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Magazine - Year 1976 - Version 2

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साधना का उद्देश्य और स्वरूप समझा जाय!

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पदार्थों के अनगढ़पन को दूर करके उन्हें सुव्यवस्थित बनाने का कार्य विज्ञान ने किया था। यदि यह प्रयास न किये गये होते तो मनुष्य आज भी बन्दरों जैसे जिन्दगी जी रहा होता और यह धरती उतनी ही असुन्दर रही होती जितनी कि सृष्टि के आरम्भिक दिनों में थी मनुष्य के आहार-बिहार को-रहन-सहन एवं रीति-नीति को सभ्यता एवं संस्कृति के अन्तर्गत सुव्यवस्थित बनाया गया है। शिक्षा, चिकित्सा, कला, शिल्प, उद्योग, विज्ञान, समाज, शासन की सुव्यवस्था ने मनुष्यों का सुव्यवस्थित रीति से रहने और सुनियोजित पद्धति से विकसित होने का अवसर दिया है। इन प्रयासों को भौतिक प्रगति की साधना कहा जा सकता है। यदि यह सब न बन पड़ा होता तो आदिमकाल के पिछड़ेपन से आगे बढ़ सकने का अवसर कदाचित अभी तक भी न आ पता।

आत्म-चेतना के स्वरूप, उद्देश्य और दिशा धारा के निर्धारण में अध्यात्म विज्ञान के तत्व दर्शन ने भारी योगदान दिया है। नर-कीटक एवं नर-पशु के स्तर के अनगढ़ मनःस्तर को-चिन्तन को नैतिक एवं उपयोगी मर्यादाओं में बाँधने का-आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने के लिए उपयुक्त प्रशिक्षण ब्रह्मविद्या के अन्तर्गत किया गया है। उसी आधार पर यह सम्भव हो सका कि सामान्य स्तर का मनुष्य तनुधारी जीव अपनी प्रतिभा एवं प्रखरता को समुन्नत बनाते हुए महामानव कहलाने का अधिकारी बने। जीवात्मा से क्रमिक विकास करते हुए महात्मा- देवात्मा एवं परमात्मा के स्तर तक पहुँचे। आत्म-विज्ञान के अन्तर्गत चेतना को समुन्नत बनाने वाले सभी प्रयास आते हैं। उन्हें अध्यात्म साधना कहते हैं। संक्षेप में साधना भी इसी का नाम है। साधना के आधार पर मानवी चेतना मात्र जीवन निर्वाह भर के क्रिया-कलापों में उलझी न रहकर उस स्तर पर पहुँच सकती है। जहाँ से बाहर ब्रह्मसत्ता की प्रतीक प्रतिनिधि होने का दावा कर सके। उसी स्तर के अनुरूप अपने वर्चस्व का परिचय दे सके।

उपयोगिता की दृष्टि से जितना महत्व भौतिक प्रगति एवं व्यवस्था का है उससे अधिक महत्व आत्म-चेतना के परिष्कार का है। पदार्थ का उपयोग तो चेतना ही करती है। यदि इस मूलसत्ता का स्वरूप ही अनगढ़ एवं विकृत बना रहा तो फिर पदार्थों का बाहुल्य होते हुए भी उनका सदुपयोग न हो सकेगा और दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बनते देखा गया है। चेतना कर स्तर ऊँचा हो तो आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण अभावग्रस्त परिस्थितियों एवं प्रतिकूलताओं के बीच रहते हुए भी हँसता-हँसता हलका-फुलका जीवन जिया जा सकता है। इसके विपरीत अन्तः क्षेत्र में विकृतियाँ भरी रहीं- अनगढ़पन बना रहा तो फिर रावण जैसा वैभव होने पर भी नारकीय दुर्गति का वातावरण बनेगा। अस्तु विचारशीलों के भौतिक प्रगति के लिए किए गये साधना प्रयासों की तुलना में आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले पुरुषार्थ को असंख्य गुना महत्वपूर्ण बताया है।

ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण जीव में अपने पिता की सभी विशेषताएँ विद्यमान हैं। छोटे शुक्राणु में समूचे मनुष्य का परिपूर्ण ढाँचा विद्यमान रहता है। परमाणु के घटकों में पूरे सौर-मण्डल स्तर की गतिविधियाँ काम कर रही होती हैं। बीज में समूचे वृक्ष का ढाँचा विद्यमान रहता है! इस अखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त भौतिक शक्तियों एवं आत्मिक विभूतियों का जो भाण्डागार भरा पड़ा है, वह बीज रूप में मानवी सत्ता के भीतर विद्यमान है। ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप-पिण्ड मनुष्य कलेवर है। इसके गर्भ में ब्रह्म चेतना की सभी विशेषताएँ एवं क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में मौजूद हैं। आत्म-साधना के द्वारा इस प्रसुप्ति को जागृति में बदला जा सकता है। सामान्य से असामान्य बन सकने की इस प्रक्रिया को आत्मा-साधना का एक अंग कहा जा सकता है। अतीन्द्रिय क्षमता का विकास-अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियों का दिव्य वरदान इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आता है।

आत्म-साधना भारतीय विज्ञान की भौतिक विशेषता है, इसी आधार पर इस देश के तैंतीस कोटि नागरिक देव मानवों में गिने जाते थे और उनकी यह निवास स्थली भारत भूमि ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ मानी जाती थी। श्रेष्ठ व्यक्तियों का जहाँ निवास होगा, वहाँ उत्कृष्ट परिस्थितियाँ अनायास ही बनी रहेंगी। ऐसा ही यहाँ हुआ भी है। इतिहास साक्षी है कि भारतीय नागरिकों की समुन्नत आत्मिक स्थिति ने अपनी गौरव-गरिमा का लाभ स्वयं तो लिया है। साथ ही वे उन विभूतियों से समस्त संसार का पिछड़ापन दूर करने के लिए बादलों की तरह इस धरती के कोने-कोने में परिभ्रमण करते रहें। उन्होंने सर्वत्र प्रगति और संस्कृति की वर्षा की। भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक सरंजाम खड़े किये। दूसरों के जीवन विकास के साधन उपलब्ध कराये और स्वयं श्रेयाधिकारी बने। भारत को जगद्गुरु, चक्रवर्ती, समृद्धि का स्वामी और दैवी विभूतियों का अधिपति कहा जाता है। इसमें अत्युक्ति नहीं यथार्थता थी। जिस देश के नागरिकों के दृष्टिकोण में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता कूट-कूटकर भरी हो, उसका वातावरण स्वर्ग जैसा और आचरण देवताओं जैसा होना ही चाहिए। जहाँ ऐसी स्थिति होगी वहाँ से प्रभातकालीन सूर्य की तरह सर्वतोमुखी प्रगति और सुख-शान्ति का सूर्य उगेगा ही। उस आलोक में हर किसी का नवजीवन प्राप्त करना और श्रेय पथ पर चल पड़ना स्वाभाविक ही है। यह आध्यात्मिकता ही थी जिसे अपनाकर अपना देश उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंचा और समूची मानव जाति को आगे बढ़ाने-ऊँचा उठाने का श्रेय प्राप्त किया।

अपनी-युग की सबसे बड़ी माँग यह है कि भौतिक प्रगति पर अध्यात्मिकता का अंकुश स्थापित हो। अन्यथा बढ़ा हुआ वैभव उद्दंड तक्षक की तरह अपने दूध पिलाने वाले को ही डस लेगा। सम्पदा और कुशलता का नाम तभी है जब उन्हें सदुद्देश्य के लिए नियोजित किया जा सके अन्यथा उनकी विकृति विनाश के सरंजाम ही रचेगी। विज्ञान की प्रगति ने सुख-साधनों की निश्चित रूप से वृद्धि की है। यह अभिवृद्धि जहाँ सुखद है, वहाँ निरंकुश बनते जाने के कारण एक भयावह समस्या भी है। सद्ज्ञान सम्वर्धन से ही इसका सन्तुलन बैठेगा। विज्ञान और तत्वज्ञान के सन्तुलित पहिये ही प्रगति रथ को सुनियोजित रूप से आगे बढ़ा सकने में समर्थ होंगे। यह प्रयोजन अध्यात्म विज्ञान के प्रति उसी स्तर की अभिरुचि उत्पन्न करने से सम्भव होगा जैसी कि इन दिनों भौतिक उपलब्धियों के लिए आकुलतापूर्वक संलग्न हो रही हैं।

