• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • साधना पथ और अनन्त ऐश्वर्य
    • आत्मिक प्रगति के लिए साधना की आवश्यकता
    • गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
    • Quotation
    • प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति
    • मनोमय कोश की साधना से सर्वार्थ सिद्धि
    • विज्ञानमयकोश सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र
    • आनन्दमय कोश की तीन उपलब्धियाँ समाधि स्वर्ग और मुक्ति
    • Quotation
    • कुण्डलिनी और अध्यात्मिक काम विज्ञान
    • मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश मूलाधार सहस्रार
    • Quotation
    • साधना के अवरोध दुष्कर्मों का निराकरण प्रायश्चित
    • Quotation
    • तीर्थ यात्रा क्यों और कैसे?
    • समग्र प्रगति के लिये जिज्ञासा समाधान और साधना विधान के दो चरण
    • एकाग्रता अभ्यास के लिए त्राटक योग की साधना
    • सिद्धि का अहंकार (kahani)
    • अंतः त्राटक से आत्म-ज्योति की साधना
    • नादयोग और उसकी आर्ष परम्परा
    • नादयोग से दिव्य क्षमताओं और दिव्य-भावनाओं का विकास
    • कुण्डलिनी का प्राणयोग-सूर्यभेदन प्राणायाम
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • साधना पथ और अनन्त ऐश्वर्य
    • आत्मिक प्रगति के लिए साधना की आवश्यकता
    • गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
    • Quotation
    • प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति
    • मनोमय कोश की साधना से सर्वार्थ सिद्धि
    • विज्ञानमयकोश सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र
    • आनन्दमय कोश की तीन उपलब्धियाँ समाधि स्वर्ग और मुक्ति
    • Quotation
    • कुण्डलिनी और अध्यात्मिक काम विज्ञान
    • मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश मूलाधार सहस्रार
    • Quotation
    • साधना के अवरोध दुष्कर्मों का निराकरण प्रायश्चित
    • Quotation
    • तीर्थ यात्रा क्यों और कैसे?
    • समग्र प्रगति के लिये जिज्ञासा समाधान और साधना विधान के दो चरण
    • एकाग्रता अभ्यास के लिए त्राटक योग की साधना
    • सिद्धि का अहंकार (kahani)
    • अंतः त्राटक से आत्म-ज्योति की साधना
    • नादयोग और उसकी आर्ष परम्परा
    • नादयोग से दिव्य क्षमताओं और दिव्य-भावनाओं का विकास
    • कुण्डलिनी का प्राणयोग-सूर्यभेदन प्राणायाम
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 4 6 Last
जीवन का सार तत्त्व प्राण है। यह प्राण ही प्रगति का आधार है। समृद्धि उसी के मूल्य पर खरीदी जाती है। सिद्धियों और विभूतियों का उद्गम स्त्रोत वही है। यह प्राणतत्त्व अपने भीतर प्रचुर परिमाण में भरा पड़ा है। उसका चुम्बकत्व बढ़ा देने पर विश्व प्राण में भी उसे अभीष्ट मात्रा में उपलब्ध और धारण किया जा सकता है। मानवी सत्ता में सन्निहित इस प्राण भंडार को प्राणमय कोश कहते हैं। सामान्यतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और शरीर निर्वाह भर के काम हो पाते हैं। उसे साधना विज्ञान के आधार पर जागृत किया जा सके तो सामान्य में से असामान्य का प्रकटीकरण हो सकता है। प्राण की क्षमता की असीम है। प्राण साधना से इस असीमता की दिशा में बढ़ चलना- प्रचुर सशक्तता प्राप्त कर सकना सम्भव हो जाता है।

अध्यात्मशास्त्र में प्राण तत्त्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। उसे ब्रह्म तुल्य माना और सर्वोपरि ब्राह्मी शक्ति का नाम दिया गया है। प्राण की उपासना करने आग्रह किया गया है यह प्राण आखिर है क्या? यह विचारणीय है।

