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Magazine - Year 1977 - Version 2

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नादयोग से दिव्य क्षमताओं और दिव्य-भावनाओं का विकास

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कानों से सुनी जाने वाली ध्वनियाँ इतनी उथली और हलकी होती हैं कि उनका किसी प्राणी या पदार्थ पर जानकारी देने के अतिरिक्त और कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। यों श्रवण ध्वनियों के साथ जुड़े हुए घटना क्रम एवं घुले हुए भाव प्रवाह अपना

महत्त्व रखते हैं और यत्किंचित् प्रभाव भी डालते हैं, पर वह सब मिला कर भी श्रवणातीत ध्वनियों की क्षमता के समतुल्य नहीं हो सकता । प्रकृति का अनुग्रह है कि वे सूक्ष्म ध्वनियाँ हमारे कानों की जीव सत्ता को बिना प्रभावित किये ही अन्तरिक्ष में उड़ती रहती है। यदि वे सुनाई देने लगतीं तो कोलाहल से कान बहरे हो जाते। यदि वे प्रभावित करने लगतीं तो उनके प्रहार से शरीर सत्ता का अस्तित्व ही संदिग्ध बन जाता।

कानों की ग्रहण शक्ति बहुत ही भौंड़ी और थोड़ी है। हमारे कान मात्र एक सेकेण्ड में 20 से लेकर 20 हजार तक कम्पन उत्पन्न करने वाली ध्वनियों को सुन सकते हैं इससे न्यूनाधिक कम्पनों की ध्वनियाँ पकड़ में नहीं आतीं श्रवणातीत अति स्वन ध्वनियाँ 10 लाख से लेकर 1000 करोड़ कम्पनों तक की तरंगें हर सेकेण्ड उत्पन्न करने वाली पाई गई हैं इनकी सामर्थ्य उनकी सूक्ष्मता के आधार पर अधिकाधिक होती चली जाती है॥

श्रवणातीत ध्वनियों का उपयोग जब से वैज्ञानिकों ने जाना है तब से वे उनके अत्यन्त प्रभावशाली उपयोग करने लगे हैं। शल्य चिकित्सा, कीटाणु संहार, ऋतु परिवर्तन, मोटे धातु खण्डों को गला देना, जैसे प्रचण्ड कार्य उनसे लिये जा रहे हैं। कल कारखानों के लिए तो उन्हें बिजली एवं अणु शक्ति की तरह काम में लाया जा रहा है।

वैज्ञानिक सोचते हैं कि भविष्य में मानवी आवश्यकता की अभीष्ट ऊर्जा, श्रवणमात्र ध्वनि तरंगों से उपलब्ध की जा सकेगी। तब मनुष्य को परम शक्तिशाली कहला सकने का अवसर मिल जायेगा।

धरती पर हो रही हलचलों से जो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं उनके अतिरिक्त ऐसी तरंगें भी पाई गई हैं, जिनका जागतिक हलचलों से सीधा सम्बन्ध नहीं है। उनका स्तर, स्वरूप एवं प्रभाव अलौकिक है। विज्ञानी सोचते हैं कि यह विलक्षण अन्तर्ग्रही ध्वनि प्रवाह ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात केन्द्र से धरती पर आता है और उसी की सामर्थ्य से अपने भूलोक के विभिन्न पदार्थों एवं क्रिया-कलापों को सूत्र संचालन होता है।

शब्द की महत्ता को अध्यात्म शास्त्र आरम्भ से ही प्रतिपादित करते रहे हैं। नादयोग का पूरा ढाँचा इसी निमित्त खड़ा किया गया है कि सूक्ष्म शरीर के संयंत्र को विकसित करके दिव्य ध्वनियों को पकड़ने , समझने में सफलता प्राप्त की जा सके। इस आधार पर प्रकृति गत उन भौतिक हलचलों को जाना जा सकता है । जो सामान्य मनुष्य के ज्ञान क्षेत्र से ऊपर की है। इसके अतिरिक्त परा प्रकृति से सम्बन्धित सूक्ष्म जगत की वे सचेतन हलचलें हैं जो ध्वनि रूप में परिभ्रमण करती हैं और समस्त प्राणि जगत को प्रभावित करती है॥ नादयोग के अभ्यास से आत्म चेतना को परिष्कृत और सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय तन्मात्रा शब्द को परिष्कृत किया जाता है। इस आधार पर अदृश्य एवं अविज्ञात से सम्पर्क साधा जाता है और अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करने का लाभ उठाया जाता है।

