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Magazine - Year 1976 - Version 2

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Language: HINDI
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हम प्रगति पथ पर आगे ही बढ़ते चलें।

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चेतना को जीवन कहते हैं। जीवन का प्रथम चरण जड़ पदार्थों में- खनिजों में देखा जा सकता है। स्तब्ध दीखते हुए भी उनके अन्तः क्षेत्र में आणविक गतिविधियाँ तत्परतापूर्वक चल रही हैं। जड़ पदार्थ उत्पन्न होते बढ़ते और मरते हैं। जीवधारियों में यह प्रक्रिया द्रुत गति से होती है और जड़ पदार्थों में मन्द गति से। पत्थर नया है या पुराना यह आसानी से जाना जा सकता है। उनका शैशव, यौवन एवं जरत्व समझने में जानकारों को कोई कठिनाई नहीं पड़ती। जन्म और मृत्यु का क्रम पदार्थों का भी चलता रहता है, जीवधारियों की तरह वे भी जन्मते और मरते हैं। आत्मा की अमरता की तरह पदार्थ के अन्तः स्थिति- अणुसत्ता और उसकी सक्रियता भी अजर-अमर है।

विकास क्रम समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक क्षेत्र में गतिशील हो रहा है। जीव भी उसी प्रक्रिया से अछूता नहीं है जीवन का भी क्रमिक विकास हुआ है। यह तम, रज और सत तीन रूपों में है और क्रमशः एक-एक मंजिल ऊपर तो है,तम का अर्थ है जड़ता। जड़ सृष्टि को इसी वर्ग में गिनते हैं। जड़ पदार्थों में भी जीवन तो है, पर वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। इससे कुछ ऊँची और अच्छी स्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं की है। वे मिट्टी में मिले रहते हैं हवा और पानी में गतिशील हैं। शरीर में जीवाणुओं की भरमार है। चूँकि इनमें इन्द्रियाँ और मस्तिष्क नहीं है। इसलिए उन्हें भी जड़ गिना जाना है। उससे थोड़ी और अच्छी स्थिति वृक्ष वनस्पतियों की है। यों उन्हें भी जड़ कहा गया है। फिर भी उनमें जीवन प्रत्यक्ष लहलहा रहा है यह सारा प्रसार विस्तार जड़ जगत का है। पानी जड़ है पर उसमें ओत-प्रोत जीवन से विज्ञान क्षेत्र भली प्रकार परिचित है। पंचतत्वों में से प्रत्येक में अपने-अपने ढंग की हलचल और चेतना विद्यमान है। इसे तमस स्थिति में पड़ा हुआ अविकसित जीवन कह सकते हैं।

इससे अगली स्थिति ‘रजस्’ की है। जीवन के इस वर्ग में इन्द्रिय चेतनायुक्त चल फिर सकने वाले प्राणी आते हैं। जलचर, थलचर, नभचर वर्ग के असंख्यों जीवधारी इस श्रेणी में गिने जाने हैं। कीट पतंग, पशु-पक्षी, उद्विज, श्वेदन, अंडज-जरायुज-प्राणी इसी स्तर के हैं। इससे उच्च वर्ग के प्राणी हैं जिन्हें सूक्ष्म जीवों की तरह अदृश्य कह सकते हैं। इनमें पितरों, देवताओं, जीवनमुक्तों, देवदूतों की गणना होती है। वे कभी शरीर धारण करते हैं। कभी अशरीरी रहते हैं। अशरीरी रह कर वे अपनी सूक्ष्म शक्ति से अधिक व्यापक क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं। अधिक सत्पात्रों को अधिक उपयोगी एवं अधिक मात्रा में प्रेरणाएं दे सकते हैं। किन्तु जब जन-साधारण को प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन करते हुए उन्हें साथ लेकर चलना होता है और कोई परम्परा स्थापित करनी होती है तो शरीर धारण करके अवतारी देवदूतों की तरह काम करते हैं। वे कर्मफल भोगने के लिए विवश होकर जन्म मरण के चक्र में घूमने वाले प्राणियों की तरह शरीर धारण नहीं करते वरन् समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए व्यक्ति और समाज को ऊँचा उठाने के विशेष प्रयोजन से जन्म लेते हैं और अपना उद्देश्य पूरा करके पुनः वापस लौट जाते हैं।

