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Magazine - Year 1974 - Version 2

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सहृदयता के संवर्धन से ही विश्व कल्याण सम्भव होगा

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बुद्धिवाद कितना ही उपयोगी क्यों न हो उसकी गरिमा हृदयवाद से ऊँची नहीं हो सकती। मानवी चेतना का जहाँ तक प्रश्न है, वहाँ तक हृदयवाद को प्रधानता देकर ही चलना पड़ेगा। जहाँ विशुद्ध जड़ प्रयोजनों की बात है, वहाँ एकाकी बुद्धि को भी मान्यता दी जा सकती है, पर जब प्रश्न जीवित चेतना मनुष्यों, प्राणियों की समस्या पर विचार करना हो, तब हृदयवाद को मान्यता देने से ही काम चलेगा। मनुष्य को जड़ पदार्थ मान कर ही एकाकी बुद्धिवाद के सहारे उसकी समस्याओं का हल सोचा जा सकता है। यदि जीवधारियों की चेतना को भी महत्व देना है तो उसके उत्कर्ष का प्रयोजन हृदयवाद का—परिष्कृत भाव, आदर्श को साथ लेकर ही चलना पड़ेगा।

कृषि, शिल्प, रसायन, उद्योग जैसी भौतिक प्रक्रियाएँ बुद्धिवादी शोध प्रयोग को ध्यान में रखते हुए सुलझाई जाँय, यहाँ तक दो मत नहीं हो सके, पर जब यह प्रश्न सामने आये कि जीवधारियों के स्तर को कैसे ऊँचा उठाया जाय तो उसका समाधान हृदय को प्रधानता देकर ही खोजना पड़ेगा। अन्यथा ग्रन्थियों को सुलझाने की दृष्टि से किये गये प्रयत्न उलटे और अधिक उलझन पैदा करेंगे।

पशु प्रवृत्तियाँ स्वार्थपरता को आधार लेकर ही चलती हैं अस्तु उन्हें अविकसित और अभाव−ग्रस्त स्थिति में ही रहना पड़ता है। शरीर की दृष्टि से अधिक मजबूर होते हुए भी वे प्रकृति प्रकोप का ग्रास अधिक रहते हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में उनकी शारीरिक, मानसिक क्षमता कोई कारगर सुरक्षा व्यवस्था नहीं हो पाती और न किसी प्रकार की प्रगति ही सम्भव होती है। आदिमकाल में वे जिस स्थिति में थे लगभग उसी स्थिति में रह रहे है। प्रकृति के दबाव से शरीर रचना और अभिरुचि में थोड़ा अन्तर भले ही आया हो, उनकी परिस्थितियों में कोई विशेष सुधार नहीं हो सका, इसका कारण उनकी चेतना का स्वार्थ चिन्तन तक सीमित रहना ही है। मनुष्य ने प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए सृष्टि का मुकुटमणि बनने की जो अद्भुत सफलता पाई है, उसका मूल कारण उसकी बुद्धिमत्ता नहीं−सहृदयता है। परस्पर स्नेह सहयोग की प्रवृत्ति ने एक दूसरे के साथ घनिष्ठतापूर्वक रह सकने की स्थिति उत्पन्न की और एक ने दूसरे के अनुभव से लाभ उठाकर अपनी ज्ञान सम्पदा को आग बढ़ाया है। बुद्धि प्रधानता ने सहयोग बढ़ाया, यह कथन अवास्तविक है। तथ्य यह है कि मनुष्य की सहृदयता क्रमशः आगे बढ़ती गई और स्नेह सहयोग की प्रकृति ने मिलजुल कर एक दूसरे को अपने अनुभव अनुदानों से लाभान्वित करने का कदम बढ़ाया। भाषा, लिपि, अग्नि, कृषि, पशुपालन, औजार, उपकरण, अन्न, वस्त्र, निवास जैसी प्रगति के मूल−भूत आधारों का आविष्कार परस्पर सहयोग के आधार पर ही संभव हो सका है। बुद्धिमत्ता वस्तुतः सहृदयता की बेटी मात्र है।

