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Magazine - Year 1974 - Version 2

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आत्म और शरीर की भिन्नता जानें ही नहीं माने भी

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शरीर और आत्मा की पृथकता को जानते बहुत हैं, पर मानते कोई-कोई ही हैं। मरने के बाद भी जीवन का अस्तित्व बना रहता है, इसे प्रत्येक धर्मावलम्बी मानता है। हिंदू-धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता को पूरी तरह स्वीकार किया गया है। ईसाई, मुसलमान पुनर्जन्म तो नहीं मानते पर मरणोत्तर-जीवन स्वीकार करते हैं। शरीर न रहने पर भी आत्माओं का बना रहना और ब्रह्म-लोक में प्रलय के दिन उनके क्रियाकलाप को उचित-अनुचित ठहराया जाना उनके यहाँ भी स्वीकारा गया है। इन सभी स्थितियों में मृत्यु हो जाने के बाद भी आत्मा का अस्तित्व बना रहने की बात को माना गया है।

अतीन्द्रिय विज्ञान भी क्रमशः इसी निष्कर्ष की ओर बढ़ रहा है कि कुछ समय पूर्व भौतिक-विज्ञानवेत्ता शरीर से पृथक कोई स्वतन्त्र आत्मा न होने की जिस बात को जोरों के साथ कहते हैं, अब वह बात कुछ दमदार नहीं रही। पूर्वजन्मों की स्मृतियों वाले बालक उन ईसाई और मुसलमान-परिवारों में भी पाये गये हैं, जिनकी परम्परा पूर्वजन्म स्वीकार न करने की ही रही है। कितने ही बालक संगीत आदि की ऐसी अद्भुत प्रतिभा अति न्यून आयु में ही प्रदर्शित करते हैं, जिसका मानव मस्तिष्क-विकास के स्वाभाविक-विकास के साथ कोई ताल-मेल नहीं खाता। इन अद्भुत उदाहरणों का समाधान—‘‘पूर्व-जन्मों की विद्या का अनायास प्रकटीकरण” मानने के अतिरिक्त और किसी प्रकार नहीं होता।

भूत-प्रेतों के अस्तित्व को विज्ञान-समाज में अन्धविश्वास और बहम भर माना जाता रहा है। पर कठोर अन्वेषण की परीक्षा-कसौटी पर खरे उतरने वाले प्रमाण सामने आये हैं, जिनमें भूतात्माओं के अस्तित्व से इन्कार करने की गुंजाइश नहीं रहती। प्रचलित भूतवाद के ढकोसलों में बहुत कुछ ‘बहम’ हो सकता है, पर यत्र-तप ऐसे भी प्रमाण सामने आते हैं—जिन्हें देखते हुए मरक के उपरान्त भी आत्माओं के किसी रूप में बने रहने और हलचलें करने की बात को स्वीकार करना ही पड़ता है।

नवजात शिशुओं में माता का दूध पीने का स्थान ढूँढ़ निकालना आदि कितनी ही ऐसी विशेषतायें पाई जाती हैं, जिन्हें देखते हुए यही मानना पड़ता है कि पूर्व संचित ज्ञान के बिना यह सब अनायास ही नहीं हो सकता। अनुवाँशिकी-विज्ञान में पैतृक-ज्ञान के फलित होने का प्रतिपादन अवश्य है, पर वह भी यहाँ आश्चर्य चकित हैं कि बिना प्रशिक्षण या बिना आधार के जीवनधारियों के बालक कैसे जीवनोपयोगी रीति-नीति सहज ही विकसित कर लेते हैं? पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक आते-जाते रहने वाले पक्षी किस प्रकार डडडड की दुर्लघ्य कठिनाइयों को नपे-तुले ढंग से पार करते हैं और कुछ विशेष प्रकार की ईल जैसी मछलियाँ कैसे सहस्त्रों मील की यात्रा करके प्रणय-प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान पर जाती और फिर वर्षों में पूरी होने वाली उस लम्बी यात्रा को पूरी करके यथा स्थान वापिस लौटती है? प्राणियों के सहज ज्ञान की शृंखला इतनी विलक्षण है कि वंशानुक्रम की सम्भावनाऐं उसका समाधान डडडड नहीं पातीं। जीव-विज्ञानी अब यह सोचने लगे है कि इस संचित ज्ञान का आधार जीवधारियों के पुनर्जन्म से सम्बन्धित होना चाहिए

जो हो, किसी न किसी आधार पर प्रायः हर वर्ग का व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि मृत्यु के बाद ही जीवन का अन्त नहीं हो जाता, वरन् पीछे भी बना रता हैं। शरीर के बिना भी जो जीवित रहता है, उसी आत्मा ही कहा जायगा। इस प्रकार यह मरणोत्तर जीवन की मान्यता आस्तिकों तक ही सीमित नहीं रही, वरन् नास्तिक वर्ग भौतिक प्रमाणों के आधार पर इस तथ्य को क्रमशः स्वीकार करता चला जा रहा है।