तथ्य को और भी स्पष्ट रूप में समझना हो तो संक्षेप में उसे इस प्रकार जानना चाहिए कि पदार्थ की रचना तो पंच तत्वों, परमाणुओं एवं रासायनिक योगिकों की सहायता से हुई है। ऊर्जा विविध स्वरूप से उन्हें कई प्रकार की हलचलों के लिए प्रेरित कर रही है। चेतना के सम्बन्ध में बात दूसरी है। वह तम, रज और सत इन तीनों भागों में विभक्त है। अथवा तीन स्थितियों में रह रही है। चेतना की प्रथम स्थिति है ‘तम’-जिसे जड़ निर्जीव कहा जाता है। जिसमें खनिज, वनस्पति एवं सूक्ष्म जीवी आते हैं। बोध के अविकसित स्थिति में होने के कारण ही उन्हें जड़ वर्ग का ठहराया गया है। चेतना की दूसरी स्थिति है ‘रज’ अर्थात् विकसित जागरुकता। मन प्रधान प्रेरणा। उपलब्धियों के लिए आतुर सक्रियता। उसे अहंता संचय और उपभोग के तीन रूपों में काम करते हुए देखा जा सकता है। शास्त्रकारों ने इसे अहंकार, तृष्णा और वासना में निरूपित किया है। विकसित कहे जाने वाले प्राणियों के विविध क्रिया कलापों के प्रेरणा स्त्रोत यही तीन हैं। इन्हें मनोवैज्ञानिकों ने जीव की मूल-भूत प्रवृत्ति कहा है और उनका न्यूनाधिक विभाजनों के साथ वर्णन किया है। इस स्तर के प्राणियों को शास्त्रकार जीवित कहते हैं। इनका चिन्तन और कर्तव्य रजस् स्तर का कहा जाता है।

इससे ऊँचे सत तत्व में विकसित चेतना है। इसे शरीरधारी और अशरीरी दोनों रूपों में देखा जा सकता है। आत्मशोधन में एवं ब्रह्मवर्चस् की साधना में संलग्न ब्राह्मण और इससे आगे परिपक्व स्थिति में पहुँचे हुए साधु कहलाते हैं। ब्राह्मण परिवार बना कर रहते हैं और ज्ञान संवर्धन को सेवा में संलग्न रहते हैं। साधु पके फल की तरह परिवार भर के उत्तराधिकारों से छुटकारा पाकर विश्व नागरिकों में सम्मिलित हो जाते हैं। उनका अपनापन असीम हो जाता है। व्यापक लोकहित को महत्व देते हैं और ऊँचा उठाने वाली प्रेरणाएँ देने की पुण्य-प्रक्रिया में संलग्न रहते हैं। उनकी गति-विधियाँ बादलों जैसी परिव्राजक स्तर की रहती हैं। इन्हें महात्मा कह सकते हैं। महामानव, सन्त, सुधारक, शहीद, तत्वदर्शी, युगदृष्टा, मनीषी आदि विशेषणों से इन शरीरधारी देवताओं को पहचाना जाता है। इन्हें भूसुर अर्थात् पृथ्वी के देवता भी कहते हैं।

अशरीरी देवताओं की सत्ता आँखों से तो नहीं दीखती पर वे सूक्ष्म एवं कारण शरीर धारण करके सृष्टि संतुलन को बनाये रहने के लिए अतिमहत्वपूर्ण काम करती रहती हैं। भौतिक सुविधाएँ बढ़ाने में वैज्ञानिकों इंजीनियरों, उद्योगपतियों, शासकों, शिल्पियों उत्पादकों, श्रमिकों कलाकारों एवं दूसरे अनेकों का अपने-अपने ढंग का योगदान होता है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म जगत की सुव्यवस्था बनाये रहने और प्रगति के आधार खड़े करने में इन अशरीरी सूक्ष्म शरीर धारी देवताओं का भारी योगदान होता है। कई उपयोगी आन्दोलन एवं क्रियाकलाप जब तब बड़े उत्साहपूर्वक चलते दीखते हैं। उनमें साधन जुटाने, सहयोग मिलने एवं सफलता रहने की चमत्कारी प्रगति को देखकर उसके संयोजक तक आश्चर्यचकित रह जाते हैं। वस्तुतः ऐसे अवसरों पर दैवी शक्तियों के सहयोग को सम्मिलित देखा जा सकता है।

