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Magazine - Year 1977 - Version 2

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मनोमय कोश की साधना से सर्वार्थ सिद्धि

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मनोदशा पर मनुष्य का स्वास्थ्य निर्भर है। मनोविकारग्रस्त मनुष्य अनेकानेक शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों से ग्रसित होकर रुग्ण, दुर्बल बनता चला जाता है और अकाल मृत्यु का ग्रास बनता है। अस्त-व्यस्त मनः स्थिति के कारण कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह कठिन हो जाता है। सामने प्रस्तुत कामों को ठीक तरह कर सकना बन नहीं पड़ता फलतः पग-पग पर असफलताएँ सामने खड़ी दिखाई देती है। मधुर सम्बन्धों का निर्वाह संपर्क क्षेत्र के व्यक्तियों से शालीनता पूर्वक होता नहीं। अतएव असहयोग, उपेक्षा, खीज़, खींचतान एवं विग्रह की स्थिति बनी रहती है। स्वजनों के बीज ऐसा असामंजस्य परिवार में तथा सम्पर्क क्षेत्र में आये दिन विसंगतियाँ उत्पन्न करता है। चिन्तन की दिशा धारा सही न होने पर अनुपयुक्त सूझ पड़ता है और उपयुक्त क्या हो सकता है? यह तथ्य पकड़ में ही नहीं आता। ऐसे लोगों की विकृत चिन्तन के दुष्परिणाम आये दिन संकटों और विग्रहों के रूप में भुगतने पड़ते हैं।

मस्तिष्क की तीक्ष्णता और शिक्षा सम्पदा से कई तरह की सुविधा सफलता मिलती है, किन्तु व्यक्तित्व की समग्र प्रगति के लिए इतने से ही काम नहीं चलता, उसके लिए मनःक्षेत्र का सन्तुलन और सुसंस्कृत होना आवश्यक है। मनुष्यों के बीच निकृष्टता और वरिष्ठता का जो अन्तर दिखाई पड़ता है उसमें शरीर अथवा साधन कारण नहीं होते, चिन्तन का स्तर एवं दृष्टिकोण ही प्रधान भूमिका प्रस्तुत करता है। मानसिक विकास का मूल्यांकन इसी स्थिति को देखकर किया जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त, क्रिया कुशल, तीक्ष्ण बुद्धि लोगों में से कितने ही कुमार्गगामी देखे जाते हैं, वे अपने और दूसरों के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं। महत्ता मस्तिष्कीय तीक्ष्णता की नहीं मानसिक स्तर के उत्कृष्ट होने की है। उसे परिष्कृत चिन्तन सुसंस्कृत दृष्टिकोण एवं सुसंयत क्रिया-कलाप के रूप में देखा जा सकता है।

मनः संस्थान को सुविकसित करने के लिए स्वाध्याय, सत्संग एवं मनन-चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त एक और भी कारगर उपाय है- मनोमय कोश की योग साधना। काम-काजी मस्तिष्क समेत मन-क्षेत्रीय की स्तरीय परतें मनोमय कोश की परिधि में आती है। जिस प्रकार वन्य पशुओं को साधकर पालतू बनाया जाता है। उनसे अनेक प्रकार के लाभ लिये जाते हैं, उसी प्रकार मन के महादैत्य की यदि साधना द्वारा सधा लिया जाय तो ऐसे लाभ मिल सकते हैं जिन्हें देवोपम उपलब्धियाँ प्राप्त करना कहने में अत्युक्ति नहीं मानी जा सकती। मानसिक साधना ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है।

व्यक्तित्व और मनःसंस्थान की स्थिति को परस्पर अति घनिष्ठ माना गया है। मनः स्तर ही व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने के लिए मनः संस्थान की स्थिति ऊँची उठाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। यह कार्य मात्र जानकारियाँ बढ़ाने या समझाने-बुझाने भर से पूरा नहीं हो जाता । इसके लिए ऐसे मनोवैज्ञानिक प्रयोग करने पड़ते हैं जो लोहे को गरम करके उस घन की चोटों से उपयुक्त औजार बनाने जैसा कार्य कर सके। इस प्रकार के प्रयोगों को मनोमय कोश की साधना कहा जा सकता है।

मस्तिष्क की ऊपरी परत जो व्यावहारिक जीवन में काम आती है, समग्र मनः संस्थान का मात्र पाँचवाँ योग है। मानसिक शास्त्रियों ने उसकी संरचना का स्वरूप तो जाना है, पर उसके भीतर काम करने वाली विलक्षण क्षमताओं को देखकर आश्चर्यचकित रह गये है। इन रहस्यमयी गतिविधियों की मात्र 7 प्रतिशत जानकारी अभी तक मिल सकी है। शेष का आभास मिलता है और सोचा जाता है कि यदि इस अद्भुत संयंत्र की क्षमताओं का स्वरूप और उपयोग जाना जा सकता तो फिर मनुष्य की सामर्थ्य का पारापार न रहता।

