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Magazine - Year 1976 - Version 2

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उसकी अनुकम्पा एवं उपलब्धि

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ईश्वर वह चेतना शक्ति है जो ब्रह्माण्डों के भीतर और बाहर जो कुछ है उस सब में संव्याप्त है। उसके अगणित क्रिया-कलापों में एक कार्य इस प्रकृति का संचालन भी है। प्रकृति के अन्तर्गत जड़ पदार्थ और चेतना के कलेवर शरीर इन दोनों को सम्मिलित कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष का युग्म इसी दृष्टि से निरूपित हुआ है। जड़ और चेतन का सम्मिश्रण ही अपना यह विश्व है। इस विश्व की परिधि में ही हमारी इच्छाएँ, भाव-सम्वेदनाएँ विचारणाएँ एवं गतिविधियाँ सीमित हैं। मस्तिष्क का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है उसके लिए इतना ही सम्भव है कि इस ज्ञात एवं अविज्ञात विश्व-ब्रह्माण्ड की परिधि में ही सोचे, निष्कर्ष निकाले और जो कुछ सम्भव हो वह उसकी परिधि में रहकर करे।

ईश्वर की कल्पना भी इसी सीमा में सम्भव हो सकती है। जो ब्रह्म विस्तार इस छोटी परिधि से भी बहुत आगे है। सृष्टि संचालन ही परमेश्वर का काम नहीं है- चूँकि हमारा वास्ता उसके साथ इसी सीमा तक है, अस्तु अपनी मान्यता यही हो सकती है कि वह इसी क्रिया प्रक्रिया में निरत रहता होगा। जब कि यह कार्य उसके लिए उतना ही स्वल्प है जितना हमारे लिए क्रीड़ा विनोद के क्रिया-कलाप। सृष्टि व्यवस्था का बहुत थोड़ा ज्ञान अब तक मनुष्य को मिल पाया है। विज्ञान अनुसंधान के आधार पर प्रकृति के थोड़े से रहस्यों का उद्घाटन अभी सम्भव हो सका है। जो जानना शेष है उसकी तुलना में उपलब्ध जानकारियाँ नगण्य हैं। अणु ऊर्जा अपने समय की बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, पर मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं का कथन है कि सूक्ष्मता की जितनी गहरी परतों में प्रवेश किया जायगा उतनी ही अधिक प्रखरता का रहस्य विदित होता जायगा। ढेले की तुलना में अणु शक्ति का चमत्कार अत्यधिक है। ठीक इसी प्रकार समूचे अणु-पिण्ड की तुलना में उसका मध्यवर्ती, नाभिक,न्यूक्लियस असंख्य गुनी शक्ति छिपाये बैठा है। अणु को सौर मण्डल कहा जाए तो उसका मध्यवर्ती नाभिक सूर्य कहा जायगा। सौर मण्डल के सभी ग्रह-उपग्रहों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सूर्य से ही अनुदान मिलते हैं और उसी आधार पर सौर मण्डल का वर्तमान ढाँचा इस रूप में चल रहा है। यदि सूर्य नष्ट हो जायगा तो फिर सौर मण्डल का सीराजा ही बिखर जायगा। तब यह पता भी न चलेगा कि प्रस्तुत ग्रह-उपग्रह अन्तरिक्ष में न जाने कहाँ विलीन हो जायेंगे और उनका न जाने क्या अन्त होगा। अणु का मध्यवर्ती नाभिक कितना शक्तिशाली है और उसकी क्षमता कैसे अणु परिवार का संचालन कर रही है, इस बारीकी पर विचार करने मात्र से विज्ञानी मस्तिष्क चकित रह जाता है। कौन कहे न्यूक्लियस के भीतर भी और कोई शक्ति परिवार काम कर रहा हो और फिर उसके भीतर भी कोई और जादूगरी बसी हुई हो। प्रतिविश्व-ऐन्टीयुनिवर्स-प्रतिकण ऐन्टीएटम- की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। कहा जाता है कि अपनी दुनिया के ठीक पिछवाड़े बिलकुल उससे सटी हुई एक और जादुई दुनिया है। उस अविज्ञात की सामर्थ्य इतनी अधिक कूती जाती है जितनी कि शरीर की तुलना में आत्मा की। प्रतिकण और प्रतिविश्व के रहस्यों का पता चल जाए और उस पर किसी प्रकार अधिकार हो जाए तो फिर समझना चाहिए कि अभी प्राणि जगत का अधिपति कहलाने वाला मनुष्य तभी सच्चे अर्थों में सृष्टि का अधिपति कहलाने का दावा कर सकेगा।