स्थूल जगत की तरह सूक्ष्म जगत में भी तम और सत की स्थिति रहती है। वहाँ भी आसुरी और दैवी सत्ता ताने-बाने की तरह, जीवन-मरण की तरह, रात दिन की तरह, धूप-छाँह की तरह काम करती है। अपनी दुनिया में सुख-दुख, पाप-पुण्य की परस्पर विरोधी गति-विधियाँ चलती हैं। सूक्ष्म जगत में भी दैवी और आसुरी सतोगुणी और तमोगुणी तत्व काम करते हैं। वहाँ भी देवासुर संग्राम मचा रहता है। अशरीरी आत्माओं में भी दुष्ट प्रवृत्ति पायी जाती है। वे भी देवताओं की तरह ही अपने स्वभाव के अनुरूप काम करती हैं और दुष्ट संभावनाएँ साकार करने में लगी रहती हैं। दुष्कर्मों में भी कई बार बढ़ी-चढ़ी सफलता मिल जाती है। इनमें अशरीरी आसुरी तत्वों का योगदान रहता है। साधना विज्ञान में दैवी और आसुरी दोनों प्रकार के विधान हैं दैवी स्तर की उपासना दक्षिण मार्गी कहलाती है उससे साधक में सत तत्वों की वृद्धि होती है और देव अनुग्रह उपलब्ध होता है। इसके प्रतिपक्षी तन्त्रोक्त वाम मार्ग द्वारा आसुरी शक्तियों से भी संपर्क साधा जा सकता है। उनके सहयोग से मारण, मोहन उच्चाटन, वशीकरण जैसे क्रूर कर्म किये जा सकते हैं।

चेतना का उच्च स्तर अशरीरी किन्तु सुविकसित होता है, उसमें देव और असुर दोनों प्रकृति के हो सकते हैं। यह उभय-पक्षी स्थिति तो रज और तम में भी होती है। रजस् स्तर के प्राणियों में गाय जैसे दयालु और व्याघ्र जैसे हिंसक पशु मौजूद हैं। हंस और काक का भेद इसी प्रकार का है। सर्प और नेवला की भिन्नता स्पष्ट है। जीवन रक्षा के प्रहरी श्वेत रक्त कण भी अपना काम करते हैं। जड़ पदार्थ में प्राण घातक विषों की भी कमी नहीं और अमृतोपम औषधियाँ भी प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं। अग्नि जैसे दाहक और हिम जैसे शीतल पदार्थों में परस्पर विरोधी प्रकृति काम करती पाई जाती है। चेतना के तम,रज और सत् स्तरों में से प्रत्येक को शुभ-अशुभ के दो-दो भागों में बाँटा जाय तो स्पष्ट ही वे छह की संख्या में हो जाते हैं।

जहाँ लगे हाथों अद्वैत, द्वैत और त्रैत का अन्तर भी समझ लेना चाहिए। सृष्टि के मूल में एक ही तत्व है चेतना। वैज्ञानिक विकास के साथ अब प्रकृति की नई परतें खुली हैं और किसी समय जो पदार्थ की मूल भूत इकाई परमाणु समझी जाती थी अब वह मान्यता वापिस ले ली गयी है। परमाणु भी अनेक घटकों का सम्मिश्रित पिण्ड बन गया है। उन घटकों का शवच्छेद करने पर वे स्वयं समाप्त हो जाते हैं और उनके मूल में ऊर्जा रह जाती है। इसे ‘क्वान्टा’ कहते हैं। अब पदार्थ की मूल इकाई परमाणु नहीं है। वरन् प्रकृतिगत हलचलों के लिए उत्तरदायी व्यापक ऊर्जा है, अब यही प्रकृति है और इसी का नाम क्वान्टा है।

