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Magazine - Year 1976 - Version 2

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आत्मिक प्रगति के लिये श्रद्धा का संवर्धन

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व्यायाम प्रयोगों के द्वारा शरीरबल बढ़ता है-ज्ञान वृद्धि के लिए शिक्षा का सहारा लिया जाता है। धनी बनने के लिए उद्योग व्यवसाय अपनाने पड़ते हैं उनके लिए अभीष्ट उपकरणों का संग्रह एवं प्रयोग करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास को विकसित करने के लिए देव प्रतिभाओं को, तीर्थ स्थलों को, पूजा प्रतीकों को माध्यम बनाना पड़ता है। उन पर आरोपित की गई श्रद्धा, प्रतिध्वनित और प्रतिफलित होकर साधक के पास वापस लौट आती है। गेंद को दीवार या धरती पर मारने से टकराने पर वह उसी स्थान को लौटती है। जहाँ से उसे फेंका गया था। शब्दबेधी बाणों के बारे में कहा जाता है कि वे लक्ष्य बेध करने के उपरान्त लौटकर फिर तरकश में आ घुसते थे। गुम्बज में की गई आवाज गूँजती है और उच्चरित स्थान से आ टकराती है। पृथ्वी गोल है। सीधी रेखा बनाकर यदि लगातार चलते रहा जाए तो चलने वाला लौटकर वहीं आ जायगा जहाँ से उसने चलना आरम्भ किया था। श्रद्धा को भी पूजा प्रतीकों पर फेंका जाता है। वे निर्जीव होने के कारण स्वयं तो कुछ नहीं कर सकते, पर प्रतिक्रिया को प्रयोगकर्ता के ऊपर निश्चित रूप से वापस लौटा देते हैं। गोबर से बने गणेश भी उतना ही चमत्कारी फल प्रदान कर सकते हैं जितना कि असली गणेश कुछ कर सकने में समर्थ हो सकते थे। एकलव्य ने मिट्टी द्वारा बनी द्रोणाचार्य की प्रतिमा से उतना लाभ प्राप्त कर लिया था, जितना कि असली द्रोणाचार्य से पाण्डवों को नहीं मिल सका। यह श्रद्धा की शक्ति का ही चमत्कार है। देवता का निवास काष्ठ पाषाण आदि में नहीं रहता। “भावो हि विद्यते देव तस्मात् भावो हि कारणम्” भावना में ही देवता का निवास रहता है, अस्तु देव दर्शन से होने वाले लाभों में भावना का स्तर ही प्रमुख कारण है। भाव रहित होकर देव प्रतिमाओं की समीक्षा की जाए तो वह धातु और पाषाण के सहारे प्रस्तुत की गयी कलाकृति के अतिरिक्त और कुछ भी न रह जायेगी।

श्रद्धा और विश्वास के अभिवर्धन में एक जीवित तत्व भी सहायक सिद्ध होता है और वह है-गुरु। आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में सदा से “गुरु धारणा” की महत्ता को समझा और स्वीकारा जाता रहा है। उसे “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु …………” ‘‘अखण्ड मण्डलाकारं …………… तस्मै श्री गुरुवे नमः” “अज्ञान तिमिरान्धस्य …………’’ आदि का बढ़ा-चढ़ा माहात्म्य प्रस्तुत किया गया है। इसमें निहित स्वार्थों का भोले लोगों की भावुकता का शोषण करने की प्रवृत्ति भी काम करती रही है और उससे अनर्थ मूलक अन्ध-विश्वास भी बहुत फैला है। पर यह कहने और मानने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं कि श्रद्धा तत्व की अभिवृद्धि और विश्वास की परिपुष्टि में गुरु धारणा करने से अति महत्वपूर्ण प्रतिफल भी उपलब्ध होते हैं।

अध्यात्म दर्शन में सम्प्रदाय भेद से अगणित मान्यताएँ प्रचलित हैं। वे एक दूसरे से भिन्न ही नहीं प्रतिकूल एवं प्रतिपक्षी भी हैं। साधना विधानों के सम्बन्ध में भी यही बात है। ऐसी दशा में किसे अपनाया जाय किसे न अपनाया जाय-यह निर्णय कर सकना सामान्य बुद्धि के लिए अति कठिन होता है। संदिग्ध, शंकाशील और अनिश्चित मनःस्थिति में कोई बात न तो पूरी तरह गले उतरती है और न बताये मार्ग पर उत्साह के साथ चल सकना सम्भव होता है। आधे-अधूरे मन से प्रयोग परीक्षण की तरह किये गये साधन सदा निर्जीव होते हैं। उनका कोई कहने लायक परिणाम नहीं निकलता। इस असफलता से अविश्वास और भी पनपता है और अन्ततः निराशाग्रस्त होकर उस मार्ग से उदासीन होते-होते छोड़ देने की ही स्थिति आ पहुँचती है।