यह तो सूक्ष्मता की चर्चा हुई। स्थूलता की-विस्तार की बात तो सोचते भी नहीं बनती। आँखों से दीखने वाले तार अपनी पृथ्वी से करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर हैं। प्रकाश एक सैकिंड में एक लाख छियासी हजार मील की चाल से चलता है। इस हिसाब से एक वर्ष में जितनी दूरी पार कर ली जाए वह एक प्रकाश वर्ष हुआ। कल्पना की जाए कि करोड़ों प्रकाश वर्ष में कितने मीलों की दूरी बनेगी। फिर यह तो दृश्य मात्र तारकों की बात है। अत्यधिक दूरी के कारण जो तारे आँखों से नहीं दिख पड़ते उनकी दूरी की बात सोच सकना कल्पना शक्ति से बाहर की बात हो जाती है। अपनी निहारिका में ही एक अरब सूर्य आँके गये हैं। उसमें से कितने ही सूर्य अपने सूर्य से हजारों गुने बड़े हैं। अपनी निहारिका जैसी अरबों निहारिकाएँ इस निखिल ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। इस समस्त विस्तार की बात सोच सकना अपने लिए कितना कठिन पड़ेगा, यह महज ही समझा जा सकता है।

अणु की सूक्ष्मता और ब्रह्माण्ड की स्थूलता की गहराई, ऊँचाई का अनुमान करके हम चकित रह जाते हैं। अपनी पृथ्वी के प्रकृति रहस्यों का भी अभी नगण्य-सा विवरण हमें ज्ञात हो सका है, फिर अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की आणविक एवं रासायनिक संरचना से लेकर वहाँ की ऋतुओं, परिस्थितियों तक से हम कैसे जानकार हो सकते हैं। इन ग्रहों की संरचना एवं परिस्थितियाँ एक दूसरे से इतनी अधिक भिन्न हैं कि प्रत्येक ग्रह की एक स्वतन्त्र भौतिकी तैयार करनी होगी। हमें थोड़े से वैज्ञानिक रहस्य ढूंढ़ने और उपयोग में लाने के लिए लाखों वर्ष लगाने पड़े हैं फिर अगणित ग्रह-नक्षत्रों की-उनके मध्यवर्ती आकाश की स्थिति जानने के लिए जितना समय, श्रम एवं साधन चाहिएं उन्हें जुटाया जा सकना अपने लिए कैसे सम्भव हो सकता है।

यह सृष्टि की सूक्ष्मता और स्थूलता की चर्चा हुई। इसके भीतर जो चेतना काम कर रही है। उसकी दिशा धाराएँ तो और भी विचित्र हैं। प्राणियों की आकृति-प्रकृति की विचित्रता देखते ही बनती है। प्रत्येक की अभिरुचि एवं जीवनयापन पद्धति ऐसी है जिसका एक दूसरे के साथ कोई ताल-मेल नहीं बैठता। मछली का चिन्तन, रुझान, आहार, निर्वाह, प्रजनन, पुरुषार्थ समाज आदि का लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो वह नृतत्व विज्ञान से किसी भी प्रकार कम न बैठेगा। फिर संसार भर में मछलियों की भी करोड़ों जातियाँ-उपजातियाँ हैं और उनमें परस्पर भारी मित्रता पाई जाती है। इन सबका भी पृथक-पृथक शरीर शास्त्र, मनोविज्ञान, निर्यात विधान एवं उत्कर्ष-अपकर्ष का अपने-अपने ढंग का विधिविधान है। यदि मछलियों की तरह ज्ञान और साधन मिले होते तो उनने अपनी जातियों-उपजातियों का उतना बड़ा ज्ञान भण्डार विनिर्मित किया होता जिसे मानव विज्ञान से आगे न सही पीछे तो किसी भी प्रकार नहीं कहा जा सकता था। बात अकेली मछली की नहीं है। करोड़ों प्रकार के जल-जन्तु हैं उनकी जीवनयापन प्रक्रिया एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न है। जलचरों से आगे बढ़ा जाय तो थलचरों और नभचरों की दुनिया सामने आती है। कृमि-कीटकों से लेकर हाथी तक के थलचर मच्छर से लेकर गरुड़ तक के नभचरों की आकृति-प्रकृति भिन्नता भी देखते ही बनती है। उसके आचार-विचार व्यवहार,स्वभाव एक दूसरे से अत्यधिक भिन्न हैं। व्याघ्र और शशक की प्रकृति की तुलना की जाए तो उसके बीच बहुत थोड़ा सामंजस्य बैठेगा। अन्यथा उनकी निर्वाह पद्धति में लगभग प्रतिकूलता ही दृष्टिगोचर होगी। इन असंख्य प्राणियों की जीवन-पद्धति के पीछे जो चेतना तत्व काम करता है उसकी रीति-नीति कितनी भिन्नता अपने में संजोये हुए है यह देखकर जड़ प्रकृति की विचित्रता पर जितना आश्चर्य होता था। चैतन्य में भी कहीं अधिक हैरानी होती है। कहना न होगा कि सर्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता के ही यह क्रिया कौतुक हैं।