विज्ञान वेत्ताओं ने इस संसार में ऐसी शक्ति का अस्तित्व पाया है जो पदार्थों की हलचल करने के लिए ओर प्राणियों के सोचने के लिए विवश करती है। कहा गया है कि यही वह मूल प्रेरक शक्ति है जिससे निश्चेष्ट को सचेष्ट और निस्तब्ध को सक्रिय होने की सामर्थ्य मिलती है। वस्तुएँ शक्तियाँ और प्राणियों की विविध विधि हलचलें इसी के प्रभाव से सम्भव हो रही है। समस्त अज्ञात और विज्ञात क्षेत्र के मूल में यही तत्त्व गतिशील है और अपनी गति से सब को अग्रगामी बनाता है। वैज्ञानिकों की दृष्टि में इसी जड़ चेतन स्तरों की समन्वित क्षमता का नाम प्राण होना चाहिए। पदार्थ को ही सब कुछ मानने वाले ग्रैविटी, ईथर, मैगनेट के रूप में उसकी व्याख्या करते हैं अथवा इन्हीं की उच्चस्तरीय स्थिति उसे बताते हैं। चेतना का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने वाले विज्ञानी उसे साइकिक फोर्स लेटेन्ट हीट कहते हैं।

ऋषियों का अभिप्राय प्राण से क्या है, इसका परिचय उस शब्द के नामकरण के आधार पर प्राप्त होता है। प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। ‘अन्’ धातु जीवन, शक्ति, चेतनात्मक है। इस प्रकार उसका अर्थ प्राणियों की जीवनी शक्ति के रूप में किया जाता है।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चेतन की जीवनी शक्ति क्या हो सकती है। यहाँ उसका उत्तर संकल्प बल के रूप में दिया जा सकता है जिजीविषा से लेकर प्रगति शीलता ही तक उसके असंख्य रूप है। अन्तःकरण की आकांक्षा ही विचार शक्ति और क्रिया शक्ति की उत्तेजना एवं दिशा होती है। मात्र आकांक्षा रहने से काम नहीं चलेगा। उसे तो कल्पना या ललक मात्र कहा जा सकता है। आकांक्षा के साथ उसे पूरा करने की साहसिकता भी जुड़ी हुई हो तो उसे संकल्प कहा जा सकेगा। संकल्प में आकांक्षा, निष्कर्ष, योजना और अग्रगम्य के लायक अभीष्ट साहसिकता जुटी रहती है। यह संकल्प ही मनुष्य जीवन का वास्तविक बल है उसी के सहारे पतन उत्थान के आधार बनते हैं। परिस्थितियाँ इसी संकल्प भरी मन संकल्प तत्त्व को चेतन का प्राण कहा जा सकता है। इसी की उपासना करने के लिए अभिवर्धन के लिए तत्त्वदर्शियों ने निर्देश दिये है। प्रज्ञोपनिषद ने प्राण की व्याख्या संकल्प रूप में की है।

यच्चितस्तेनैष प्राणामायति प्राणस्तेजसा युक्तः महात्मना यथा संकल्पितं लोकं नयति।

- प्रश्नोपनिषद् 3।10

आत्मा का जैसा संकल्प होता है वैसा ही स्वरूप संकल्प इस प्राण का बन जाता है। यह प्राण ही जीव के संकल्पानुसार उसे विभिन्न योनियाँ प्राप्त कराता है।

विकासवाद के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए एककोशीय जीवाणु इसी संकल्प शक्ति की प्रेरणा से क्रमशः आगे बढ़े और विकसित हुए है। अध्यात्म शास्त्र के अनुसार ब्रह्म ने एक से बहुत होने की इच्छा की और ब्रह्म इच्छा शक्ति ही प्रकारान्तर से परा-अपरा प्रकृति बनकर जगत् बन गई। उसी का विस्तार पंचतत्वों और पंच प्राणों में होता चला गया है।