क्वान्टा अचेतन है या चेतन? इस प्रश्न का समाधान अब वैज्ञानिक क्षेत्र ही इस तरह करने जा रहे हैं। जिस तरह अध्यात्म द्वारा प्रतिपादित किया जाता रहा है। ‘इकॉलाजी’ के सिद्धांतानुसार प्रकृति की-पदार्थों की समस्त हलचलें एक दूसरे की पूरक हैं। पारस्परिक हित साधन सहयोग और संतुलन की रीति-नीति ठीक उसी प्रकार चल रही है मानो किसी सुव्यवस्थित शासन ने अपनी प्रजा को बिना टकराये स्नेह सहयोगपूर्वक रहने का विधान बना रखा हो। गृहपति अपने परिवार की व्यवस्था करता है। जीवात्मा अपने शरीर के अवयवों और जीवाणुओं को घड़ी के कलपुर्जों की तरह सहयोगी बनाये हुए हैं। मनुष्य की गन्दी साँस को वनस्पति खाती है और वनस्पतियों द्वारा ठण्डी सांस को मनुष्य पाते हैं। भूमि की उर्वरता पौधों को उगाती है और पौधे सूख कर खाद बनते और भूमि को उर्वरता लौटाते हैं। समुद्र, बादल, वर्षा, नदी और फिर समुद्र के क्रम से जल-राशि का भ्रमण चक्र चलता रहता है। ग्रह-नक्षत्र आपस में टकराते नहीं वरन् अपनी-अपनी कक्षाओं में शांतिपूर्वक भ्रमण करते हैं। वे एक दूसरे के साथ छेड़खानी नहीं करते वरन् स्नेह सहयोग भरा आदान-प्रदान करते हैं। दुर्बल प्राणियों का प्रजनन अधिक और समर्थों का स्वल्प होना प्रकृति की विवेकशीलता का द्योतक है। जब भी अवाँछनीय परिस्थिति बढ़ती है तो उनकी विरोधी प्रतिक्रिया होती और उस तूफान द्वारा फिर ये वातावरण स्वच्छ हो जाता है। अवतारों का दृश्य अदृश्य, अवतरण इसी सृष्टि संतुलन के लिए होता रहता है। ‘इकॉलाजी’ विज्ञान की जितनी गहरी परतें खुलती जा रही हैं। उसी अनुपात में यह स्पष्ट होता जाता है कि प्रकृति अन्धी नहीं वरन् अत्यन्त दूरदर्शी, विवेकशील एवं क्रिया-कुशलता में सुसम्पन्न है। इसका अर्थ हुआ प्रकृति को चेतना युक्त होने की मान्यता मिलना। विश्वास किया जाना चाहिए कि अगले दिनों ‘क्वाटना’ भी मर जायगा और इसके स्थान पर सृष्टि का उद्गम स्त्रोत ‘चेतना प्रवाह’ घोषित कर दिया जाएगा। विभिन्न पदार्थ और प्राणी उसी चेतना समुद्र की लहरें ठहराये जायेंगे और सर्वत्र एक ही परमेश्वर संव्याप्त होने की बात स्वीकार की जायगी। हमें धैर्य रखना चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि शोध में निरत विज्ञान भी अध्यात्म के स्वर में स्वर मिला कर एक ही तथ्य का प्रतिपादन कर रहा होगा-‘ईशावास्य मिदं- सर्वे यत्किंचित् जगत्यां जगत् यहाँ सर्वत्र ईश्वर संव्याप्त हैं। ‘सर्वे खलु इंदं ब्रह्म’ का वेदान्त उद्घोष अगले ही दिनों विज्ञान की कसौटी पर भी सत्य और तथ्य सिद्ध होकर रहेगा।