सूक्ष्म जीवों की दुनिया और भी विचित्र है। आँखों से न दीख पड़ने वाले प्राणी हवा में -पानी में तैरते हैं। मिट्टी में बिखरे पड़े हैं और शरीर के भीतर जीवाणुओं के रूप में विद्यमान हैं। जीवाणु एवं विषाणु विज्ञान क्षेत्र की खोज को कहीं से कहीं घसीटे लिये जा रहे हैं। शरीर शास्त्री, चिकित्सा-शास्त्री हैरान हैं कि इन शूरवीरों की अजेय सेना को वशवर्ती करने के लिए क्या उपाय किया जाय? मलेरिया का मच्छर अरबों, खरबों की डी0डी0टी0 खाकर भी अजर-अमर सिद्ध हो रहा है तो रोगाणुओं, विषाणुओं जैसे सूक्ष्म सत्ताधारी सूक्ष्म जीवों का सामना क्यों कर हो सकेगा? सशस्त्र सेनाओं को परास्त करने के उपाय सोचे और साधन जुटाये जा सकते है, पर इन जीवाणुओं से निपटने का रास्ता ढूंढ़ने में बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है। इन सूक्ष्म जीवों की अपनी दुनिया है। यदि उनमें से भी कोई अपनी जाति का इतिहास एवं क्रिया-कलाप प्रस्तुत कर सके तो प्रतीत होगा कि मनुष्यों की दुनिया उनकी तुलना में कितनी छोटी और कितनी पिछड़ी हुई है।

अभी रासायनिक पदार्थों का, योगिकों का, अणुओं का, तत्वों का विज्ञान अपनी जगह पर अलग ही समस्याओं और विवेचनाओं का ताना-बाना लिये खड़ा है। सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ाई जाए उधर ही शोध के लिए सुविस्तृत क्षेत्र खड़ा हुआ मिलेगा। मनुष्य को प्रस्तुत जानकारियों पर गर्व हो सकता है, पर जो जानने को शेष पड़ा है वह उतना बड़ा है कि समग्र जानकारी मिल सकने की बात असम्भव ही लगती है। मनुष्य की तुच्छता का- उसकी उपलब्धियों का नगण्यता का तब बोध होता है। जब थोड़े से मोटे-मोटे आधारों से आगे बढ़कर गहराई में उतरा जाता है या ऊँचाई पर चढ़ा जाता है।

ऊपर की पंक्तियां प्रकृति के जड़ पदार्थों और जीव कलेवरों के सम्बन्ध में थोड़ी सी झाँकी कराती हैं और बताती हैं कि यह प्रसार विस्तार कितना अधिक है और उसे समझ सकने में मानवी बुद्धि कितनी स्वल्प है। सृष्टि वैभव को भी अकल्पनीय,अनिर्वचनीय एवं अगम्य ही कहा जा सकता है। फिर परमेश्वर के स्वरूप, उद्देश्य एवं क्रिया-कलाप को समझ सकने की बात कैसे बने, जो इस सूक्ष्म, स्थूल, चल, स्थिर प्रकृति से भीतर ही नहीं बाहर भी है और यह सारा बालू का महल उसने क्रीड़ा विनोद के लिए रच कर खड़ा कर लिया है।