इस अनिश्चितता से बचने के लिए एक ऐसे प्रामाणिक अधिकारी की नियुक्ति आवश्यक होती है, जिसके निर्देश को स्वीकारणीय माना जा सके। फौजी अनुशासन में यही होता है। अफसर आज्ञा देता है और सैनिक उसका प्राणपण से पालन करता है। निर्देश के उचित-अनुचित होने का दायित्व अफसर पर रहता है। सैनिक के लिए इतना ही पर्याप्त है कि उसने आदेश का पूर्ण तत्परता के साथ पालन किया। साधना मार्ग में भी इसके अतिरिक्त और कोई गति नहीं। निज के समाधान के लिए किन्हीं सिद्धान्तों की उपयोगिता पर जितना कुछ तर्क विवाद अन्वेषण करना हो, उतना पूरी गहराई के साथ कर लेना चाहिए। इसी प्रकार इस मार्ग का पथ-‘प्रदर्शक चुनने से पूर्व उसके ज्ञान, अनुभव एवं चरित्र के सम्बन्ध में जितनी भी कुरेद बीन करनी सम्भव हो वह कर लेनी चाहिए। पर अन्ततः ऐसी स्थिति में पहुँचना ही चाहिए कि किसी के निर्णय और निर्देश को स्वीकार्य अनुशासन की तरह ग्रहण किया जाय और पूर्ण विश्वास के साथ निर्धारित गतिविधि अपनाते हुए आगे बढ़ चला जाय। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए अनिश्चितता और आशंका की स्थिति का अन्त हो गया। अब विश्वासपूर्वक प्रयत्नशील रहकर अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकेगा।

सिद्धान्तों और कार्यक्रमों के सम्बन्ध में गुरु के अनुशासन को स्वीकार किया जाना चाहिए। इसके लिए एक ही व्यक्ति का निर्देश प्राप्त करना पर्याप्त है। अनेकों मार्गदर्शक नियत करने पर उनके भिन्न-भिन्न अनुभव और निर्देश साधक के मन में फिर अनिश्चितता उत्पन्न कर देंगे। इसलिए एक विषय का एक ही नियत निर्देशक होना चाहिए। कई चिकित्सकों की कई प्रकार की दवाएँ एक साथ खाने या उनके परामर्श से उलट-पुलट करते रहने से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। जीवन अनेक समस्या सूत्रों से बँधा हुआ है। उनकी विशिष्ट धाराओं के विशिष्ट मार्ग-दर्शक हो सकते हैं। मकान बनाने में इंजीनियर, इलाज में डॉक्टर, मुकदमे में वकील को गुरु मानकर चला जा सकता है। भिन्न प्रकार के कार्यों के लिए भिन्न गुरु हो सकते हैं। पर जहाँ तक आत्मिक प्रगति के विशिष्ट मार्ग का सम्बन्ध है वहाँ उस क्षेत्र के दक्ष व्यक्ति की ही सहायता लेनी चाहिए। गुरु एक हो या अनेक इस प्रश्न का एक ही उत्तर है-एक कार्य के लिए एक की ही नियुक्ति लाभदायक रहती है। इसमें निर्देश सम्बन्धी कोई भूल रहेगी तो उसका दोष या दण्ड निर्देशक के पल्ले बँधेगा। साधक के अशुद्ध विधि से साधना करने पर भी अपने विश्वास के अनुरूप निश्चित रूप से सत्परिणाम ही मिल जायगा।

श्रद्धा की प्रेरणा है श्रेष्ठता के प्रति प्रीति-घनिष्ठता तन्मयता एवं समर्पण की प्रवृत्ति। परमेश्वर के प्रति इसी भाव सम्वेदना को विकसित करने का नाम है-भक्ति। भक्त को भगवान के प्रति अनन्य प्रेम उत्पन्न करना पड़ता है और उसे इस स्तर का बनना पड़ता है कि सच्चे प्रेमी की तरह आत्मसात होने और आत्म-समर्पण के बिना चैन ही न पड़े। लौकिक जीवन में पत्नी को पति के प्रति इसी प्रकार से आत्म-समर्पण का अभ्यास करना पड़ता है। दीपक पतंग की उपमा इसी प्रसंग में दी जाती है। आम तौर से मनुष्यों के अन्तःकरण बड़े नीरस, शुष्क और कठोर होते है, उनमें दया,करुणा, ममता, श्रद्धा जैसी दिव्य भावनाओं का अभाव ही रहता है। दैनिक जीवन तो स्वार्थ संघर्षों से ही भरा रहता है। अभ्यस्त प्रक्रिया स्वभाव का अंग बने भी तो कैसे? भजन-पूजन करने वाले कर्मकाण्डों के तो अभ्यास बन जाते हैं, पर उनका भी हृदय खोलकर देखा जाय जो श्रद्धा तत्व की मात्रा नहीं के बराबर ही दीख पड़ती है। मशीन की तरह कर्मकाण्डों की चर्खी घुमाते रहने से बात बनती नहीं। उपासनात्मक क्रिया कृत्य तो आवरण मात्र हैं। उनमें प्राण संचार कर सकने की शक्ति तो श्रद्धा में ही सन्निहित है। यदि जीवन ही न रहा तो कठपुतली का तमाशा वह आनन्द नहीं देता जो जीवन अभिनय में देखा जाता है।