वैज्ञानिकों की दृष्टि से परमाणुओं का अन्धड़ तूफान ही यह संसार है। रेगिस्तान में आँधी आने पर यहाँ का रेत वहाँ उड़कर जा पहुंचता है और रेत के टीले इधर से उधर जमते रहते हैं। बालों की कई तरह की आकृतियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं। इसी प्रकार परमाणुओं के अन्धड़ में तरह-तरह के पदार्थ-प्राणियों के शरीर बनते-बिगड़ते रहते हैं। मूलसत्ता अणु प्रवाह है। प्राणियों की मस्तिष्कीय संरचना एवं परमाणुओं की भगदड़ का सम्मिलित स्वरूप ही यह संसार है जिसमें हम रहते और तरह-तरह के अनुभव करते हैं। हर प्राणी की दुनिया उसके चेतना स्तर के अनुरूप एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। मेंढक इस संसार को जिस दृष्टि से देखता है। जैसे सोचता अनुभव करता है-इन्द्रियों की सहायता से उपभोग सामग्री तथा परिस्थिति में से जिस प्रकार की अनुभूति पाता है, वह मनुष्य की अनुभूतियों से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। दोनों के बीच जमीन आसमान जितना अन्तर हो सकता है। ऐसी दशा में संसार का वास्तविक रूप क्या हो सकता है? यह निर्णय कर सकना सर्वथा असम्भव है। एक ही खाद्य पदार्थ का विभिन्न प्राणी विभिन्न प्रकार का स्वाद लेते हैं तो किसी पदार्थ का मूल स्वाद कैसे घोषित किया जाय? जब एक ही दृश्य से अनेकों प्रकार के निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो उनकी वास्तविकता किस आधार पर निरूपित की जाय? इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए वेदान्त में इस संसार को माया मिथ्या- स्वप्न आदि नामों से पुकारा है। रज्जु-सर्प की उपमा देते हुए इन्हें भ्रान्ति कहा है। इस अर्थ के पीछे सृष्टि की यथार्थता का दिग्दर्शन है। जो दीख रहा है उसे झुठलाने की चुनौती नहीं है और न निर्धारित कर्तव्यों से भाग खड़े होने का उपदेश है। सिनेमा के पर्दे पर होने वाले घुड़दौड़ सत्य भी है और असत्य भी। सत्य इसलिए कि हम प्रत्यक्ष देखते हैं और दृश्य का आनन्द लेते हैं। असत्य इसलिए कि वहाँ न तो घोड़े हैं और न दौड़ हो रही है। मस्तिष्क की रचना आँखों की निरीक्षण शक्ति फिल्म पर खिंचे फोटो और दिखाने की मशीन का द्रुत धावन आदि की प्रक्रियाओं से मिलकर सिनेमा एक प्रत्यक्ष सत्य बना हुआ है। इतने पर भी उसे वैज्ञानिक एवं दार्शनिक दृष्टि से भ्रान्ति दर्शन ही ठहराया जायगा। वेदान्त ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहता है तब उसका तात्विक प्रतिपादन क्या है? इसका यत्किंचित् आभास ऊपर की पंक्तियों से प्राप्त किया जा सकता है। यह अद्वैत का प्रतिपादन है।

ब्रह्म को सत् कहा गया है, प्रकृति उसकी स्फुरणा है। एक को चेतन दूसरे को जड़ कहा जाता है। दोनों के मिलन से पदार्थ में हल-चल और प्राणियों में चिन्तन चलता है। सृष्टि के मूलतत्व ब्रह्म को सत् कहा गया है और उसके आवरण, उपकरण को प्रकृति एवं तमस् कहते हैं। इस प्रकार प्रकृति और पुरुष की दो सत्ताएँ बनती हैं और इन्हें एवं तम की तात्विक स्थिति कह सकते हैं। यह द्वैत कहलाया। वस्तुतः इस संसार में जड़ चेतना-प्रकृति पुरुष-प्रकाश अन्धकार-सर्दी-गर्मी-जल-थल की तरह दो ही बड़े तथ्य हैं। अकेला ब्रह्म होता तो वह अपने आप तक ही सीमित रहता। अकेली प्रकृति होती तो सब कुछ निस्तब्ध नीरस, निष्प्राण होने के कारण अविकसित एवं भयावह स्थिति में बना रहता। चमत्कार तो मिलन से हुआ है। दो के मिलने से तीसरी वस्तु बनती है। इसे हर कोई जानता है। दिन और रात की मिलन बेला को संध्या काल कहते हैं। नीला और पीला रंग मिलाकर हरा बनता है। दो गैसें मिलने से पानी बन जाता है। आग और पानी के मिलने से भाप बनती है। जड़ ओर चेतन का मिलन ही ‘जीव’ है। त्रैतवाद में ईश्वर प्रकृति और जीव की तीन सत्ताएँ मानी गयी है। जीव एक सम्मिश्रण है। मुक्त की स्थिति में माया हट जाती है और जीव अपने शुद्ध स्वरूप परमेश्वर में जा सकता है इस प्रकार उसकी दिशा स्थिति का अन्त हो जाता है। माचिस में आग लगती है तो लौ उठती है। तीली समाप्त हो जाती है और व्यापक अग्नि तत्व में जा मिलती है। जड़ और चेतन के सम्मिश्रण से बँधी हुई एक अहंता ग्रन्थि को जीवन कहते हैं। अहम् का तात्पर्य जड़ शरीर एवं भौतिक साधनों सहित चेतना की आत्म मान्यता होती है। इसी जकड़न को भव बन्धन कहते हैं। आत्मा और प्रकृति की भिन्नता की अनुभूति यदि अन्तःकरण को हो सके तो ‘आत्म-ज्ञान’ का, ब्रह्मज्ञान का उद्देश्य पूरा हो जायगा। इसी अनुभूति को भूमा, ऋतम्भरा प्रज्ञा, तुरियावस्था समाधि, ईश्वर प्राप्ति-जीवन मुक्ति आदि के नाम से जाना जाता है।