परब्रह्म को अचिन्त्य अगोचर, अगम्य कहा गया है। उसकी व्याख्या, विवेचना में तत्ववेत्ताओं ने कुछ चर्चा तो की है, पर साथ ही नेति-नेति कह कर अपने ज्ञान परिधि की स्वल्पता भी स्वीकार कर ली है। वस्तुतः समग्र ब्रह्म का विवेचन बुद्धि विज्ञान एवं साधनों के माध्यम से संभव हो ही नहीं सकता। तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर प्राप्ति की- ईश्वर दर्शन की- जो चर्चाएँ होती रहती हैं वे क्या हैं? यहाँ इतना ही कहा जा सकता है कि जीव और ब्रह्म की मिलन पृष्ठभूमि के रूप में जिस ईश्वर की विवेचना होती है उसी का साक्षात्कार एवं अनुभव सम्भव है।

आकाश और धरती जहाँ मिलते हैं उसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष का सुहावना दृश्य सूर्योदय और सूर्यास्त के समय प्रातः साँय देखा जा सकता है। दो रंगों के मिलने से एक तीसरा रंग बनता है। भूमि और बीज के समन्वय की प्रतिक्रिया अंकुर के रूप में फूटती है। पति-पत्नी का मिलन अभिनव उल्लास के रूप में प्रकट होता है और प्रतिफल सन्तान के रूप में सामने आता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की प्रतिक्रिया को ईश्वर कह सकते हैं। गैस और गैस मिल कर पानी के रूप में परिणत हो जाती है। शरीर और प्राण का मिलन जीवन के रूप में दृष्टिगोचर होता है आग और जल के मिलने से भाप बनती है। नैगेटिव और पौजिटिव धाराएँ मिलने पर शक्तिशाली विद्युत प्रवाह गतिशील होता है। हम उसी ईश्वर से परिचित होते हैं जो आत्मा से परमात्मा के मिलन की प्रतिक्रिया के रूप में अनुभव की जाती है।

वेदान्त दर्शन में ईश्वर के रूप-स्वरूप की जितने तात्विक स्वरूप की विवेचना की गयी है उतनी अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। ‘तत्वमसि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् सोऽहम्, आदि सूत्रों में यह रहस्योद्घाटन किया गया है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है। यहाँ आत्मा से तात्पर्य पवित्र और परिष्कृत चेतना से है। स्थिति प्रज्ञ-आदि शब्दों में व्यक्तित्व के उस उच्चस्तर का संकेत है जिसे देवात्मा एवं परमात्मा भी कहा जाता है। इसी स्थिति को उपलब्ध कर लेना आत्म-साक्षात्कार ईश्वर प्राप्ति आदि के नाम से निरूपित किया गया है। बन्धन, मुक्ति या जीवन-मुक्ति इसी स्थिति को कहते हैं।

आत्मा चिनगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त सम्भावनाएं चिनगारी में विद्यमान हैं। अवसर मिले तो वह सहज ही अपना प्रचण्ड रूप धारण करके लघु से महान् बन सकती है। अवसर न मिले तो बीज चिरकाल तक उसी क्षुद्र स्थिति में पड़ा रह सकता है, किन्तु यदि परिस्थिति बन जाए तो वही बीज विशाल वृक्ष के रूप में विकसित हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है। छोटे से शुक्राणु में एक पूर्ण मनुष्य अपने साथ अगणित वंश परम्पराएँ और विशेषताएँ छिपाये रहता है। अवसर न मिले तो वह उसी स्थिति में बना रह सकता है। किन्तु यदि उसे गर्भ से रूप में विकसित होने की परिस्थिति मिल जाय तो एक समर्थ मनुष्य का रूप धारण करने में उसे कोई कठिनाई न होगी। अणु की संरचना सौर-मण्डल के समतुल्य है। अन्तर मात्र आकार विस्तार का है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाये जाते हैं। सोने के बड़े और छोटे कण में विस्तार भर का अन्तर है। तात्विक विश्लेषण में उनके बीच कोई भेद नहीं किया जा सकता।