प्रश्न यह है कि जब शरीर से पृथक आत्मा को अस्तित्व की जानकारी प्राय सभी को है और हलके भारी मन से उस तथ्य को किसी न किसी रूप में स्वीकार हो जाना है तो हमारा यह प्रयास क्यों नहीं होता कि आत्मा के ऐसे स्वार्थों की ओर भी ध्यान दिया जाय, जो शरीर से ही जुड़े हुए नहीं हो सकते। शरीर-सुख में इन्द्रिय-जन्य वासनाओं की तृप्ति ही मुख्य है। मन की माँग अहंता के पोषण करने वाली वस्तुओं तथा परिस्थितियों को जुटाने की रहती है। मोटे रूप से वासना और तृष्णा ही शरीर-सुख के दो आधार पाये जाते हैं। किन्तु देखा जाता है कि जिनके पास यह साधन प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं, उनका भी अन्त करण इन उपलब्धियों से सन्तुष्ट नहीं होता, वरन् बहुत कुछ मिलने पर भी अशान्त, अतृप्त और उद्विग्न ही बना रहता है। अन्तरंग के मर्मस्थल में यह असन्तुष्ट सत्ता कौन हैं? निस्सन्देह इसे आत्मा ही कहा जायगा।

शरीर की माँग—भूख, वासना और तृष्णा के साधन जुटने पर तृप्त होनी चाहिए। होती भी है। भर पेट स्वादिष्ट आहार मिल जाने पर फिर उसकी अधिक मात्रा खाते नहीं बनती। काम-सेवन आदि की भी एक स्वल्प सीमा है। तृप्ति के बाद उस संदर्भ में भी जी ऊब जाता है, यही बात अन्य सब इन्द्रियों के बारे में भी है। तृप्ति के साधन जुट जाने के बाद भी जो घोर अतृप्त पाया जाता है, वह अन्तरात्मा ही है। उसकी आकाँक्षाएँ शरीर से भिन्न हैं। जब तक उन्हें पूरा करने के साधन न जुटें, तब तक उसका असन्तुष्ट रहना स्वाभाविक भी है। शरीर और आत्मा की भिन्नता और उनके पारस्परिक सम्बन्धों, स्वार्थों को समझने का नाम ही अध्यात्म है। जब तक यह भिन्नता समझी-स्वीकारी न जाय, तब तक मात्र शरीर का पोषण करने वाले प्रयास ही होते रहते हैं। आत्मा की स्थिति और आवश्यकता समझे बिना उसके लिए कुछ सोचा किया भी कैसे जाय?

इसे एक मनोवैज्ञानिक चक्रव्यूह ही कहना चाहिए कि हम अपने आप को भूल बैठे हैं। अपने आप को अर्थात् आत्मा को। शरीर प्रत्यक्ष है, आत्मा अप्रत्यक्ष। चमड़े से बनी आँखें और मज्जातन्तुओं से बना मस्तिष्क केवल अपने स्तर के शरीर और मन को ही देख-समझ पाता है। जब तक चेतना-स्तर इतने तक ही सीमित रहेगा तब तक शरीर और मन की सुख-सुविधाओं की बात ही सोची जाती रहेगी। उससे आगे बढ़कर इस तथ्य पर गंभीरता पूर्वक विचार कर सकना सम्भव ही न होगा कि हमारी-आत्मा का— स्वरूप एवं लक्ष्य क्या है और आन्तरिक प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? क्या किया जा सकता है?

चिरस्थायी और गहन अन्तराल की तृप्ति को शान्ति कहते हैं और शरीर, मन की आकाँक्षा पूर्ति सुख कहलाती हैं। लोग सुख के लिए उछल-कूद करते रहते हैं, किन्तु शान्ति के सम्बन्ध में सोचते भी नहीं। फिर वह मिले कैसे? अशान्त अन्त करण की जलन—सुख-साधनों की कुछ बूँदों से शान्त नहीं हो सकती। यही कारण है कि धनाधीश, सत्ताधारी और सम्मानित व्यक्ति आंतरिक दृष्टि से विक्षुब्ध ही बने रहते हैं। सूक्ष्म तत्वों को देखने-समझने के लिए एक विशेष दिव्य-दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है, अध्यात्म की भाषा में उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। गायत्री-मन्त्र में इसी दिव्य प्रकाश को सविता का भर्ग मानकर उपास्य ठहराया गया है। यह दिव्य-दृष्टि जगे तो शरीर और मन के घेरे से ऊँचे उठकर वस्तु स्थिति को देखना-समझना सम्भव हो सकता है।

