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Magazine - Year 1974 - Version 2

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Language: HINDI
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मनोविकारों का अवरोध हमें अपँग बना देता है

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मस्तिष्क की आन्तरिक स्थिति में थोड़ा सा भी अवरोध अड़ जाने का परिणाम शरीर को तत्कालिक और दुष्परिणामों का परिचय हमें प्राप्त है। क्योंकि वह अधिक स्पष्ट और अधिक प्रत्यक्ष होता है। मस्तिष्क का सम्बन्ध एवं नियन्त्रण शरीर के प्रत्येक अवयव के साथ इतना अधिक है कि उसे हृदय से भी अधिक महत्व दिया जा सकता है। हृदय में अवरोध उत्पन्न हो जाने पर सामयिक कष्ट तो बहुत होता है और पूर्ण विश्राम से लेकर सतर्क उपचार की आवश्यकता पड़ती है। मस्तिष्क सम्बन्धी गड़बड़ी का प्रतिफल इससे अधिक है, उसके कारण लकवा सरीखे ऐसे रोग हो सकते हैं जो जीवन को अपंग एवं निरर्थक ही बनाकर रख दें।

लकवा पक्षाघात का अर्थ है मस्तिष्क के किसी भाग का काम करने में असमर्थ हो जाना। शरीर के अन्य भागों की तरह ही मस्तिष्क भी आवश्यक मात्रा में रक्त एवं आक्सीजन की समुचित मात्रा मिलने रहने से ही जीवित रहता है। यह खुराक किसी वजह से बन्द हो जाय तो वह भूखा अंग सूखने लगेगा। मस्तिष्क के किसी हिस्से में रक्त वाहिनी शिराएँ ताजा रक्त पहुँचाना बन्द कर दे तो वह भाग सूख जायगा और उस भाग के द्वारा शरीर के जितने हिस्सा का नियन्त्रण संचालन होता था, वहाँ की गतिविधियाँ ठप्प हो जायेंगी। यही है लकवा का निरूपण।

आहार−विहार के असमय से रक्त वाहिनी शिरायें, शिथिल और मलविक रों से अवरुद्ध होने लगती हैं, उनका पोलापन घट जाता है। रक्त संचार का क्रम तेजी से न होने से उसमें गाढ़ेपन के साथ−साथ छोटे−छोटे थक्के बढ़ जाते हैं। यह थक्के सिकुड़ी−नाड़ियों में अड़ जायँ तो रक्त प्रवाह रुकेगा ही और मस्तिष्क का जो अंग भूखा मरेगा उसका प्रभाव क्षेत्र लकवा ग्रसित हो जायगा। दिल की बीमारियाँ भी धमनियों की स्थिति गड़बड़ा देती हैं और उनसे भी लकवे की आशंका बढ़ जाती है। कई बार दुबली और कमजोर पड़ी धमनियां थोड़ा सा ही दबाव बढ़ जाने से फट जाती हैं और रक्त मस्तिष्क में बिखर जाता है। इससे नियत स्थान पर रक्त पर का न पहुँचना और शिर फटने से फैले हुए रक्त में अन्य अवयवों का डूब जाना यह दोनों ही स्थिति खतरनाक है। इससे प्रायः पूरे मस्तिष्क पर न्यूनाधिक मात्रा में बुरा प्रभाव पड़ता है और बढ़ती हुई मूर्छा यदि काबू में न आई तो मृत्यु का कारण बन जाती है। रक्त चाप का अत्यधिक बढ़ जाना भी कई बार मस्तिष्क की किसी नस के फट जाने का कारण होता है।

मस्तिष्क के जिस हिस्से में रक्त भिषरण का रुका होगा, उसी से सम्बन्धित अंगों पर लकवे का प्रभाव देखा जा सकेगा। मोटेतौर से मस्तिष्क के तीन हिस्सों में विभक्त कर सकते हैं, दो गोलार्ध एक वृत्त। गोलार्धों में स्वेच्छित क्रियाओं के संचालक केन्द्र हैं। आयें गोलार्ध से शरीर का दाहिना हिस्सा और दायें गोलार्ध से शरीर का बायाँ हिस्सा सम्बन्धित हैं। मस्तिष्क के जिस भाग में गड़बड़ी हुई होगी। बहुत करके एक ही गोलार्ध रुग्ण होता है, इसलिए शरीर का एक अंग ही अधिक पीड़ित होता है। चूँकि दोनों भाग परस्पर जुड़े हुये हैं इसलिये एक का प्रभाव दूसरे पर कुछ तो पड़ना ही चाहिए, इसलिये रोगी तो दोनों ही हिस्से होते हैं। पर एक पर अधिक और एक पर कम असर होता है। दोनों हिस्सों पर समान रूप से लकवे का असर हो, ऐसा भी हो तो सकता है पर होता कम ही है। दोनों वृत्तों पर समान रूप से प्रभाव पड़ने की घटनायें होती हैं पर होती हैं कम ही।

तीसरे भाग ‘वृत्त’ में मध्य मस्तिष्क, सेतु, सिकेबलय और मेरु शीर्ष होते हैं। शरीर का सन्तुलन बनाये रहना विभिन्न अवयवों से अनेक क्रियाकलाप का विधिवत संचालन कराना, इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालना जैसे महत्वपूर्ण कार्य इस ‘वृत्त, भाग से ही सम्बन्धित हैं।

