
हम पुरखों से हर क्षेत्र में पिछड़ ही नहीं रहें
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पुराने जमाने के लोगों से हम कई बातों में पिछड़े हुए हो सकते हैं।पर यह कहना उचित नहीं कि जमाना हर दिशा में गिरावट की ओर ही जा रहा है। जहाँ तक समस्याओं के सम्बन्ध में दृष्टिकोण का सम्बन्ध है, हम अपेक्षाकृत अधिक सुधरे हुये ढंग से विचार करने लगे हैं।
धर्म प्रचार की बात को ही लें। मुद्दतों तक धर्मदीक्षा के लिए शासन सत्ता और तलवार का उपयोग किया जाता रहा है। अन्य धर्मावलम्बियों की स्त्रियों का अपहरण करके उनसे अपने धर्म वाली सन्तानें पैदा कराने का ढर्रा बहुत समय तक चला है। भारत में ही नहीं एशिया और अफ्रीका में इसी आधार पर लगभग एक हजार वर्ष तक धर्म विस्तार का सिलसिला जारी रहा। उस आतंकवादी पद्धति से सफलता भी बहुत मिली। जो कार्य विचार परिवर्तन की सौम्य पद्धति से धीरे−धीरे और स्वल्प मात्रा में सम्भव होता, वह आतंकवादी तरीकों ने जादू की तरह सम्भव कर दिया। इस निष्कर्ष का परिणाम यह होना चाहिए था कि अपने धर्म को तीव्र गति से विस्तृत बनाने के लिए आतुर लोग इसी तरीकों को अपनाते पर अब ऐसा सम्भव नहीं रहा। दुनिया की विचारशीलता बहुत आगे बढ़ गई है। आतंक के आगे शिर झुकाने का प्रचलन अब नहीं रहा। जागृत लोकमानस में आतंक की नीति शिरोधार्य नहीं की जा सकती। अस्तु पुराना ढर्रा छोड़ कर अब धर्म विस्तार के लिए आतुर लोग भी सौम्य तरीके ही अपनाते हैं।
संगठन की दृष्टि से हम कहीं आगे हैं। पिछली शताब्दियों और सहस्राब्दियों में यदि जनता संगठित रही होती हे मुट्ठी भर आक्रमणकारी, विशाल जनसंख्या वाले देशों को इस प्रकार पददलित करने और गाजर−मूली की तरह काट डालने में सफल न होते, श्रमिकों की हड़तालें उनकी माँग मनवाने के लिए मालिकों को झुका लेती है। यह संगठन शक्ति का चमत्कार है। गान्धी जी के असहयोग और सत्याग्रह आन्दोलन प्रत्यक्षतः अँग्रेज सरकार को परास्त नहीं कर सकते थे पर जनसहयोग के अभाव में अँग्रेजी के लिए, इस देश में टिके रहन असम्भव हो गया। तब वे भलमनसाहत के साथ अपने विस्तर समेट कर यहाँ से चले गये।
पुराने जमाने में अपराधी को दण्ड देने में जो दृष्टिकोण था, वह निर्मम और निष्ठुर ही कहा जा सकता है। चोर को हाथ काट लेने की सजा मिलती थी। आतंक के बल पर अपराधी को तथा दर्शकों को यह सिखाया जाता था कि उसे उत्पीड़न का शिकार होना पड़ेगा। सम्भव है इस प्रकार अपराधों की रोकथाम में अधिक सफलता मिलती हो पर मानवोचित सौहार्द्र और न्याय विवेक का हनन ही होता था। अब दण्ड देने की, वह पद्धति बदल गई। पुराने जमाने में क्या अपराध हुआ, यह देखना पर्याप्त था। अब यह समझना पड़ता है कि अपराध क्यों हुआ? उसका भूल कारण क्या था? अब दण्ड देन में प्रतिशोध का समावेश नहीं किया जाता वरन् सुधार का दृष्टिकोण अपनाया जाता है। कारागारों को सुधारगृहों में परिणत करने का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। सुव्यवस्था के अभाव में भले ही सफलता उतनी न मिली हो फिर भी इतना माना ही जाना चाहिए कि न्याय की आत्मा अधिक सुकोमल बनी है, वह अपराधी को सुधार का अवसर देने के लिए प्रतीक्षा करने का सहमत हो गई है
मनुष्य के समान अधिकारों को स्वीकार करने में हम अपने पूर्वजों की तुलना में कहीं आगे हैं दास,दासी खरीदने, बेचने और दान देने की प्रथा प्रायः सभी देशों में रही है। समर्थ लोग असमर्थों का उपयोग डडडड करते रहे हैं। युद्धों में विजेता लोग सेना और शासक को ही नहीं मारते काटते थे वरन् प्रजा को भी लूटते थे पर वयस्क नर−नारियों को पकड़ कर साथ ले जाते थे और उन्हें गुलामों की तरह बेचते, खरीदते थे। अछूत जातियों को सामाजिक अधिकार नहीं के बराबर थे। अब वैसी प्रथा समाप्त हो गई। गुलाम प्रथा नहीं रही, हर नागरिक अपने मानवी अधिकारों का उपयोग करता है। जहाँ इसमें कभी है वहाँ तीव्र संघर्ष चल रहे हैं और स्थिति उत्पन्न हो रही है कि कल नहीं तो परसों समस्त विश्व में कहीं व्यक्ति मानवी अधिकारों की समानता से वंचित न रहेगा।
