
प्राण प्रतिष्ठा (kavita)
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जलते दीप, अँगार धधकते, रक्षासूत्र पुलकते कर में।
प्राण−प्रतिष्ठा हम करते हैं परम्पराओं के प्रस्तर में॥
युग बीते मन के अम्बर पर ऐसी कोई किरण न आई।
प्रतिनिधित्व करती प्रकाश का जिसकी अँगुलि पकड़ जुन्हाई॥
जाग्रत हो उठती चकोर की आँखों में वह रूप पिपासा।
पा जिसकी अनुभूति कमलिनी की हो जाती दूर निराशा॥
धवल ज्योति के दूत बिछा देते सौरभ सरवर−सरवर में।
प्राण−प्रतिष्ठा हम करते हैं परम्पराओं के प्रस्तर में॥
जन्मा था प्रहलाद जिस लिए दुर्दम शंभु−शरासन टूटा।
शरशय्या पर लेट भीष्म ने जिसके लिए मरण सुख लूटा॥
यदुपति ने जिस लिए पार्थ, की समर भीरुता को ललकारा।
वही बोधितरु की छाया से जिसके लिए सुधा की धारा॥
मुखर न हो पाई मनुष्यता की परिभाषा युग के स्वर में।
प्राण−प्रतिष्ठा हम करते हैं परम्पराओं के प्रस्तर में॥
पाकर −त्राण कहाँ संसृति से शाप शृंखला मुक्त शिला ने।
धन्य हुई हूँ मैं जिस रज से तू, उसकी महिमा क्या जाने॥
प्राचीरों में घेर विश्व ने मुझे कौन सा पुण्य कमाया।
भर न सका मुझ में चेतन सा और न निज चैतन्य जगाया॥
सत्य छोड़ता गया उलझता गया नित्य आडम्बर में।
प्राण−प्रतिष्ठा हम करते हैं परम्पराओं के प्रस्तर में॥
जड़ता में केंद्रित जिस दिन तक प्रेम रहेगा इस मानव का।
जब तक नहीं जीव मन्दिर में ढूंढ़ेगा प्रतिबिंब प्रणव का॥
तब तक शाँति और सुख होंगे एक कल्पना पूर्ण कहानी।
सूख सकेगा नहीं युगों तक उत्पीड़ित आँखों का पानी॥
जिसने नहीं दिया धरती को वह क्या पायेगा अम्बर में।
प्राण−प्रतिष्ठा हम करते हैं परम्पराओं के प्रस्तर में॥
—झलकनलाल छैल
*समाप्त*