मोटी दृष्टि हमें शरीर और मन की परिधि तक ही सीमित रखती है। स्थूल पदार्थों के चिन्तन तक ही उसकी पहुँच है। आत्म-कल्याण की बात उस दृष्टि से सोची जाय तो पञ्च-तत्वों से बने धर्मोपकरणों का, तीर्थ-मन्दिर, दान, उपवास जैसे साधनों का ही उपयोग करने की ही बात सूझती है।

आत्म-शान्ति का स्वरूप क्या हो सकता है? उसकी कल्पना स्वर्ग में आहार, निवास उपभोग के प्रचुर साधनों की परिधि तक ही कल्पना करती है। मानो मरने केक उपरान्त भी आत्मा वर्तमान शरीर को ही धारण किये रहेगी और उन्हीं प्रसाधनों के उपभोग से काम चलेगा। यह बात सूझती ही नहीं कि जब वासना-तृष्णा की साधना सामग्री इस लोक में तृप्ति न दे सकी तो तथाकथित स्वर्ग में बताई गई सुख-सामग्री से आत्मा का क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? इस चिन्तन को बचपन ही कहना चाहिए कि आत्म-शान्ति की आन्तरिक तृप्ति के संदर्भ में भी वासना-तृष्णा के साधन जुटाने वाले तथाकथित स्वर्गीय परिस्थितियों में ही आनन्द और सन्तोष मिलने की बात सोचें।

आत्मा एक दिव्य चेतना स्फुल्लिंग है—जिसे भावनात्मक उल्लास के साधनों में ही तृप्ति मिल सकती है। सद्भावनाओं से प्रेरित सत्प्रवृत्तियों में ही आत्मा की शान्ति का उद्गम केन्द्र है। उत्कृष्ट स्तर का चिन्तन जब कार्यरूप में परिणित होता हैं। तब वह परिस्थिति बनती है, जिसमें आत्मा को शान्ति एवं तृप्ति प्राप्त हो सके। इस प्रकार के आनन्द की आरम्भिक झाँकी स्वाध्याय और सत्संग में मिल सकती है, जो काय-कलेवर और आत्मा की मित्रता का—उनके पारस्परिक सम्बन्धों का विवेचन विश्लेषण कर सके एवं वासना-तृष्णा की सुखलिप्सा से ऊँचे उठकर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता अपना कर आंतरिक उल्लास की उपलब्धि का मार्ग-दर्शन कर सके। विषय-चर्चा से जिस प्रकार कानों को रस मिलता है, मनोरम दृश्य देखकर आँखें जिस प्रकार मुदित होती हैं, उसी प्रकार आत्म-चेतना को उस उद्बोधन में प्रसन्नता मिलती हैं, जिसके आधार पर अन्तःकरण को सद्भावनाओं से ओत-प्रोत बनाया जा सके। आत्म-शान्ति का द्वार तब खुलता है, जब सत्प्रवृत्तियों से भरी-पूरी गतिविधियाँ अपना कर यह अनुभव किया जाता है कि जीवन के स्वरूप और लक्ष्य के अनुरूप गतिविधियाँ अपना कर अपूर्णता से पूर्णता की ओर कदम बढ़ते चल रहे हैं। उच्च भावनाओं के अनुरूप क्रियाकलाप जब बन पड़ता है तो जीवन-क्रम का वह स्वरूप बन जाता है, जिसमें आत्मा को शान्ति और तृप्ति प्राप्त हो सके, वह भव-बन्धनों से मुक्त होकर नर से नारायण बन सके।

शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानना उत्तम है, पर पर्याप्त नहीं। उस ज्ञान का लाभ तब है, जब काय-कलेवर के उचित, आवश्यक स्वार्थों तक ही सीमित रहा जाय और अपनी शेष शक्ति को आत्मिक-शान्ति की, आत्मिक-तृप्ति की, आत्मिक-प्रगति की दिशा में नियोजित किया जाय। कहना न होगा कि यह प्रयोजन उत्कृष्ट-चिन्तन और आदर्श-कर्तव्य अपनाने से ही पूरा हो सकता है। जब आत्मा और शरीर की भिन्नता को—उनकी विभिन्न आवश्यकताओं को समझ ही नहीं लिया जाता, वरन् शरीर की तुलना में आत्मा के महत्व को स्वीकार करते हुए आत्म-कल्याण के प्रयास में तत्पर हुआ जाता है, तब यह माना जाता है कि आत्म-ज्ञान की दिव्य किरणें अन्तःकरण में झाँकने लगीं और आत्मा का स्वरूप जाना ही नहीं गया, वरन् उसका लक्ष्य भी माना गया।

आत्मा-परमात्मा की चर्चा वांग्-विलास के लिए आये दिन होती रहती है। उसकी सार्थकता तभी है, जब शरीर गत स्वार्थों को सीमित करके आत्म-कल्याण के लिए आवश्यक रीति-नीति अपनाने की आकुलता उभरने लगे।

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