प्रकृति और पुरुष तम और सत् ही दो तत्व इस संसार में हैं। दोनों के मिलन से जो जड़ पदार्थों में हलचल और चेतना में चिन्तन चलता है उसे रज कहते हैं। सक्रियता मिलन की ही प्रतिक्रिया है। बिजली के दो तार अलग रहें तो निष्क्रियता रहेगी, पर जब वे मिलेंगे तो चिनगारियाँ छूटेंगी और विद्युत प्रवाह बह निकलेगा। रजस् मिलन की प्रतिक्रिया भर है उसका स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं।

त्रैत द्वैत और अद्वैत का दर्शनशास्त्र समझ लेने से हमारी आध्यात्मिक गुत्थियाँ खुलती हैं और वस्तुस्थिति समझने एवं सत्य तक पहुँचने में सुविधा होती है। ईश्वर जीव प्रकृति है। यदि सम्मिश्रण को महत्वहीन समझ कर विश्लेषण पृथक्करण पर उतारू हो जाए तो फिर प्रकृति और पुरुष का द्वैत सिद्धान्त ही पर्याप्त प्रतीत होता है। यदि और भी गहराई तक उतरा जाए तो इस विश्व में एकमात्र चेतना का ही अस्तित्व है। वही कृत विकृत होकर ऊर्जा प्रकृति परमाणु पदार्थ में विकसित होते-होते दृश्य संसार बन जाती है। इस प्रकार अपने-अपने स्तर पर यह तीनों ही सिद्धान्त सही हैं और उन्हें स्थिति के अनुसार अपने अपने स्थान पर ठीक माना जा सकता है। यही बात सत्,रज,तम तीनों तत्वों के सम्बन्ध में है। सत् को चेतना और तम को पदार्थ कह सकते हैं। रज का कोई मौलिक अस्तित्व नहीं। वह दोनों के मिश्रण से बना एक कृत्रिम तत्व है। संध्या काल का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं वह दिन और रात्रि के मिलन की सम्मिश्रण अवधि है। उसे मान्यता दी भी जा सकती है। और नहीं भी। रज एक स्थिति में स्वीकारा जा सकता है, पर दूसरी में उसे अस्वीकार करने में भी अनौचित्य नहीं है।

प्रगति का क्रम नीचे से ऊपर की ओर है। तम से रज, रज से सत् और जीवन बढ़ता है। यही उचित है और यही शोभनीय। जीव इसी क्रम को अपनाये रहे तो उसकी प्रशंसा है। निम्न योनियों में से प्रगति करते-करते जीव को मनुष्य स्थिति में आने का सौभाग्य मिल गया तो अब प्रतिष्ठा इसी में है कि आगे बढ़ा जाये तो जीवात्मा भर न रह कर महात्मा, देवात्मा और अन्ततः परमात्मा बनने का चरम लक्ष्य प्राप्त किया जाए।

मनुष्य प्रकृति में भी गुणकर्म, स्वभाव का स्तर जड़ता जागरुकता एवं उत्कृष्टता प्रधान रहता है। यह तम, रज और सत की स्थिति है। आत्म-विश्लेषण से यह जाना जा सकता है कि हमारी अन्तः स्थिति पाशविक है, मानवी है या दैवी उत्कर्ष की दिशा में बढ़ रही है, प्रशंसनीय विवेकशीलता इसी में है कि हम निम्न स्थिति में न पड़े रहें वरन् उत्कर्ष के लिए प्रबल पुरुषार्थ करें और चरम लक्ष्य तक प्रगति से बढ़ चलने का कीर्तिमान स्थापित करें।

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