वनमानुषों की आकृति−प्रकृति मनुष्यों से मिलती−जुलती है पर वे सघन सहयोग के क्षेत्र में आगे न बढ़ सके और पिछड़ी स्थिति में पड़े रहे। चिंपेंजी, गुरिल्ला बानरों को मनुष्य का पूर्वज कहा जाता है उनकी शरीर रचना और मन संस्थान मानव प्राणी से बहुत कुछ मिलता−जुलता है। फिर भी उन्हें वनवास का दण्ड मिला, इसका कारण सहृदयता की पुण्य प्रवृत्ति से वञ्चित रहने का पाप ही कहा जा सकता है। कुछ नर बालक—जहाँ तहाँ वन्य पशुओं द्वारा पालित किये गये पाये गये हैं, उनमें पूरी तरह उन पालनकर्ता पशुओँ जैसी ही प्रवृत्ति और बुद्धि मिली है। इससे स्पष्ट है कि बुद्धि कोई स्वतन्त्र तत्व नहीं सहयोग, संपर्क की प्रतिध्वनि मात्र है। बच्चे अपने अभिभावकों की भाषा में ही बोलना आरम्भ करते हैं, इससे स्पष्ट है। उच्चारण स्वतन्त्र नहीं वरन् पूर्णतया परावलम्बी है। जो बच्चे बहरे होते हैं उन्हें गूँगा भी रहना पड़ता है। शब्दों को वे सुन नहीं सकते तो फिर नकल बना कर बोलना आरम्भ कैसे करें। मनुष्य समाज की एक अविछिन्न इकाई है, परिस्थितियों का दास है—वातावरण ही उसे उठाता−गिराता है। आदि प्रतिपादन विभिन्न प्रकार से किये जाते रहते हैं। उन्हें तथ्य ही मानना चाहिए। मान्यताएँ, अभिरुचियाँ, आस्थायें, आकाँक्षायें, प्रवृत्तियाँ किसी के मन में अनायास ही नहीं उठ पड़तीं, वे समीपवर्ती वातावरण से ग्रहण की जाती हैं। मनुष्य के भले−बुरे होने का श्रेय अथवा दोष सम्बद्ध परिस्थितियों को दिया जाता है। स्वाध्याय और सत्संग की महिमा इसी आधार पर गाई गर्ठ है कि उन माध्यमों से आदर्शवादी रीति−नीति अपनाने की प्रेरणा मिलती है। कुसंग से पतन वाला तथ्य भी सर्वमान्य है। अपवाद तो किसी भी क्षेत्र में पाये जा सकते हैं पर सर्वमान्य प्रक्रिया यही है कि उत्कर्ष और अपकर्ष का— स्वभाव और रुझान का बहुत बड़ा आधार सम्बद्ध जन−समूह से मिलने वाली प्रेरणा ही रहती है। इन तथ्यों पर जितनी अधिक गम्भीरता से विचार किया जाय उतनी ही अच्छी तरह यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य की प्रगति मनः स्थिति और गति विधि का निर्माण पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही विनिर्मित होता है।

यह सहयोग कहाँ से? कैसे? क्यों? उत्पन्न हुआ, इस तथ्य पर किया गया गहनतम चिन्तन हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि सहृदयता ही उदार सहयोग के लिए प्रेरित कर सकती है। आदर्शवादी प्रवृत्ति ही दूसरों के साथ सेवा, सहयोग, स्नेह एवं अनुदान भरा उदार व्यवहार करने की प्रेरणा देती है। शुद्ध स्वार्थ ही यदि मूल प्रकृति रही हो उस संघर्ष में हर किसी को अपने ही लाभ को प्रधानता देनी पड़ेगी, ऐसी दशा में संघर्ष प्रधान रहेगा और सहयोग कभी नहीं पनपेगा। मत्स्य न्याय से एक दूसरे को खाते तो रहेंगे पर कोई किसी के सुख−दुख में भाग न लेगा। समुद्र में रहने वाली बहुसंख्यक और विशालकाय मछलियों में यदि सहयोग रहा होता— वे एक दूसरे के सुख−दुख में शामिल रहने की आवश्यकता समझ गई होतीं तो मनुष्य को समुद्र में पैर धरने की भी हिम्मत न पड़ती। मछलियाँ सहज ही छक्के छुड़ा देतीं। शहद की मक्खियों का उदाहरण सामने है, उनके छत्ते में हाथ डालने का सहास बड़ी कठिनाई से ही किया जाता है। जिन पशुओं में आपत्ति के समय एक होने जितनी भी भावनाएँ है उन्हें छेड़ना किसी भी आक्रमणकारी के लिए महंगा पड़ता है।