विश्व के अन्तराल में काम करने वाली समग्र सामर्थ्य को व्याख्या के रूप में प्राण कहा जाता है। वह जड़ और चेतन दोनों को ही प्रभावित करती है। उपासना उसके इस एक पक्ष की ही की जाती है। जो मनुष्य को सत्प्रयोजनों की स्थिति में अग्रसर करने ने लिए प्रयुक्त होती है। चेतना की सामर्थ्य तो उभय पक्षीय है। वह दुष्टता के क्षेत्र में दुस्साहस बनकर भी काम करती है। इस निषिद्ध पक्ष को नहीं जीवन को उत्कृष्टता की और अग्रसर करने वाले सत्संकल्पों को उपास्य प्राण माना गया है। उसको जितना मात्र उपलब्ध होता है उसी अनुपात से प्रगतिशील का लाभ मिलता है। इन विशेषताओं को देखते हुए उसे ब्राह्मी शक्ति - ब्रह्म प्रेरणा एवं साक्षात् ब्रह्म कहा गया है। सुविधा के लिए इसे अन्तरात्मा की पुकार भी कह सकते हैं। शास्त्र की दृष्टि में प्राण तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार होती है-

प्राणो ब्रहोतिह स्माह कोषीतकिस्तस्य ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रहमणो मनो दूतं वाक्परिवेष्ट्री चक्षुर्गात्र श्रोत्रं संश्रावयितृ यो ह वा एतस्य प्राणस्य ब्रहमणो मनो दूतं वेद दूतवान्भवति यश्चक्षु गोप्तृ गोप्तमान्भवति यः श्रोतं संश्रावयितृ संश्रावयितृमान्भवति यो वाचं परिवेष्ट्रीमान्भवति।

- कौषीतकि ब्राहमणोपनिषद् 2।1

यह प्राण ही ब्रह्म है। यह सप्राण है। वाणी उसकी रानी है। कान से द्वारपाल है। नेत्र अंग रक्षक, मन दूत, इन्द्रियाँ दासी, देवताओं द्वारा यह उपहार उस प्राण ब्रह्म को भेंट किये गये है।

प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।

यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठितम्-अथर्व-कां ।।

उस प्राण को मेरा नमस्कार है, जिसके अधीन यह सारा जगत है, जो सबका ईश्वर है, जिसमें यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है।

प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या। तं मामायुरमृतभित्युपमृतं भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः। यावदस्मिच्छरीरे प्राणो वसित तावदायुः। प्राणेनहिं एव-गस्मिन् लोकेऽमृतत्व माप्नोति।

- शाँखायन

मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। प्राण ही आयु और अमृत जानकर उपासना करो। जब तक प्राण है, अभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है।

स एष वैश्वानरो विश्वरुपः प्रोणोग्निरुदयते।

प्रश्नो 1।7

वह प्राण रूपी तेजस सूर्य के उदय के साथ समस्त विश्व में फैलने लगता है।

प्राणो भवेत् परब्रहम जगत्कारणमव्यव्ययम्।

प्राणो भवेत् यथामंत्र ज्ञानकोश गतोऽपिवा॥

- ब्रहमोपनिषद्

प्राण ही जगत का कारण परमब्रह्म है। मंत्र ज्ञान तथा पंच कोश प्राण पर आधारित है।

प्राण शक्ति का वही ब्रह्म तेज आँखों में वाणी में चिन्तन और क्रिया में चमकता है। यह चमक ही बौद्धिक क्षेत्र में तेजस्विता और क्रिया क्षेत्र में ओजस्विता कहलाती है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में यही मनस्विता प्रतिभा बनकर दीप्तिमान होती है। प्राण शक्ति ही सर्वतोमुखी समर्थता कही जाती है।

एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष पर्जन्यो मद्यवानष्। एष पथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृत। चयत्॥

- प्रश्नो 2।5

यह प्राण ही अग्निरूप धारण करके तपता है। यही सूर्य, मेघ, इन्द्र, वायु, पृथ्वी तथा भूत समुदाय है। सत्-असत् तथा अमृत स्वरूप ब्रह्म भी यही है।

अन्यत्र भी ऐसे ही उल्लेख हैं-

अमृत सुवै प्राणः।

- शतपथ

यह प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है।

प्राणोवाब आशाय भूयान्यथा।

- छान्दोग्य

इस प्राण शक्ति की सम्भावना आशा से अधिक है।

प्राणो वैयशोवलम्।

- वृहदारण्यक।

प्राण ही यश और बल है।

प्राणश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम्।

- यजुर्वेद

मेरी प्राण शक्ति सत्कर्मों में प्रवृत्त हो।

प्राण को कई व्यक्ति वायु या साँस समझते हैं और श्वास प्रश्वास क्रिया के साथ वायु का जो आवागमन निरन्तर चलता रहता है उसके साथ प्राण की संगति बिठाते हैं। यह भूल इसलिए हो जाती है कि अक्सर प्राण के साथ ‘वायु’ शब्द और जोड़ दिया जाता है यह समावेश सम्भवतः वायु के समान मिलते-जुलते गुण प्राण में होने के कारण उदाहरण की तरह हुआ हो। चूँकि प्राण भी अदृश्य है और वायु भी। प्राण भी गतिशील है और वायु भी। प्राण भी सारे शरीर एवं विश्व में व्याप्त है और वायु भी, इसलिए प्राण की स्थिति मोटे रूप में समझने के लिए उसे वायु के उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है। किन्तु वास्तविक बात ऐसी नहीं है। वायु पंचतत्वों में से एक होने के कारण जड़ है, किन्तु प्राण तो चेतना का पुंज होने से उनका वस्तुतः कोई सदृश हो नहीं सकता। प्राण को प्रकृति की उत्कृष्ट सूक्ष्म शक्तियों (नेचर्स फाइनर फोर्सेज) में से एक कह सकते हैं। भारतीय योगियों ने इसे मानसिक या इच्छा सम्बन्धी श्वाँस प्रक्रिया (रेशपाइरेशन) के रूप में लिया है। वास्तव में ऐसी ही दिव्य धारा के प्रभाव से उच्च कोटि की आत्मिक शक्तियाँ प्राप्त होनी सम्भव है। श्वास प्रश्वास क्रिया का प्रभाव तो फेफड़ों तक अधिक से अधिक भौतिक शरीर के बलवर्धक तक सीमित हो सकता है।

प्राणोंऽयास्तीति प्राणी।

अर्थात् प्राणवान् को प्राणी कहते हैं। सांख्यकार ने प्राण को तत्त्व नहीं अन्तःकरण का धर्म माना है। सांख्य सारिका में कहा गया है-

स्वालक्षणयं वृत्तिस्त्रयस्य तैषा भवत्य सामान्या।

सामान्यकरण वृत्तिः प्राणद्या वायवः पच्च।

अन्तः करण के चार पक्ष है। चारों का अपना अपना धर्म है। मन का संकल्प, बुद्धि का विवेक, चित्त का धारणा और अहं का अभिमान। इन चारों का सम्मिलित स्वरूप समग्र प्राण है। विभिन्न कार्यों में होने वाले उसके प्रयोगों को देखते हुए प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान भेद से उसे पाँच प्रकार का कहा गया है।

न्याय दर्शन में प्राण को वायु अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। सम्भवतः उनका तात्पर्य ‘आक्सीजन’ या वैसी ही किसी अन्य प्रकृति क्षमता से रहा हो। वैशेषिक के अनुसार-