सामान्य मान्यता यह है कि मन और बुद्धि का सम्मिश्रण ही मस्तिष्क है। ऐसा इसलिए समझा जाता है कि दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में उन्हीं का उपयोग होता है। जो इस क्षेत्र की गहराई में घुसे है उनने देखा है कि ऊपरी परत तो क्रिया कुशलता और सूझ-बूझ के प्रतिफल प्रस्तुत कर पाती है। व्यक्तित्व का निर्माण अचेतन की गहरी परतें ही सम्पन्न करती है। मनोविकार बुद्धि क्षेत्र में नहीं, वरन् स्वभाव के अंतर्गत आदतें बनकर घुस बैठते हैं। मनुष्य उनकी बुराइयों समझता है और छोड़ना भी चाहता है किन्तु संचित अभ्यासों का दबाव इतना अधिक होता है कि अपने ही निर्णय के विरुद्ध रास्ते पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ता है। इन आदतों के पीछे अचेतन मन ही काम करता है।

शरीर की अनवरत गतिविधियों में जागृत मस्तिष्क का नगण्य जितना अधिकार होता है। संचालन अचेतन की अभ्यस्त प्रवृत्तियाँ ही करती है। माँस-पेशियों का आकुंचन- प्रकुञ्चन पलकों का निमेष-उन्मेष फेफड़ों का श्वास, प्रश्वास, आहार का ग्रहण और मल का विसर्जन, निद्रा, जागृति असंख्य शारीरिक क्रिया-प्रक्रियाएँ अचेतन मन के नियंत्रण में ही चलती है। हारमोन ग्रन्थियों से लेकर - प्राणों के अवधारण तक पर अचेतन का ही प्रभाव है। मनो-विकारों के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट हो जाना और सद्भावनाओं के आधार पर व्यक्तित्व के सभी पक्षों का समुन्नत होते चलना इसी संस्थान की संरचना के कारण सम्भव होता रहता है उत्थान और पतन के बीज इसी क्षेत्र में उगते हैं। व्यक्तित्व की सुविस्तृत जड़े इसी भूमि में घुसी होती हैं।

अचेतन को चित कहते हैं। वस्तुतः मस्तिष्क का प्रेरक केन्द्र यही है। यह गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहे तो सचेतन की बुद्धिमतां का उपयोग धूर्तता, दुष्टता जैसे निष्कृष्ट प्रयोजनों के अतिरिक्त किसी रचनात्मक कार्य में सम्भव न हो सकेगा और बुद्धिमान कहलाने वाला मनुष्य भी उज्ज्वल भविष्य का सृजन न कर सकेगा।

मन और बुद्धि को विकसित करने के लिए स्कूली साहित्यिक सम्पर्क जन्य, अनुभव सम्पादन करने जैसी अनेकों विधि-व्यवस्थाएँ प्रचलित है। किन्तु चित्त की चिकित्सा करने में उन्हीं उपचारों को काम में लाया जाता है जिन्हें मनोमय कोश की साधना कहते हैं। यों परामनोविज्ञान एवं मनोविज्ञान के अंतर्गत भी अचेतन की क्षमता को समझने और उसमें अभीष्ट परिवर्तन करने के उपाय खोजे तथा सोचे जा रहे है किन्तु तत्त्वदर्शियों की अनुभूत पद्धति मनः साधना के अतिरिक्त और कोई कारगर मार्ग अभी तक करतल गत हुआ नहीं है।

मानस शास्त्री सर अलेक्जेन्डर केनन का कथन है- मनुष्य इस विश्व की सबसे विलक्षण सत्ता है। उसका सार तत्त्व मस्तिष्क है। मस्तिष्क का नवनीत अचेतन संस्थान है। दुर्भाग्य से इसी केन्द्र की न्यूनतम जानकारी हमें उपलब्ध है। यह नहीं जाना जा सका कि इस संस्थान को प्रभावित, परिवर्तित और परिष्कृत करने के लिए क्या किया जा सकता है? शरीर चिकित्सा में काम आने वाले उपचारों की पहुँच वहाँ तक है नहीं। लगता है स्वसंवेदन स्वसम्मोहन और स्वनिर्देशन जैसे उन्हीं उपायों को काम में लाना पड़ेगा जिन्हें पुरातन योगीजन अपने ढंग से काम में लाते रहे है। जो हो संसार की सुख-शान्ति और मानवी प्रगति के मर्म केन्द्र तक हमें पहुँचना ही होगा। किसी उपाय से अचेतन को नियन्त्रित करने की विधि व्यवस्था हस्तगत करनी ही होगी। इसके बिना समुन्नत व्यक्ति और समृद्ध विश्व की सम्भावना बन न सकेगी।