उपासना और साधना के छैनी हथौड़े से जीवन के अनगढ़ रूप को कलात्मक देव प्रतिमा के रूप में परिणत किया जाता है। अध्यात्म शब्द का तात्पर्य ही आत्मा का दर्शन एवं विज्ञान है। इस सन्दर्भ के सारे क्रिया-कलापों का निर्माण निर्धारण मात्र एक ही प्रयोजन के लिए किया गया है कि व्यक्तित्व को-चेतन की उच्चतम-परिष्कृत-सुविकसित-सुसंस्कृत स्थिति में पहुँचा दिया। इस लक्ष्य की उपलब्धि का नाम ही ईश्वर प्राप्ति है। आत्म साक्षत्कार एवं ईश्वर दर्शन इन दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा में परमात्मा की झाँकी अथवा परमात्मा में आत्मा की सत्ता का विस्तार। द्वैत को मिटा कर अद्वैत की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसकी पूर्ति के लिए या तो ईश्वर को मनुष्य स्तर का बनना पड़ेगा या मनुष्य को ईश्वर तुल्य बनने का प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ेगा।

अध्यात्म क्षेत्र की भ्रान्तियाँ भी कम नहीं हैं। बाल बुद्धि के लोग आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों को काटने के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है। उस झंझट से कतराते हैं और सस्ती पगडण्डी ढूंढ़ते हैं। वे सोचते हैं पूजा पत्री के सस्ते क्रिया-कृत्यों से ईश्वर को लुभाया, फुसलाया जा सकता है और उसे मनुष्य स्तर का बनने के लिए सहमत किया जा सकता है। वे सोचते हैं हम जिस घटिया स्तर पर हैं उसी पर बने रहेंगे। प्रस्तुत दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में कोई हेर-फेर न करना पड़ेगा। “ईश्वर को अनुकूल बनाने के लिए इतना ही काफी है कि पण्डितों की बताई पूजा-पत्री का उपचार पूरा कर दिया जायं। इसके बाद ईश्वर मनुष्य का आज्ञानुवर्ती बन जाता है और उचित-अनुचित जो भी मनोकामनाएँ की जायं उन्हें पूरी करने के लिए तत्पर खड़ा रहता है। आमतौर से उपासना क्षेत्र में यही भ्रान्ति सिर से पैर तक छाई हुई है।” मनोकामना पूर्ति के लिए पूजा-पत्री का सिद्धान्त तथाकथित भक्तजनों के मन में गहराई तक घुसा बैठा है। वे उपासना की सार्थकता तभी मानते हैं जब उनके मनोरथ पूरे होते चलें। इसमें कमी पड़े तो वे देवता मन्त्र,पूजा,सभी को भरपेट गालियाँ देते देखे जाते हैं। कैसी विचित्र विडंबना है कि छोटा सा गन्दा नाला गंगा को अपने चंगुल में जकड़े और यह हिम्मत न जुटाये कि अपने को समर्पित करके गंगाजल कहलाये।