नारी जाति के सम्बन्ध में पूर्वजों की अपेक्षा अपनी पीड़ी अधिक प्रगतिशील है। पर्दा प्रथा अब कुछ पिछड़े लोगों की ही मूर्खता बन कर रही है। अब पत्नी की स्थिति पति की खरीदी हुई सम्पत्ति जैसी नहीं रही। विवाह बन्धन में पारस्परिक सहमति भी एक तथ्य बन गई है। तलाक के नियम अधिक से अधिक उदार होते चले जाते हैं। नर तो नारी का उपभोग किसी भी प्रकार करे पर नारी की माँग या आवाज का कोई मूल्य नहीं, अब यह निर्दय कठोरता दिन−दिन घट रही है। यौन स्वेच्छाचार की सुविधा पुरुष को ही मिले,यह प्रतिबन्ध टूट रहे हैं। पतिव्रत ही अब एक मात्र प्रशंसनीय नहीं रहा। पत्नीव्रत को भी ठीक उसी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया गया है और यह अवसर दिया गया है कि या तो इन दानों व्रतों को समान रूप से मान्यता मिले या दानों को हटा दिया जाय। पाश्चात्य देशों ने दानों को हटा देने का फैसला किया है और वहाँ व्यभिचार को जन मान्यता मिल गई है। पुरुष से बहु विवाह का अधिकार छील कर भारत जैसे देशों ने पत्नीव्रत को भी पतिव्रत स्तर की ही मान्यता दी है। यह सन्धिकाल है, परम्पराएँ बदल और बन रही हैं। स्थिरता में देर लग सकती है पर यह तथ्य उभर कर सामने आ ही रहा है कि नर का नारी पर से बाधित आधिपत्य उठ रहा है। विवाह की स्थिरता अब स्वेच्छा सहयोग पर निर्भर होने जा रही है। अब पत्नी का उत्पीड़न पति का एक स्वेच्छाचारी अधिकार नहीं हर सकेगा। चरित्र के सन्देह में यदि पत्नी −पति की हत्या नहीं करती तो पति को भी न्याय की उसी तुला पर अपने वर्चस्व की गर्मी नीचे उतारनी पड़ेगी। दोनों पक्षों के लिए कर्त्तव्य और अधिकार अब एक जैसे ही होकर रहेंगे। नारी के प्रति बरती जाने वाली अनुदारता का अन्त करना निस्सन्देह हम पुरानी पीड़ी से कहीं आगे उदार हो चले हैं।
संप्रदायों, देवताओं और परम्पराओं के कारण मनुष्य मनुष्य के बीच जो भारी मतभेद चल रहे थे और वे विद्वेष विग्रह के रूप में फूट रहे थे, वह कट्टरता अब क्रमशः घटती और मिटती चली जा रही है। समस्त धर्मों की एक ही आत्मा, समस्त देव एक ही ब्रह्म के नाना रूप, समस्त परम्पराओं के मूल में सुविधा एवं औचित्य का आधार तलाश किया जा रहा है और समन्वयवादी, सहिष्णुतावादी विचार–धारा पनप रही है। विश्व धर्म, विश्व संस्कृति, विश्व भाषा, विश्व राष्ट्र का आन्दोलन तेजी से चल रहा है। यह अनुभव किया जा रहा है कि मानव मात्र को एक बनकर रहना चाहिए। अब देश, जाति और सम्प्रदाय की सीमाएँ मानव मात्र की एकता में कम से कम व्यवधान उत्पन्न करे, ऐसा प्रयत्न चल रहा है कहना न होगा कि विचार−सागर में जो ज्वार−भाटे इन दिनों आ रहे हैं, वे विभेद की समस्त दीवारों को तोड़ कर एक विश्व का− मानवी एकता का लक्ष्य पूरा किये बिना न रहेंगे। हम प्रगति की ओर चल रहे हैं। इस दृष्टि से निस्सन्देह हम पुरखों की अपेक्षा कहीं आगे हैं।
कितनी ही बातों में हम पिछड़े भी हैं। स्वास्थ्य, सद्भाव और सदाचार में काफी गिरावट आई है। छल, प्रपञ्च और उद्दंडता ने नैतिक और सामाजिक संकट उत्पन्न कर दिये हैं। विलासिता,फिजूलखर्ची और आलस्य जैसे दुष्प्रवृत्तियां पनपी हैं। यह प्रतियोगिता के चिन्ह हैं। पर शिक्षा का विस्तार दूरदर्शी चिन्तन विज्ञान का विकास और विश्वव्यापी घनिष्टता की कुछ धारायें ऐसी भी हैं जो क्रमशः संसार में अधिकाधिक प्रगतिशील उत्पन्न करेंगे और उन विकृतियों को निरस्त करेगी जो भविष्य को अन्धकारमय बनाये में लगी हुई हैं।
पिछड़े पन का रोना रोते रहना ही पर्याप्त नहीं। हमें इस युग की उपलब्धियां भी समझनी चाहिएँ और विश्वास करना चाहिए हमारा भविष्य भूतकाल की तुलना में अधिक उज्ज्वल ही होने जा रहा है।