नादयोग के द्वारा सुनी जाने वाली यह दिव्य ध्वनियाँ अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिए स्वयमेव विनिसृत होती रहती है। ये चेतन हैं दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतीन्द्रिय है। इसलिए उन्हें देववाणी भी कहते हैं। उन्हें ध्यान योग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से हैं, अस्तु सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द संस्थान के इसी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है।

नादयोग के कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है। कई बार ये अति मन्द होती है। कई बार कुछ प्रखर। इनमें प्रायः कृष्ण की वंशी जैसी-सर्प पकड़ने में काम आने वाले बीन जैसी ध्वनियाँ रहती हैं। रास लीला में कृष्ण का वंशी वादन और गोपियों का ताल नृत्य आत्मा और परमात्मा के बीच चलने वाला वेणुनाद ही समझा जा सकता है। कुमार्गगामी-भौतिक तृष्णा और वासना का विष पिण्ड मन -एक प्रकार से विषधर सर्प है। उसे भी आनन्द उल्लास की , दिव्य प्रेरणाओं के अनुगमन के रूप में लहराने का अवसर इस बीन की ध्वनि सुनने से मिल सकता है। सपेरा विषधर सर्पों को पकड़ने के लिए बीन बजाता है। जब वह लहराने लगता है तो उसे चुपके से पकड़कर पिटारे में बन्द कर लेता है। मन के निग्रह में -प्राणों के निरोध में-नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत सफल रहता है।

वंशी और बीन के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती है। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है-भगवती सरस्वती आनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है और अपनी अन्तः चेतना में वही दिव्य तत्त्व उभर रहे है। भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। उससे प्रलय के-मरण के संकेत आ रहे हैं और सुलझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अन्त करने वाला ताण्डव किसी भी क्षण सम्मुख आ सकता है इसलिए प्रमोद से न उलझा जाय, लक्ष्य की प्राप्ति में आलस्य एवं अपेक्षा भाव न बरता जाय। माया मोह छोड़कर यथार्थता को समझा जाय। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पाँच जन्य का महाकाल के भैरवनाद का- उद्घोषक माना जाय और अनुभव किया जाय कि अब महाप्रयाण का ऐसा समय आ पहुँचा जिसमें आनाकानी या सोच-विचार करने की गुँजाइश नहीं है। युग के कर्तव्य की पुकार गूँज रही है और उभर रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय। बिजली की कड़क-दावानल की धू-धू-बादलों का गर्जन- समुद्र का तर्जन इस संकेत को लेकर आते हैं कि अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए। पशु स्तर को निरस्त करके दिव्य स्तर अपनाया ही हो जाना चाहिए और उस उलट-पुलट में जो उफान-तूफान प्रस्तुत होते हैं उनका सामना किया ही जाना चाहिए। कभी झिल्ली की झंकार कभी चिड़ियों की चहचहाट के शब्द सुनाई पड़ते हैं इन्हें छोटे जीवों द्वारा मानवी प्रमाद को हिला देने वाला उद्बोधन समझा जाय। जब इतने छोटे जीव अपने नियत-नियमित आनन्द बिखेरने वाले क्रिया-कलाप में निरत रहते हैं तो मनुष्य के लिए यह कैसे शोभनीय होगा कि वह जीवनोद्देश्य के साथ जुड़े हुए अपने महान् कर्तव्य का परित्याग करके मात्र, पेट और प्रजनन के लिए जीवन सम्पदा को कौड़ी मोल गँवा देने की मूर्खता अपनाये?

नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं इनकी कोई सीमा नहीं प्रायः परिचित ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती है सो सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों की विवेक बुद्धि के द्वारा सहज संगति बिठा सकते हैं। कोयल की कूक-मुर्गे की बाग-मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़, शब्द सुनाई पड़ें तो उनमें इन प्राणियों को उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का ताल-मेल बिठाया जा सकता है । कई बार रुदन, क्रन्दन, हर्षोल्लास, अट्टहास, उच्छ्वास जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं उसे अपनी अन्तरात्मा का सन्तोष-असन्तोष समझा जा सकता है। कुमार्गगामी गतिविधियों से असन्तोष और सत्प्रवृत्तियों का सन्तोष स्पष्ट हैं। आत्म निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली बुरी गतिविधियों से सन्तोष-असन्तोष प्रकट करने के अवसर आते हैं इन्हीं की प्रतिध्वनि, हर्ष क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, सन्देश, तथ्य हो सकता है उसे नादयोगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती हैं। उसको विस्तृत चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं। तथ्य इतना भर है कि इन दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की उच्च प्रेरणाएँ होती है और उन सब का प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आत्मा की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए-साहस पूर्ण कदम बढ़ाना चाहिए।