व्यक्ति और समाज का हित इसी में है कि भौतिक दरिद्रता की भाँति ही आत्मिक क्षेत्र में धंसी संकीर्णता को भी मार भगाया जाय। इसके लिए उतने ही बढ़े-चढ़े प्रयास करने होंगे जैसे कि भौतिक प्रगति के लिए किये जा रहे हैं। खेद है कि इस असन्तुलन को दूर करने के लिए मूर्धन्य विभूतियों द्वारा वैसे प्रयत्न नहीं किये जा रहे हैं, जैसे कि आवश्यक थे। हमें इस अभाव की पूर्ति के लिए शक्ति भर प्रयत्न करने में संलग्न होकर युग की आवश्यकता पूरी करने में अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए।

आत्मिक प्रगति के दो आधार हैं- एक ज्ञान दूसरा विज्ञान। ज्ञान पक्ष में ब्रह्मविद्या के आधार पर उस उत्कृष्ट चिन्तन का समावेश है, जिसमें आत्मा का स्वरूप, लक्ष्य, कर्तव्य, तत्व-दर्शन के रूप में समझा जाता है और जीवन की सार्थकता के लिए उच्चस्तरीय मार्ग दर्शन मिलता है। अन्तः करण की आस्थाओं, आकांक्षाओं, अभिरुचियों, स्फुरणाओं, सम्वेदनाओं को परिष्कृत करने के लिए आवश्यक होता है वह ब्रह्मविद्या में सन्निहित सद्ज्ञान द्वारा ही सम्भव होता है। इसके लिए स्वाध्याय, सद्ज्ञान द्वारा ही सम्भव होता है। इसके लिए स्वाध्याय, सत्संग मनन, चिन्तन जैसे माध्यम अपनाये जाते हैं। कथा, प्रवचनों का सिलसिला इसी सन्दर्भ में चलता है। धर्म-शास्त्रों का- तत्व दर्शन का विशालकाय कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है।

आत्मिक प्रगति का दूसरा आधार है- साधना। साधना वह प्रक्रिया है जिसमें अमुक विधि-विधानों कर्मकाण्डों के साथ अमुक स्तर की भावनाओं का समावेश करके आन्तरिक अवसादों को दूर किया जाता है। चेतना पर छाई प्रसुप्ति को जागृति में परिवर्तित करना आत्म-साधना का उद्देश्य है। जीव लाखों पिछड़ी योनियों में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य जन्म पाने का अधिकारी बना है। इस लम्बी यात्रा में जो पशु -प्रवृत्तियां अभ्यास में आती रही हैं उनकी छाप अभी भी छाई रहती है। मनुष्य की जो उच्च स्थिति है उसे देखते हुए वे पशु-प्रवृत्तियां अनावश्यक एवं अवाँछनीय बन जाती है। छोटे बच्चे नंग-धड़ंग फिर सकते हैं और कहीं भी मल-मूत्र का त्याग बिना संकोच के कर सकते हैं। पर प्रौढ़ावस्था में तो वैसा करना अनुपयुक्त ही माना जायगा। प्रौढ़ता के साथ जो मर्यादाएँ जुड़ी होती हैं, उन्हें पालन करना भी आवश्यक होता है। मनुष्य जन्म के अनुरूप आस्थाएँ विकसित करने के लिए पिछड़ी पशु-प्रवृत्तियों को उखाड़ना आवश्यक होता है। यह कार्य कठिन भी है और जटिल भी। समझने-समझाने भर से इतना बड़ा आन्तरिक परिवर्तन नहीं हो पाता जिसे पशुता के स्थान पर देवत्व की प्रतिष्ठापना का काया कल्प माना जाता है।

इन दिनों वातावरण में संकीर्ण ईर्ष्या-द्वेष का धुआँ बेतरह छाया हुआ है। इसकी कालिमा सर्वसाधारण के मन पर अनायास ही जमती चली जाती है। इसकी धुलाई, सफाई न की जाय तो वातावरण का प्रभाव अपनी छाप छोड़ेगा और व्यक्ति दिन-दिन निकृष्टता के बोझ से लदेगा। इसका परिमार्जन ‘साधना’ प्रक्रिया को अपना कर जिस प्रकार हो सकता है। वैसे अन्य किसी उपाय से सम्भव नहीं है। मानवी अवगति का एकमात्र कारण उसकी आन्तरिक दुर्बलता एवं विपन्नता ही होती है। यदि उस भार को हटाया जा सके तो मनुष्य गरिमा- महामानवों जैसे-नर देवताओं जैसी बनी रह सकती है। परिष्कृत मनःस्थिति में रहने वाले सहज ही समुन्नत परिस्थिति प्राप्त कर लेते हैं- वह तथ्य सर्वविदित है। साधना द्वारा व्यक्तित्व का परिशोधन करते हुए सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर असंदिग्ध रूप से बढ़ा जा सकता है।