शरीरान्तः संचारी वायुः प्राणः सचैकोऽपि उपाधि भेदात् प्राणायानादि संज्ञां लभते।

शरीर के भीतर संचारित होने वाले वायु प्राण है। वह एक होने पर भी उपाधि भेद से पाँच प्रकार की है। योगदर्शन का अभिमत भी उसी से मिलता जुलता प्रतीत होता है। वेदान्तकार ने इससे अपना मत भेद व्यक्त किया है। ब्रह्म सूत्र में कहा गया है- ना वायु क्रिये प्रथगुपरेशात्। अर्थात् वायु प्राण नहीं है, उनकी क्रिया और सत्ता में भेद है।

छान्दोग्य और प्रज्ञोपनिषद में प्रजापति द्वारा इन्द्रियों की शक्ति परीक्षा के सम्बन्ध में आती है। वे समर्थ भर दीखती तो थी पर प्राण शक्ति के बिना कुछ भी कर सकने में समर्थ न हो सकीं। तब उन सब ने मिलकर प्राण की श्रेष्ठता स्वीकार की और उसे नमन किया।

अधिकांश उपनिषदों ने प्राण को आत्मसत्ता की क्रिया शक्ति माना है और उससे अविच्छिन्न कहा है। आत्मा को ब्रह्म भी कहा जाता है। दोनों की एकता बोधक कितने ही प्रतिपादन मिलते हैं। इस दृष्टि से प्राण को ब्रह्म शक्ति भी कहा गया है।

प्रज्ञोपनिषद में प्राण को व्रात्य ऋषि कहा गया है-

व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षि हे प्राण, तू (व्रात्य) कर्तव्य च्युत तो रहता है फिर भी मूलतः ऋषि ही है। व्याख्याकारों ने अन्य कई ऋषियों के नामों पर प्राण का उल्लेख किया है। उसे गृत्समंद कहा गया है। गृत्स कहते हैं। नियंत्रण कर्ता को मद कहते हैं कामुकता एवं अहंकार को। जो इन पर नियंत्रण कर सके वह गृत्स मद’ सब का मित्र होने से उसे विश्वामित्र कहा गया है। पापों से बचाने वाला-अत्रि पोषक होने से भारद्वाज और विशिष्ट होने से उसकी संज्ञा विशिष्ट बताई गई है।

कषाय कल्मषों और कुसंस्कारों का निराकरण, उन्मूलन इस प्रचण्ड संकल्प शक्ति के सहारे ही सम्भव होता है। ढीले पोले स्वभाव वाले आत्म परिष्कार की बात सोचते भर है, पर वैसा कुछ कर नहीं पाते। कल्पना जल्पनाओं में उलझे रहते हैं। प्रचण्ड संकल्प के बल पर उत्पन्न आत्मिक साहस ही दुर्भावनाओं, दुष्प्रवृत्तियों और कुसंस्कारों से जूझता है। उत्कृष्टता की दिशा में बढ़ चलने के लिए प्रेरणा और अवरोधों से जूझने की क्षमता उसी आत्मबल से मिलती है जिसे प्राण कहा जाता है। प्राण देवता के अनुग्रह से मनोनिग्रह और विकृतियों के उन्मूलन होने की बात बृहदारण्यक उपनिषद् में इस प्रकार कही गई है-

सा वा एषा देवतैतासां देवतानां पाप्मानं मृत्यु-मपहत्य यत्रासां दिशामन्तस्तद्गमयांचकार तदासां पाप्मनो विन्यदधात् तस्मान्न जनमियान्नान्तमियान्ने त्पामानं मत्यमन्ववायानोति।

वृ0अ॰ 1।3।10

प्राण देवता ने इन्द्रियों के पापों को दिगन्त तक पहुँचाकर विनष्ट कर दिया। क्योंकि वह पाप ही इन्द्रियों के मरण का कारण था। इन कल्मषों को इस निश्चय के साथ भगाया कि पुनः न लौट सके।