कानों के छिद्र बन्द करके अन्तर्गत की दिव्य ध्वनियाँ सुनने की साधना जब परिपक्व होने लगती है तो भावोत्कर्ष क्षेत्र से आगे बढ़ कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। इस संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं । उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रिय से शब्दरूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की सफलता, साधना में परिपक्वता आने के साथ-साथ सहज ही बढ़ने लगती है और यह प्रतीत होने लगता है कि सूक्ष्म जगत में क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है? किसी व्यक्ति विशेष क्षेत्र, देश अथवा लोक के सम्बन्ध में इस प्रकार की सही स्थिति का पूर्वाभास होने लगता है। अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली होती है।

नाद संकेत के सूत्र है जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्रोतों के साथ हमारे आदान-प्रदान सम्भव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं

योगशास्त्र के साधना विधानों में एक महत्त्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उँगलियों से, शीशी वाले कार्क से, कपड़े की गोली से इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि आधार से विलग किया जाता है और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तः चेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेन्द्रिय का उसकी छनद तन्मात्रा का योगदान तो रहता है पर वह श्रवण है, वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिए, कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं ।

सूक्ष्म और कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अंतरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर है। सूक्ष्म जगत की हलचलों का आभास इन ध्वनियों के आधार पर हो सकता है।

कराहने की आवाज सुन कर किसी के शोकग्रस्त होने, दर्द से छटपटाने, सताये जाने आदि की स्थिति का-दूरी का-नर-नारी का-बाल-वृद्ध का अनुमान लगा लिया जाता है उसी प्रकार कर्णेन्द्रिय की पकड़ से बाहर की सूक्ष्म ध्वनियों को यदि सुना जा सके तो विश्व में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न स्तर की घटित होने वाली घटनाओं का विवरण जाना जा सकता है। सम्भावनाओं का पता लगाया जा सकता है, तथा लोक लोकान्तरों में हो रही हलचलों को समझा जा सकता है। सर्वसाधारण के लिए अविज्ञात जानकारियाँ सूक्ष्म शरीर की कर्णेन्द्रिय के विकास द्वारा नितान्त सम्भव है।

न्यूजर्सी अमेरिका की बेल टेलीफोन प्रयोगशाला के इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने एक ऐसे ‘भवन’ का निर्माण किया जो पूरी तरह शब्द प्रूफ था अर्थात् उसके अन्दर बैठने वाले को बाहर की कैसी भी कोई भी ध्वनि सुनाई नहीं पड़ सकती थी। वैज्ञानिकों को अनुमान था कि उस समय निस्तब्ध नीरवता का आभास होगा, पर जब एक व्यक्ति को प्रयोग के तौर पर उसके अन्दर बैठाया गया तो उसे यह सुनकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि विचित्र प्रकार की ध्वनियाँ उसके कानों में गूँजने लगीं। एक ध्वनि किसी के सीटी बजाने की थी, एक ध्वनि प्रेस मशीन चलने की तरह धड़-धड़ की थी, एक ध्वनि चटाचट चटखने की सी। पहले तो वह व्यक्ति डरा पर पीछे ध्यान देने पर मालूम हुआ कि सीटी की आवाज नसों में दौड़ने वाले रक्त प्रवाह की ध्वनि थी। आमाशय में पाचन रसों की चट-चट और हड्डियों की कड़कड़ाहट की ध्वनियाँ भी अलग-अलग सुनाई पड़ने लगी मानो शरीर न हो पूरा कारखाना ही हो।

सामान्यतः यह ध्वनि हर व्यक्ति के शरीर से होती है पर अपने कानों की बहिर्मुखी संवेदनशीलता और एकाग्रता की कमी के कारण कोई भी उन्हें सुन नहीं पाता। पर यदि अभ्यास किया जाये और सूक्ष्म कानों की शक्ति जगाई जा सके तो अनन्त ब्रह्माण्ड में होने वाली हलचल पृथ्वी के चलने की आवाज, सौर घोष, उल्काओं की टक्कर के भीषण निनाद मन्दाकिनियों के बहने का स्वर, जीव जन्तुओं के कलरव सब कुछ किसी भी स्थान में बैठकर उसी प्रकार सुने जा सकते हैं जिस प्रकार बेल टेलीफोन, लैबोरेटरी के प्रयोग के समय।