प्रतिमा के माध्यम से श्रद्धा उत्पन्न करने का आधार निर्दोष तो है, पर उसमें प्रत्युत्तर दे सकने की क्षमता न होने के कारण सब कुछ एकाँगी ही रह जाता है। अमुक आपत्ति काल में लड़कियाँ अपने विवाह आँवले, पीपल आदि वृक्षों के साथ करके भी अपने अभिभावकों को कन्या दान से निश्चिंत कराती रही हैं। इतने पर भी जीवित व्यक्ति के साथ विवाह करने पर उपलब्ध होने वाले आदान-प्रदान का लाभ उन्हें नहीं ही मिल सका होता। ‘गुरु’ रूप में जीवित प्रतिमा में श्रद्धा तत्व की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है और उसके सम्पर्क में अपनी दिव्य सम्वेदनाओं को अग्रगामी बनाया जाता है। इसमें आदान-प्रदान का प्रत्यक्ष सम्पर्क का क्रम चलता है और मार्ग-दर्शन की सुविधा रहती है। यदि गुरु दिव्यत्व से सम्पन्न है तो उसके सान्निध्य-अनुग्रह का प्रत्यक्ष प्रभाव भी उपलब्ध होता है। इससे व्यक्तित्व के विकास में अधिक सुविधा और सरलता रहती है।

माता-पिता के समान ही गुरु को माना गया है। इस त्रयी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उपमा दी गयी है। हिन्दुत्व का प्रतीक यज्ञोपवीत के रूप में धारण किया जाता है। इस संस्कार के अवसर पर गुरु द्वारा गायत्री मंत्र लेने का विधान है। अध्यापक की सहायता बिना विद्या का व्यावहारिक स्वरूप हृदयंगम किया जाना कठिन पड़ता है यों जानने भर की बात तो पढ़ने या सुनने भर से भी बन जाती है। आत्मोत्कर्ष की साधना में तो गुरु वरण करने की आवश्यकता एक प्रकार से अनिवार्य ही मानी गई है। इस व्यवस्था में श्रद्धा तत्व के विकास में एक उपयोगी आधार खड़ा करना होता है। यदि इस चयन एवं नियुक्ति के लिए कोई उपयुक्त सत्पात्र मिल गया तो समझना चाहिए कि सफलता की आधी मंजिल पार हो गई। निष्णात अध्यापक एवं चिकित्सक का सम्पर्क सध जाने से शिक्षा की-चिकित्सा की सफलता प्रायः असंदिग्ध ही हो जाती है, यही बात साधना मार्ग के सम्बन्ध में भी है। प्रखर व्यक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने पर सामान्य व्यक्ति भी असामान्य बनते देखे गये हैं। फिर विधिवत श्रद्धासिक्त आत्मीयता के सूत्र में बाँधने वाली गुरु दीक्षा की प्रतिक्रिया उपयोगी परिणाम क्यों न उत्पन्न करेगी। उपासना के विधि-विधान का मार्ग दर्शन तो सरल है। उतनी आवश्यकता तो पुस्तकें भी पूरी कर देती हैं। जटिलता तो जीवन साधना में पड़ती है। आये दिन उतार-चढ़ाव और मोड़-तोड़ आते रहते हैं। उनके समाधान का दूरदर्शी निष्कर्ष अनगढ़ बुद्धि से नहीं निकल पाता, वह प्रायः भटकती और अनुपयुक्त निर्णय करती देखी गयी है। ऐसी दशा में यदि सत्परामर्श की समुचित व्यवस्था बन सके तो सर्वतोमुखी प्रगति के उपयोगी आधार खड़े होते चले जाते हैं। ऐसे ही अनेकों लाभ हैं। जिनको ध्यान में रखते हुए गुरु वरण करने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। उपयुक्त व्यक्ति पर उपयुक्त मात्रा में सत् श्रद्धा का सूत्र स्थापित किया जाय तो कठिन यात्रा में जानकार और वफादार साथी की तरह लक्ष्य प्राप्ति में बहुत सरलता पड़ती है। इस सम्पर्क से एक पक्ष को वात्सल्य देने का और दूसरे को उसे पाने का लाभ मिलता है। गाय और बच्चा दोनों को ही असीम सन्तोष मिलता है। गुरु और शिष्य का यदि उभय-पक्षीय आदर्शवादी सम्बन्ध बन जाए तो फिर उस मिलन का लोभी गुरु लालची चेला की उक्ति चरितार्थ करना बेकार है। ‘एक न सुनहिं एक नहिं देखा’ वाला जोड़ा बनाना निरर्थक है। धन अपहरण करने और मुफ्त में सम्मान पाने के लोभी गुरु और कोई चमत्कार वरदान ऐसे ही चापलूसी से मुफ्त पाने में चतुर शिष्यों का प्रचलित लकीर पीटना व्यर्थ है। ऐसी विडंबना रचने की अपेक्षा निराकार परमेश्वर को-साकार सूर्य को अथवा वट पीपल को-देव प्रतिमा चित्र नारियल आदि को गुरु मानकर उससे भावनात्मक प्रेरणा प्राप्त करना और श्रद्धा तत्व को विकसित करना भी मन्द गति से सम्भव हो सकता है।

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