मानवी सत्ता इतनी स्वल्प नहीं है जिससे कि शरीर यात्रा भर का प्रयोजन पूरा होता रह सके। निर्वाह के लिए- जितने पुरुषार्थ एवं मनोयोग की आवश्यकता है उतना ही अनुदान क्षुद्र प्राणियों को मिलता है, पर मनुष्य की स्थिति उससे भिन्न है। उसके अन्तराल में समुद्र गर्भ की तरह विभूतियों की बहुमूल्य रत्न, राशि भरी पड़ी है। उसे खोजा और पाया जा सके तो ऐसी उपलब्धियों का अधिकारी बना जा सकता है, जिन्हें असामान्य आलौकिक एवं चमत्कारी समझा जा सके। मनुष्यों में अधिकाँश नर कीटकों और नर-पशुओं की तरह हेय स्तर का जीवनयापन करते हैं, पर उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें देवोपम कहा जा सके, नर-नारायण कहकर भाव भरा अभिवन्दन किया जा सके। सज्जनता की दृष्टि से ही नहीं- आत्मबल की प्रखरता के कारण भी वे असामान्य होते हैं। स्वयं तरते हैं और दूसरों को अपनी नाव पर बिठाकर पार करते हैं।

परमाणु की क्षमता का पता चलने पर हमें आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा है। अणु विस्फोट के समय जो ऊर्जा प्रादुर्भूत होती है, उसका हजारवाँ भाग ही अपने समीपवर्ती पदार्थों पर प्रभाव डालता है। शेष भाग तो विस्फोट और प्रभाव के नगण्य जितने मध्यकाल में ही अन्तरिक्ष विलीन हो जाता है। यदि विस्फोट की सारी ऊर्जा सुरक्षित रखी जा सके तो एक ही परमाणु समस्त संसार का विनाश करने के लिए पर्याप्त हो सकता है। जीव सत्ता के सम्बन्ध में भी यही बात है। आत्मा की मूल शक्ति परमात्मा के समतुल्य ही है। अन्तर केवल परिस्थितियों का है। चिनगारी में वे सभी गुण मौजूद हैं जो प्रचण्ड ज्वाला में होते हैं। चिंगारी को अवसर मिले तो वह दावानल के रूप में परिणत हो सकती है। आत्मा को अवसर मिले तो वह परमात्मा की भूमिका निभा सकने में पूर्ण समर्थ हो सकती है। ‘सोऽहम् शिवोऽहम् सच्चिदानंदोऽहम्’ तत्वमसि अयमात्मा ब्रह्म आदि सूत्रों में आत्मा की मूलसत्ता और स्थिति का संकेत किया गया है। ईश्वर में जो क्षमताएँ विशेषताएँ एवं विभूतियाँ हैं, वे सभी परिष्कृत स्तर के मनुष्य में प्रकट हो सकती हैं। अवतार महामानवों के शरीर मानवी आकृति-प्रकृति के थे, पर उनका चेतना स्तर उच्चकोटी का था। फलतः वे अपने युग की समस्याओं का समाधान करने वाले पुरुषार्थ कर सकने में सफल होते रहें। विभूतिवान महामानवों को महात्मा, देवात्मा आदि नामों से पुकार जाता है। उन्हें सिद्ध पुरुष भी कहते हैं। सामान्य लोगों की तुलना में न केवल उनकी प्रतिभा प्रखरता ही बढ़ी-चढ़ी होती है। वरन् अतीन्द्रिय कही जाने वाली अलौकिक समझी जाने वाली विभूतियों का भण्डार भी उनके पास भरा रहता है।

आध्यात्मिक सम्पदा ही जीवन के हर पक्ष में आलोक उत्पन्न करती दिखाई पड़ती है। उसकी ज्योति शरीर को ओजस्वी, मस्तिष्क को मनस्वी और अन्तःकरण को तेजस्वी बनाती है। इस आत्मबल का उपार्जन साधना उपचार से सम्भव होता है। संकल्प शक्ति का बिखराव रोकने-उसे प्रचण्ड बनाने और अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित किये रहने की अन्ततः क्षमता विकसित करने के लिए ‘साधना’ को अतीव उपयोगी माना जाता है यों यह प्रयोजन मनोयोगपूर्वक सत्प्रयोजनों में संलग्न रहने से भी अनेकों मनस्वी लोगों की तरह पूरा किया जा सकता है, पर जितनी सरलता आत्म-साधनाओं के माध्यम से हो सकती है उतनी अन्य उपायों से सम्भव नहीं। फिर प्रश्न मात्र संकल्प शक्ति बढ़ाने का ही तो नहीं है उसके उत्कृष्ट बनाने की बात भी तो है। यह उत्कृष्टता तो उच्चस्तरीय आस्थाओं का समन्वय करने से ही सम्भव होती है। अध्यात्म साधना का तथ्यपूर्ण ढाँचा दूरदर्शी महामनीषियों ने अपने दीर्घकालीन अनुभवों के आधार पर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया है।

आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान और विज्ञान के दोनों चरण उसी प्रकार उठाने पड़ते हैं, जिस प्रकार कि भौतिक प्रगति के लिए इन्हीं दो आधारों को अपनाया जाना आवश्यक होता है। आर्थिक तथा दूसरे सुविधा साधन भी तो भौतिक ज्ञान-विज्ञान का सहारा लेकर ही प्राप्त किये जाते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए भी ब्रह्मविद्या पर आधारित तत्व ज्ञान हृदयंगम करना आवश्यक होता है। योग-साधना एवं तपश्चर्या की समन्वित साधना पद्धति का आश्रय लेकर अध्यात्म विज्ञान का उपयोग किया जाता है और उससे चित्-शक्ति के सम्वर्धन का अलौकिक लाभ मिलता है।

महत्व न समझा जाय और उपेक्षा की जाय तो बात दूसरी है अन्यथा यदि उसकी उपयोगिता समझने का प्रयत्न किया जाय तो लगेगा कि भौतिक उपलब्धियों के उपार्जन में जो लाभ सोचा जाता है और जो प्रयत्न किया जाता है उसकी तुलना में आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले प्रयासों एवं अनुदानों का महत्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। वाहनों और साधनों की तुलना में उनके उपभोक्ता का मूल्य कम नहीं हो सकता। आत्मा ही तो विभिन्न सुविधा साधनों का उपयोग या उपभोग करती है, यदि वह मूलसत्ता ही गई-गुजरी स्थिति में पड़ी हो भी तो साधनों का सुखोपभोग कैसे सम्भव हो सकेगा? ज्वर पीड़ित होने पर जब मुँह कड़ुआ रहने लगता है और पेट में अपच भर जाता है तो कितना ही स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो उससे किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं होती। आत्मिक स्थिति के हेय होने पर भौतिक सम्पदा दुरुपयोग में लगती और अनर्थ करती देखी गयी है। अस्तु विवेकशील सदा से यही कहते रहे हैं कि आत्मिक प्रगति का महत्व भौतिक सम्पदाओं से किसी भी प्रकार कम नहीं आँका जाय वरन् उस दिशा में भी समुचित ध्यान देने एवं प्रबल प्रयास करने का महत्व समझा जाय।

यदि आत्म साधना का सही स्वरूप और सही उद्देश्य समझा जा सके- यदि सही रीति-नीति अपनाकर आत्म साधना का पुरुषार्थ किया जा सके- तो उसका अभीष्ट परिणाम मिलना सुनिश्चित है। असफलता तो उन्हें मिलती है जो राजमार्ग छोड़कर पगडंडियों में भटकते हैं और स्वल्प प्रयत्न से बढ़े-चढ़े परिणाम तुर्त-फुर्त प्राप्त कर लेने की लाटरी पद्धति से अध्यात्म साधना की तुलना करते हैं। प्राचीन काल में जब साधना अपने वैज्ञानिक रूप में प्रयुक्त की जाती थी तो उसके सत्परिणाम भी प्रत्येक साधक को मिलते थे। यदि उसी प्राचीन परिपाटी को पुनः अपनाया जा सके तो इस महान् अवलम्बन का आश्रय लेकर मनुष्य में देवत्व का अवतरण और धरती पर स्वर्ग का वातावरण पुनः परिलक्षित हो सकता है।

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