योगी पतंजलि ने लिखा है- ‘ततः प्रतिभ श्रावण जायन्ते’ अर्थात् ‘स्वार्थ संयम के अभ्यास से प्रतिभा अर्थात् भूत और भविष्य ज्ञान दिव्य और दूरस्थ शब्द सुनने की सिद्धि प्राप्त होती हैं ।’ योग विभूति में लिखा है-

‘शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्त-स्प्रतिभाग संयमात् सव्र भूतरुतज्ञानम्’।

अर्थात् शब्द अर्थ और ज्ञान के अभ्यास ये अभेद भासता है और उसके विभाग में संयम करने से सभी प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का भी ज्ञान होता है।’ -यह सूत्र सिद्धान्त सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय की महान् महत्ता का प्रतिपादन करते हैं और बताते हैं कि जब तक मनुष्य के पास ऐसा क्षमता सम्पन्न शरीर है। जिसके अन्दर विद्यमान् विभूतियों का उपयोग करके वह उसे प्राप्त कर सकता है जिसके लिए उसे प्रायः तरसते ही रहना पड़ता है।

नादयोग सूक्ष्म शब्द प्रवाह को सुनने की क्षमता विकसित करने का साधना विधान है। कानों के बाहरी छेद बन्द कर देने पर उनमें स्थूल शब्दों का प्रवेश रुक जाता है। तब ईथर से चल रहे ध्वनि कम्पनों को उस नीरवता में सुन समझ सकना सरल हो जाता है। नाद योग के अभ्यासी आरम्भ में कई प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ कानों के छेद बन्द करके मानसिक एकाग्रता के आधार पर सुनते हैं। शंख, घड़ियाल, मृदंग, वीणा, नफीरी, नूपुर जैसी आवाजें आती हैं और बादल गरजने, झरना झरने, आग जलने, झींगुर बोलने जैसी क्रमबद्ध ध्वनियाँ भी सुनाई पड़ती हैं। आरम्भ में यह शरीर के अन्तरंग में हो रही हलचलों की ही प्रतिक्रिया होती है पर पीछे दूरवर्ती घटनाक्रमों के संकेत प्रकट करने वाली अधिक सूक्ष्म आवाजें भी पकड़ में आती है। अनुभव के आधार पर उनका वर्गीकरण करके यह जाना जा सकता है कि इन ध्वनि संकेतों के साथ कहाँ किस प्रकार का- किस काल का घटना क्रम सम्बद्ध है। आरम्भिक अभ्यासी भी अपने शरीरगत अवयवों की हलचल, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन, पाचन संस्थान आदि की जानकारी उसी भाँति प्राप्त कर सकता है जिस तरह की डाक्टर लोग स्टेथिस्कोप आदि उपकरणों से हृदय की गति, रक्त चाप आदि का पता लगाते हैं अपने ही नहीं दूसरों के शरीर की स्थिति का विश्लेषण इस आधार पर हो सकता है और तदनुकूल सही निदान विदित होने पर सही उपचार का प्रबन्ध हो सकता है।

‘सूक्ष्म शरीर’ की कर्णेन्द्रिय को विकसित करके संसार में घटित होने वाले घटनाक्रम को जाना जा सकता है। कारण शरीर का सम्बन्ध चेतना जगत से है। लोगों की मनःस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली अदृश्य ध्वनियाँ जिसकी समझ में आने लगें वह मानव प्राणी की पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं की मनःस्थिति का परिचय प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बिना उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय , आदान-प्रदान होता रह सकता है। विचार संचालन विद्या के ज्ञाता जानते हैं कि मनःस्थिति के अनुसार भावनाओं के उतार-चढ़ाव में एक विचित्र प्रकार की ध्वनि निसृत करते हैं और उसे सुनने की सामर्थ्य होने पर मौन रह कर ही दूसरों की बात अन्तः करण के पर्दे पर उतरती हुई अनुभव की जा सकती है और अपनी बात दूसरों तक पहुँचाई जा सकती है।

‘कारण शरीर’ की कर्णेन्द्रिय साधना, दैवी संकेतों के समझने, ईश्वर के साथ वार्तालाप और भावनात्मक आदान प्रदान करने में समर्थ हो सकती है। साधनात्मक पुरुषार्थ करते हुए अपने इन दिव्य संस्थानों को विकसित करना -अपूर्णता से पूर्णता की ओर बढ़ना यही नादयोग साधना का उद्देश्य है।

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