परब्रह्म एक ऐसी चेतना है जो ब्राह्मण के भीतर और बाहर एक नियम व्यवस्था के रूप में ओत-प्रोत हो रही है। उसके सारे क्रिया-कलाप एक सुनियोजित विधि-विधान के अनुसार गतिशील हो रहे हैं। उन नियमों का पालन करने वाले अपनी बुद्धिमत्ता अथवा ईश्वर की अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। भगवान को बिजली से उपमा दी जा सकती है। बिजली का ठीक उपयोग करने पर उससे अनेक प्रकार के यन्त्र चलाये और लाभ उठाये जा सकते हैं। पर निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाय तो बिजली उन्हीं भक्त सेवकों की जान ले लेती है। जिनने उसे घर बुलाने में ढेरों पैसा, मनोयोग एवं समय लगाया था। उपासना ईश्वर को रिझाने के लिए नहीं, आत्म-परिष्कार के लिए की जाती है। छोटी मोटर में कम पावर रहती है और थोड़ा काम होता है। बड़ी मोटर लगा देने से अधिक पावर मिलने लगती है और ज्यादा लाभ मिलता है। बिजली घर में तो प्रचण्ड विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उससे गिड़गिड़ा कर अधिक शक्ति देने की प्रार्थना तब तक निरर्थक ही जाती रहेगी जब तक घर का फिटिंग मीटर,मोटर आदि का स्तर ऊँचा न उठाया जाय। प्रार्थना के सत्परिणामों की बहुत चर्चा होती रहती है। भगवत् कृपा के अनेक चमत्कारों का वर्णन सुनने को मिलता रहता है। उस सत्य के पीछे यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा कि भक्त ने पूजा उपासना के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न की और उस श्रद्धा ने उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व को देवोपम बना दिया। जहाँ यह शर्त पूरी की गई है वहीं निश्चित रूप से ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा भी हुई है, पर जहाँ फुसलाने का धूर्तता को भक्ति का नाम दिया गया है वहाँ निराशा ही हाथ लगी है।

ईश्वर का सृष्टि विस्तार अकल्पनीय है। उसमें निवास करने वाले प्राणियों की संख्या का निर्धारण भी असम्भव है। पृथ्वी पर रहने वाले जलचर, थलचर, नभचर, दृश्य अदृश्य प्राणियों की संख्या कुल मिलाकर इतनी बड़ी है कि उनके अंक लिखते-लिखते इस धरती को कागज बना लेने से भी काम न चलेगा। इतने प्राणियों के जीवनक्रम में व्यक्तिगत हस्तक्षेप करते रहना- अलग-अलग नीति निर्धारित करना और फिर उसे प्रार्थना उपेक्षा के कारण बदलते रहना ईश्वर के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा करने से तो उस पर व्यक्तिवादी राग द्वेष का आक्षेप लगेगा और सृष्टि संतुलन को कोई आधार ही न रहेगा। ईश्वर ने नियम मर्यादा के बन्धनों में क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में अपनी सारी व्यवस्था बना दी है और उसी चक्र में भ्रमण करते हुए, जीवधारी अपने पुरुषार्थ और प्रमाद का भला-बुरा परिणाम भुगतते रहते हैं। ईश्वर दृष्टा और साथी की तरह यह सब देखता रहता है। उसकी जैसी महान् सत्ता के लिए यही उचित है और यही शोभनीय। पूजा करने वालों के प्रति राग और न करने वालों के प्रति उपेक्षा अथवा द्वेष की नीति यदि उसने अपनाई होती तो निश्चय ही इस संसार में भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था का कोई अन्त ही न रहता। जो लोग इस दृष्टि से पूजा उपासना करते हैं कि उसके फलस्वरूप ईश्वर को फुसला कर उससे मनोवाँछाएँ पूरी करा ली जायेंगी। वे भारी भूल करते हैं। पूजा को कर्म व्यवस्था का प्रतिद्वन्दी नहीं बनाया जा सकता भगवान के अनुकूल हम बनें यह समझ में आने वाली बात है, पर उलटा उसी को कठपुतली बना कर मर्जी मुताबिक नचाने की बात सोचना बचकानी ढिठाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हमें ईश्वर से व्यक्तिगत राग-द्वेष की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए वरन् उसकी विधि-व्यवस्था के अनुरूप बन कर अधिकाधिक लाभान्वित होने के राजमार्ग पर चलना चाहिए।

भगवान को इष्टदेव बना कर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। हम भगवान के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता व्यापकता व्यवस्था, उत्कृष्टता, तत्परता अपनाएं, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिए। इस दिशा में जितना मनोयोगपूर्वक आगे बढ़ा जायगा उसी अनुपात से ईश्वरीय सम्पर्क का आनन्द और अनुग्रह का लाभ मिलेगा। वस्तुतः अध्यात्म साधना का एकमात्र उद्देश्य आत्मसत्ता को क्रमशः अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनाते जाना है। यही सुनिश्चित ईश्वर की प्राप्ति और साथ ही उस मार्ग पर चलने वालों को जो विभूतियाँ मिलती रही हैं, उन्हें उपलब्ध करने का राजमार्ग है।

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