े लोगों का अनुगमन छोटे करते ही रहे हैं। मनुष्य-मनुष्य की बीच पति-पत्नी और पिता-पुत्र के बीच मित्र-मित्र के बीच यदि यही मात देने का लक्ष्य लेकर शतरंज खेली जाती है तो यह बिलकुल ल स्वाभाविक है। प्रेम को तो इसी लपेट में बहुत दिन पहले से ले लिया गया है। युद्ध और प्रेम में कोई नियम प्रतिबन्ध नहीं। इसका अर्थ यही है कि प्रेम के जाल में फँसाकर किसी को भी हलाल किया जा सकता है इसमें अनीति नहीं वरन् चतुरता मानी जाने लगी है। समाज सेवा और धर्मावलम्बन जैसे महत्वपूर्ण मंच भी क्रमशः इसी लपेट में आने लगे हैं। लोग शुद्ध स्वार्थ की दृष्टि से ही इनका भी पल्ला पकड़ते देखे जाते हैं। मनोकामनाओं की पूर्ति और स्वर्ग सुख जैसे शुद्ध स्वार्थ यदि झीने पड़ने लगे तो कोई बिरले ही धर्म प्रेमी दिखाई पड़ेंगे।
त्याग, बलिदान, सेवा, संयम पुण्य, परमार्थ जैसे सिद्धान्तों को अपनाने पर ही मनुष्य महामानव बनता हैं। उन्हीं के आधार पर कोई देश, समाज या युग समुन्नत स्थिति में पहुँचता है। उभार, सेवा-प्रवृत्ति, सहयोग, समाजनिष्ठा, चरित्र गठन जैसे उच्च आदर्श अपनाने पर ही व्यक्ति राष्ट्र और विश्व की गरिमा बढ़ती है और सूख समृद्धि की जड़ जमती है। किंतु इन सभी आधारों को बुद्धिवादी प्रखरता काट कर फेंक देती है। समाजहित-राष्ट्रहित का नारा लगाकर व्यक्ति को अच्छा नागरिक और देश भक्त बनने के लिए कहा जाता है। समाजशास्त्र की दृष्टि में यह प्रतिपादन भी रोचक और प्रशंसनीय है, पर जब शुद्ध स्वार्थ ही सर्वोपरि है तो मनुष्य अपने को कठिनाई में डाल कर समाज हित साधन के लिए प्रत्यक्ष लाभ में कमी क्यों पड़ने देगा? जब अनीति आचरण से अधिक सम्पत्ति और अधिक सुविधा अर्जित की जा सकती है तो उसे क्यों छोड़ा जाय। सिद्धान्तवाद में जब लोक बहकावे की बात ही राजनीति और युद्ध प्रयोजन के लिए मान्यता प्राप्त कर गई तो व्यक्ति गत एवं सामाजिक जीवन में ईमानदारी बरतने का क्या प्रयोजन रहा? उस क्षेत्र में भी सिर्फ दूसरों को बहकाने के लिए ही धर्म और ईश्वर की दुहाई क्यों न दी जाती रहे? बुद्धिवाद हमें क्रमशः उसी निम्न गामी मन स्थिति में घसीट के जाता है और अनैतिक आचरण के लिए प्रोत्साहित करता है। हृदय का, भावनाओं का, आदर्शों कमा अंकुश रखे बिना यदि बुद्धिमान बढ़ता ही चला गया तो उससे तात्कालिक सुविधायें भले ही बढ़ जाँय पर उल्झनें और कठिनाईयाँ इतनी अधिक बढ़ेगी कि हम सर्वनाश के कागार पर ही जा खड़े होंगे।