इस तथ्य को दूरदर्शी आत्म-विज्ञानियों ने चिरकाल पूर्व में ही जान लिया था। उनमें मानवी व्यक्तित्व का आधार केन्द्र मन को ही कहा है। जीवन की भली-बुरी स्थिति का उत्तरदायी उसी को माना है और इस बात पर बहुत बल दिया है कि समृद्धि के अन्यान्य आधारों पर जितना ध्यान दिया जाता है उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही

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मानसिक परिष्कार पर दिया जाय। इस क्षेत्र की प्रगति के बिना भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की आशा पूरी नहीं हो सकेगी। इन तत्त्वदर्शियों का अभिमत इस संदर्भ में इस प्रकार है-

चित्तमेव हि संसारो रागदिक्लेशदू षतम्।

तदेव तर्विनिमुक्त भवान्त इति कथ्यते॥

- महोपनिषद् 4।66

यह चित्त ही संसार है। चित्त रोगादि दोषों से भर जाने पर क्लेश होते हैं। इन दूषणों से छुटकारे को ही मुक्ति कहते हैं।

पापासक्तं हि बन्धाय पुण्यासंक्त हि मक्तये।

मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्धमोक्षयोः॥

- स्कन्द पुराण

पाप में आसक्त मन बन्धन का और पुण्य में संलग्न मन मोक्ष का कारण है। वस्तुतः मन ही मनुष्य को बन्धन में डालता और मुक्त करता है।

मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो, बन्धाय विषाय स्क्तं मक्त्यै निर्विषायं स्मृतम्।

- योगवशिष्ठ 4।21।56-57

हे राजन्! यह मन दृढ़ भावना वाला होकर जैसी कल्पना करता है। उसको उसी आकार में उतने समय तक और उसी प्रकार का फल देने वाला अनुभव होता है।

गंगाद्वारश्च केदारं सन्नि हत्माँ तथैवच।

एवानि सर्वतीर्थनि कृत्वा पापैः प्रमुच्चयते॥

- व्यास स्मृति

जिसने अपने मन को जीत लिया उसके लिए गंगा द्वार, केदारनाथ आदि सभी तीर्थों का लाभ अपने पास ही मिल जाता है।

मनो निर्मलसत्वात्म यद्धावयतियादृशम्।

ततथाशु भवत्येव यथाऽवर्तो भवेत्यमः॥

- योग वशिष्ठ 4।17।4

मन यदि शुद्ध है तो जैसे जल भंवर का रूप धारण कर लेता है, वह जिस वस्तु की जैसी भावना करता है। वह अविलम्ब वैसी ही हो जाती है और दूसरे की मन की बात अपने मन में उतर आती है।

मन क्षेत्र पर चढ़े संचित कुसंस्कारों को हटाना और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की स्थापना कर सकना। मानव जीवन का सबसे प्रबल पुरुषार्थ है। इसके समान श्रेयस्कर सफलता और कोई हो नहीं सकता। इस महान् उपलब्धि को प्राप्त करने में मनोमय कोश की साधना से बढ़कर और कोई उपाय हो नहीं सकता। इसकी चर्चा शास्त्रकारों ने इस प्रकार की है-

इत्येवमादिभिर्यत्नैः संशुद्ध योगिनोमनः।

शक्तं स्यादति सूक्ष्माणाँ महता मपि भावने-सर्व दर्शन सिद्धान्त

यत्नपूर्वक मन को शुद्ध करने से योगी सूक्ष्म और गम्भीर विषयों को समझने योग्य हो जाता है।

लयविक्षेप रहितं मनः कृत्वा सुनिश्चतम्।

एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रन्थविस्तराः॥

एक एव मनोदवो ज्ञेयः सर्वासिद्धिदः।

अन्यत्र विफलाक्लेशाः सर्वेषाँ तज्जयं बिना॥

विद्यमानं मनो यावत्तावदुःखक्षयः कुतः।

मन को विक्षेपों से मुक्त करके सदुद्देश्य में लय करके स्थिर बना लेना- यही वह उपाय है जिससे स्वार्थों में सिद्धि मिलती है। मन देवता ही परम देव है। उसकी साधना किये बिना क्लेशों और दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मन को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है।

यह मनोनिग्रह अन्तः सन्तुलन, चित्त परिशोधन समग्र विकास का आधार भूत उपाय है। मनोमय कोश की साधना का सत्परिणाम मनोजय है। इसे प्राप्त कर लेने वाला आत्म विजय को विश्व विजय के लाभ से भी बढ़ कर आनन्ददायक अनुभव करता है।

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