यों सहयोग का एक सामयिक आधार, पारस्परिक आदान−प्रदान भी होता है पर उसकी कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं होती। दोनों पक्ष काम चलाऊ समझौते के आधार पर अपना श्रम अथवा धन एक दूसरे को देते रहते हैं फलतः सुविधाओं का परिवर्तन चल पड़ता है, अर्थ शास्त्र की धुरी यही है। किन्तु अधिक सघन सहयोग जिसके आधार पर अपनी सुविधाओं का त्याग कर दूसरों को लाभान्वित करने की आकाँक्षा रहती है, वही मनोभाव है जिसे स्नेह अथवा सहृदयता के नाम से पुकारा जाता हैं। माता अपनी संतान को इसी भाव से पालती है। मित्र मित्र के लिए इसी वृत्ति से प्राण निछावर करते हैं। सन्त, सुधारक, सैनिक और शहीद इसी भावना से प्रेरित हो कर स्वयं कष्ट उठाते हुए समाज की सुख−शान्ति के लिए बढ़े−चढ़े त्याग−बलिदान प्रस्तुत करते हैं। महामानवों में यही प्रवृत्ति समुन्नत स्तर पर होती है। सेवाभावी और दान वीरों द्वारा जो लोकमंगल के लिए सराहनीय सत्साहस प्रदर्शित किये जाते हैं, उसमें आदर्शों के लिए लोकमंगल के प्रति पीड़ित मानवता के प्रति उदार सहृदयता ही उल्लास भरी भूमिका प्रस्तुत करती है।

मानव जाति की भूतकालीन प्रगति इसी प्रवृत्ति का सहारा पाकर आज की स्थिति तक बढ़ती आई है। उसमें जब कभी जितना भी व्यवधान पड़ा है— संकीर्ण स्वार्थ द्वारा ही डाला गया है। उदार चेतना महामानव ही इस विश्व की सच्ची विभूतियाँ हैं। क्यों कि उन्हीं के उत्कर्ष ने समाज को अनुकरणीय और प्रभावोत्पादक प्रेरणाएँ दी होती हैं। क्षमता को स्वार्थ में खर्च कर डालने कोई व्यक्ति या परिवार सुख−साधनों का उपयोग कर सकता है पर जब वह उन्हें अपने लिए खर्च करने का तप संयम एवं अपरिग्रह का साहस करके परमार्थ में अपनी विभूतियों का समर्पण करता है तो समस्त समाज में आशा भरा नव−जीवन संचार होता है। उस अनुदान से लोकमंगल के कितने ही महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरे होते हैं। सबसे बड़ी बात यह होती है कि उस आदर्शवादी अनुकरण की लहरें उमड़ती हैं और अन्य असंख्यों को उसी मार्ग पर चलने की उमंग उत्पन्न करती हैं। यही वह प्रचलन है जिसके आधार व्यक्ति, समाज एवं युग को समुन्नत ही नहीं धन्य बनने का भी अवसर मिलता है।

इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठ है, उसे सहृदयता की ही प्रतिक्रिया समझा जाना चाहिए। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की आस्था विकसित हुए बिना कोई मनुष्य न तो आत्म−संयम के लिए तैयार होगा और न अपनी उपलब्धियों को सेवा प्रयोजनों में प्रयुक्त करने के लिए सहमत होगा। आपाधापी ही ऐसी दिशा में एक मात्र नीति बन जायगी। तब स्वार्थों का संघर्ष दिन−दिन विकट होता जायगा। स्वार्थवादी बुद्धिमत्ता विकसित होते−होते एक दूसरे को फाड़ खाने की स्थिति उत्पन्न करेगी। सर्वत्र आशंका और अविश्वास का वातावरण छाया रहेगा। छल और आक्रमण की सम्भावना हर दिशा में छाई हुई दृष्टिगोचर होगी तो कोई चैन और आनन्द का अनुभव कहाँ से कर सकेगा। हिंसक पशुओं के बीच घिरे हुए छोटे वन−जीव निरन्तर आतंकित रहते हैं, उसी स्थिति में स्वार्थी समाज के हर सदस्य को रहना पड़ेगा। बुद्धिवाद का परिणाम स्वार्थ साधन के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रत्यक्ष लाभ उसी में है। परमार्थ में तो भौतिक दृष्टि से अपनी हानि ही होती है। उदारता बरतने से अपने को तो घाटा ही पड़ता है। ऐसी दिशा में उसे कोई क्यों अंगीकार करेगा। परमार्थ की विडम्बनाएँ भी यश पाने और उस आधार पर दूसरों को प्रभावित करके परोक्ष लाभ उठाने की वृत्ति से होती रहती है। पर उस छल कौतुक से कोई ठोस प्रयोजन सिद्ध नहीं होते।

आदर्शवादी परम्पराओं के प्रचलन का आधार एक मात्र सहृदयता ही हो सकती है। बुद्धि से भी समाज हित की दुहाई देकर परमार्थ प्रयोजनों का समर्थन तो किया, कराया जा सकता है पर वैसा करने की प्रेरणा उत्पन्न करना असम्भव है। विशुद्ध बुद्धिवादी को विशुद्ध स्वार्थी ही बनना पड़ता हे और विशुद्ध स्वार्थ साधन की मनोवृत्ति का पतन और समाज का स्तर गिराने में कितनी भयंकर सिद्ध हो सकती है, इसे आज सर्वत्र छाई हुई अगणित विभीषिकाओं के रूप में हम सहज ही जान सकते हैं। यदि यही क्रम चलता रहे तो हमें पिशाच बन कर सामूहिक आत्म−हत्या के लिए अग्रसर होना होगा अथवा पशु−प्रवृत्ति अपना कर आदिमकाल की अविकसित स्थिति में पहुँच कर वनमानुषों की तरह रहना पड़ेगा।

सहृदयता का महत्व बुद्धिमत्ता से घट कर नहीं बढ़ कर ही माना जाना चाहिए और यह अनुभव किया जाना चाहिए कि मानवी आदर्शों को, प्रगति के चिरस्थायी आधारों की, सुख−शान्ति को, सन्तोष और आनन्द को एक मात्र इसी आधार पर जीवित रखा जा सकता है कि सहृदयता की महान प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करने के लिए उससे भी कहीं अधिक प्रयास किया जाय जैसा कि बुद्धिमत्ता को विकसित करने के लिए किया जा रहा है। बुद्धि वृद्धि के लिए स्थापित शिक्षा संस्थानों की तुलना भाव संवर्धन के चेतना केन्द्रों को, धर्म संस्थानों को, अध्यात्म के प्रयोग प्रयत्नों को अधिक ही बढ़ावा दिया जाय—कम नहीं। विश्वास, सहानुभूति, सहिष्णुता, सहकारिता, चरित्र निष्ठा, नम्रता, सज्जनता, उदारता एवं सेवा साधना जैसी सत्प्रवृत्तियाँ, सद्भाव, संवर्धन के प्रयत्नों के साथ ही जुड़ी हुई हैं। कहना न होगा कि मानव चेतना भौतिक पदार्थों से नहीं सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का खाद पानी पा कर ही जीवित रह सकती है, विकसित हो सकती है। इसी विकास पर विश्व−मंगल का सारा आधार टिका हुआ है।

गान्धीजी कहते थे—हृदय बुद्धि और श्रम तीनों के समन्वय में ही मानव जाति का हित है।” अकेले बुद्धिवाद की प्रतिष्ठा अवाँछनीय है। सहृदयता का, भावनात्मक उत्कर्ष का अध्यात्म तत्व दर्शन भी उससे अधिक आवश्यक है। बुद्धि और हृदय का समन्वय इतना सघन होना चाहिए कि उसे सत्कर्म सत्प्रवृत्तियों के रूप में सर्वत्र बिखरा हुआ देखा जा सके। इस समन्वय पर ही जननीन, सार्वभौम कल्याण निर्भर है।

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