मस्तिष्क के भीतरी विभागों की संरचना और क्रिया−प्रक्रिया समझ लेने पर यह जानना आसान हो जाता है कि लकवे के मरीज में जो कष्ट चिन्ह दिखाई पड़ रहे हैं, उनका उद्गम मस्तिष्क के किस स्थान पर होना चाहिये। यों उपरोक्त तीन भागों वाला विभाजन बहुत ही स्थूल है और उनमें से प्रत्येक के भीतर अगणित केन्द्र−उपकेन्द्रों की जटिल शृंखला जुड़ी हुई है। उन्हीं में जब, जहाँ, जितनी विकृति आती है, तब रोगियों में लकवे के विभिन्न स्तराय लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। हाथ−पैरों का न हिलना, गरदन का न मुड़ना, शरीर में सुन्नता या झुनझुनी, निगलने में कठिनाई, जीभ का लड़खड़ाना, कुछ का कुछ दीखना, स्मरण शक्ति खो जाना, सोचने−समझने की क्षमता का लड़खड़ा जाना जैसे अनेक अवरोध लकवा के रोगियों पर सवार रहते हैं। मल−मूत्र त्याग और प्यास तक की आवश्यकताओं को वे अनुभव नहीं कर पाते। नींद का उड़ जाना या झपकी सी ही लगी रहना भी किन्हीं−किन्हीं रोगियों को होता है। किसी धमनी के फट जाने से मस्तिष्क के भीतरी भाग में यदि रक्त भर कर जम गया है तो फिर उस कारण उत्पन्न हुई मुर्छा को जगाना कठिन हो जाता है, हाँ कोई छोटा थक्का जम गया हो तो उसका प्रभाव सीमित रहेगा और स्थानीय गर्मी उसे पिघला कर इधर−उधर भी बखेर देगी।

अधिकतर लकवा मस्तिष्क में रक्त फेंकने वाली धमनी में रक्त का थक्का अड़ जाने के कारण उत्पन्न होता है। रक्त में यदि फुटकी पड़ने वाला गाढ़ापन न आये और धमनियों की नाली सिकुड़ती न चली जाय, कठोर न हो जाय तो लकवे की फिर कोई आशंका न रहेगी। यह विकृतियाँ धीरे−धीरे पनपती रहती हैं और आरोग्य की जड़ खोखली करती रहती हैं। लकवा तो उस विकार संग्रह का अन्तिम विस्फोट है। दिल के रोगियों के इस खतरे में फँस जाने का सम्भावना प्रायः बनी रहती है।

कुछ हलके प्रकार के लकवे स्थानीय होते हैं, जैसे बोलने में तुतलाने लगना, हाथों का काँपना, दुहरा देखना, सिर में चक्कर आते रहना आदि।

पक्षाघात की भयंकरता से हर कोई परिचित है। उसका मामूली सा झोंका मनुष्य की अपंग एवं पराधीन बना देता है, स्थिति अधिक बिगड़ी हुई हो तो मरण की ही कामना, प्रार्थना ही की जाती है। यह स्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इसकी गहराई में जाया जाय तो यही तथ्य सामने आता है कि मस्तिष्क की किन्हीं कोशिकाओं में अवरोध उत्पन्न हो उन्हें उचित पोषण न मिला, फलस्वरूप सम्बद्ध अवयव को लकवा मार गया।

मस्तिष्क का पोषण मात्र रक्त से ही नहीं होता, जहाँ तक उसके चिन्तन पक्ष का सम्बन्ध है, उच्चस्तरीय विचारणाओं का संचार भी मस्तिष्कीय कोशिकाओं में होने वाले रक्त संचार की तरह ही आवश्यक है। चिन्तन का उपयुक्त प्रकाश न मिलने पर ऐसा अवरोध उत्पन्न हो जाता है, जिससे सर्वांगीण विकास के किन्हीं महत्वपूर्ण आधारों को लकवा ही मार जाय और व्यक्ति को गई गुजरी हेय घृणित तथा दयनीय परिस्थिति में पड़े रहने के लिए विवश होना पड़े।

मनः क्षेत्र में स्वस्थ प्रवाह संचार के लिए उदात्त दृष्टिकोण का समावेश नितान्त आवश्यक है। यदि उसमें घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, निराशा, चिन्ता, क्रोध, आवेश जैसे अवरोध अड़ेंगे तो ठीक वही स्थिति उत्पन्न हो जायगी जो शिराओं में रक्त के थक्के अड़ जाने पर लकवा मार जाने की विभीषिका के समय उत्पन्न होता है। दुर्भावनाओं से ग्रसित मनः स्थिति रख कर हम प्रतिपक्षी का उतना नुकसान नहीं कर सकते, जितना कि अपना कर लेते हैं। जिन कारणों से मनःसंताप उत्पन्न हुआ है यदि उनका निवारण अभीष्ट हो तो पहला कदम यही उठाना होता है कि अपना मानसिक संतुलन सहा करें ताकि समाधान का उपयुक्त आधार खोज निकाला जा सके। उद्विग्नता की स्थिति में अवरोधों से निपटने का रास्ता ढूंढ़ पाना तो एक प्रकार से अशक्य ही हो जाता है, उलटे दुहरी विपत्ति यह आ जाती है, उद्वेगों का आवेश रक्त के थक्के बन कर सम्वेदनशील शिराओं में ही अवरोध कर दें तो हमारी दूरदर्शिता हाथ से चली जायगी और ऐसा संकट सामने आ खड़ा होगा, जिसके कारण लकवे जैसी दयनीय अपंग स्थिति में ग्रसित हो जाना पड़े।

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