अथ चक्षुरत्यवहत् तद् यदा।

मृत्युमत्यमुच्यत स आदित्योऽपिवत्।

सोऽसावादित्यः परेण-मृत्युमतिक्रान्तस्तपति वृ0उ॰ 1।3।14

जब प्राण की प्रेरणा से चक्षु निष्पाप हुए तो वे आदित्य बनकर अमर हो गये और तपते हुए सूर्य की तरह अपने तप से ज्योतिर्मय हो उठे

इसी प्राण शक्ति को गायत्री कहते हैं। यों वह क्षमता स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के कण-कण में संव्याप्त है, पर उसका केन्द्र संस्थान मल मूत्र छिद्रों के मध्य मूलाधार चक्र गहरे में माना गया है। प्राण शक्ति के अभिवर्धन से इसी मूलाधार संस्थान का द्वार खटखटाना पड़ता है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए उसका फाटक खोलना या तोड़ना पड़ता है। मूलाधार चक्र की साधना से यही प्रयोजन पूरा होता है। गायत्री की प्राण शक्ति मूलाधार चक्र से सम्बन्धित होने का उल्लेख गायत्री मंजरी में मिलता है-

यौगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये!

गाययेव मतालोके मूलाधारा विदो वरै॥

- गायत्री मंजरी

विद्वानों का मत है कि समस्त यौगिक साधनाओं का मूलाधार गायत्री ही है।

प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रहमपुरे जाग्रति।

- प्रश्नोपनिषद्

इस ब्रह्मपुरी में प्राण की अग्नियाँ ही सदा जलती रहती है।

यद्वाव प्राणा जागर तदेवं जागारितम् इति।

- ताण्डय0

प्राण को जागृत करना ही महान् जागरण है।

प्राण को ज्ञान एवं जागरण ही अमृतत्व एवं मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है। उसी से यह लोक और परलोक सुधरता है। इसी से भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियाँ प्राप्त होती है। इसलिए वेद ने कहा है- है विचारशीलों प्राण को उपासना करो- गायत्री महामन्त्र का आश्रय लो और आत्म कल्याण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ चलो।

य एष विद्वान्प्राणं वेद रहस्य प्रज्ञा

हीयतेऽमृतो भवति तयेव श्लोकः।

- प्रज्ञोपनिषद

जो ज्ञानी इस प्राण के रहस्य को जानता है उसकी परम्परा कभी नष्ट नहीं होती वह अमर हो जाता है।

First 4 6 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • साधना पथ और अनन्त ऐश्वर्य
  • आत्मिक प्रगति के लिए साधना की आवश्यकता
  • गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश
  • Quotation
  • प्राणमय कोश में सन्निहित प्रचण्ड जीवनी शक्ति
  • मनोमय कोश की साधना से सर्वार्थ सिद्धि
  • विज्ञानमयकोश सूक्ष्म सिद्धियों का केन्द्र
  • आनन्दमय कोश की तीन उपलब्धियाँ समाधि स्वर्ग और मुक्ति
  • Quotation
  • कुण्डलिनी और अध्यात्मिक काम विज्ञान
  • मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश मूलाधार सहस्रार
  • Quotation
  • साधना के अवरोध दुष्कर्मों का निराकरण प्रायश्चित
  • Quotation
  • तीर्थ यात्रा क्यों और कैसे?
  • समग्र प्रगति के लिये जिज्ञासा समाधान और साधना विधान के दो चरण
  • एकाग्रता अभ्यास के लिए त्राटक योग की साधना
  • सिद्धि का अहंकार (kahani)
  • अंतः त्राटक से आत्म-ज्योति की साधना
  • नादयोग और उसकी आर्ष परम्परा
  • नादयोग से दिव्य क्षमताओं और दिव्य-भावनाओं का विकास
  • कुण्डलिनी का प्राणयोग-सूर्यभेदन प्राणायाम
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj