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Magazine - Year 1980 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मस्तिष्क को सृजन प्रयोजनों में लगायें

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सोचा यह जाता है कि बाहर की परिस्थितियाँ मनुष्य को सम्पन्न अथवा विपन्न बनाती हैं। मान्यता यही है कि साधनों के सहारे ही सफलता, असफलता मिलती है। कुटुम्बी, सम्बन्धी ही कष्ट देते और सुखी बनाते हैं। भाग्य ही उठता, गिराता है। यह मान्यताएँ प्रत्यक्ष घटना क्रम के अनुसार तो सही प्रतीत होती है, पर यदि गहराई में उतर कर देखा जाय तो प्रतीत होगा वस्तुस्थिति भिन्न है। अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरुप व्यक्तित्व बनता है और उसी के चुम्बकत्व से खिंचती हुई भली या बुरी परिस्थितियाँ हमारे निकट बढ़ती चली आती हैं। इस संसार में भला-बुरा सबकुछ है। इस बाजार में से अपनी इच्छानुसार हम जो भी चाहें खरीद सकते हैं। गलती इतनी ही होती है कि सुख चाहते तो हैं, पर उसके साधन जुटाने की अपेक्षा गलत संग्रह कर लेते हैं और प्रतिकूल परिणाम निकलने पर परिस्थितियों एवं व्यक्तियों को दोष देते हैं।

हँसती-हँसाती, खिलती-खिलाती, हलकी-फुलकी जिदंगी जी सकना हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है यदि अपने चित्त क्षेत्र का दूरदर्शिता के आधार पर पुननिर्माण करने के लिए अभिनव साहस जुटाया जा सकना सम्भव हो सके। जो मिला हुआ है उस पर हर्ष मनाया जाय, सन्तोष किया जाय और गर्व किया जाय। जो उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम उपयोग करने की योजना बनाई जाय। साथ ही अधिक पाने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास किया जाय। आवश्यक नहीं आकाँक्षा के अनुरुप मात्रा में ही प्रतिफल मिले। परिस्थितियों के चक्र में बहुत करने पर भी स्वल्प परिणाम निकलने की आशंका बनी ही रहती है। ऐसी दशा में स्वल्प सन्तोष का दृष्टिकोण रखा जाना बुद्धिमतापूर्ण है। जितना मिला उतने की खुशी मनाई जाय और शेष के लिए फिर नये सिरे से नये उत्साह और तैयारी के साथ प्रयत्न आरम्भ किया जाय। इस प्रकार थोड़ी-थोड़ी सफलताएँ मिलते चलने पर भी प्रसन्नता बनी रह सकती है। खिलाड़ी की तरह हार-जीत को बहुत महत्व न देते हुए खेल को अपने आप में एक मनोविनोद और स्वास्थ्य सर्म्वधन का स्थिर आधार माना जा सकता है। नाटक के पात्र कई तरह के प्रिय-अप्रिय अभिनय करते हैं। उनके लिए यह सब विनोद, कला एवं आजीविका उपार्जन भर होता है। नाटक में प्रदर्शित घटनाओं की कोई भली-बुरी छाप उनके मन पर नहीं होती। इसी दृष्टि से यदि हलकी-फृलकी जिन्दगी जीने का निश्चय किया जा य तो मात्र दृष्टिकोण बदलने से काम चल सकता है। वर्तमान परिस्थितियाँ जो आज जटिल दिखाई पड़ती हैं, कल ही सामान्य कामचलाऊ सन्तोषजनक प्रतीत होने लगेंगी और प्रतीत होगा कि अवरोधों एवं विक्षोपों का बहुत बडा पहाड़- धुँए के बादलों की तरह विवके पवन के एक ही झोंके में उड़ता हुआ कहीं से कहीं चला गया। सन्तुलित और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते ही हमारी आधी से अधिक चिन्ताओं-समस्याओं का समाधान निकलता आता है और चित्त पर लदा हुआ अनावश्यक और अवास्तविक बोझ सहज ही हलका हो जाता है।

दृष्टिकोण की विकृतियाँ हमें अकारण ही उलझनों में पटकती और खिन्न रहने के लिए विवश करती हैं। हम गरीब हैं या अमीर इसका निर्णय दूसरों के साथ तुलना करने से ही होता है। जब अपने को अमीरों की तुलना में तोला जाता है तो हलके पड़ते हैं और गरीब लगते हैं। पर यदि अपने से दरिद्रों के साथ तोलना आरम्भ करें तो प्रतीत होग कि पग-पग पर हार होती रही है, ठोकरें लगी हैं और पराभव का बार बार मुँह देखना पड़ा है। किन्तु यदि सफलताओं की दूसरी सूची तैयार की जा सके तो प्रतीत होगा कि सौभाग्य ने कितना साथ दिया है और ईश्वर के अनुग्रह से समय समय पर मिलती रही सफलताओं का कितना अधिक अवसर मिलता रहा है। सुख-दुःख, सफलता-असफलता, लाभ-हानि के उभय पक्षीय अवसर नित्य ही सामने आते हैं। इनमें हम जिन्हें महत्व देते हैं वे ही सामने खडे हो जाते हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य में से जिन्हें भी हम गिनना चाहें, उन्हीं की भरमार दिखाई देगी। संसार में न कोई पूर्ण सुखी है और न दुःखी। मिश्रित जीवन क्रम ही हर किसी के सामने रहता है। रात-दिन मिलकर ही समय चक्र घूमता है। नमक और शक्कर के मिले-जुले स्वाद ही सरस लगत हैं। ताने और बाने से मिलकर ही कपड़ा बुना जाता है। जन्म और मरण के चक्र पर जीवन की धुरी घूमती है। एक की हानि दूसरे का लाभ बनती है। यदि इस दुरंगी दुनियाँ की संरचना को विवेकपूर्ण समझा जा सके तो धूप-छाँव का-झूले पर आगे-पीछे जाने का-समुद्र के ज्वार-भाटे का आनन्द लिया जा सकता है। दुनियाँ हमारे लिए नहीं बनी है। अपनी इच्छानुरुप ही सबकुछ होता रहे ऐसा सम्भव नहीं। संसार भर से काँटें नहीं बीने जा सकते। अपने पैर में तूते पहन कर चला जा सकता है और काँटों की चुभन से बचा जा सकता है। संसार में फैली बुराइयों को ही देखते रहने के स्थान पर यदि अच्छाइयों पर भी दृष्टि डाली जाय तो सन्तुलन बना रह सकता है। अपने साथ उपकार करने वालों की सूची के साथ-साथ यदि उपकारों को भी गिन लिया जाय तो खिन्नता का आधा भाग प्रसन्नता के अधिकार में चला जायगा। निकट भविष्य में विपत्ति की आशंका करते रहने से मन भारी रहता है। यदि उज्जवल भविष्य की आशा सजाने लगे तो उतने भर से आँखों पर छाया हुआ निराशा का अंधेरा हट सकता है और सुखद सम्भावना की कल्पना से नई ज्योति चमक सकती है।

संसार के सफल मनुष्यों में यह गुण रहा है कि वे अपनी बहुमूल्य विचार सम्पदा को मात्र उपयोगी एवं आवश्यक कार्यों में ही नियोजित किये रहते हैं। एकाग्रता इसी का नाम है। कल्पना शक्ति को सर्वथा कुण्ठित कर देना- मन को एक बिन्दु पर ही केन्द्रित किये रहना- किन्हीं योगियों के लिए ही सम्भव हो सकता है। सामान्यतया एकाग्रता इतनी ही सम्भव है कि अपने अभीष्ठ प्रयोजन में चिन्तन को तन्मयतापूर्वक नियोजित रखा जा सके। साहित्यकार, कलाकार, वैज्ञानिक, योगसाधक तथा दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति मन की इतनी ही साधना कर पाते हैं कि चिन्तन को नियत प्रयोजन के लिए तत्पर कर सकने- उसे बिखरने न देने में समर्थ रह सकें। इतनी सिद्धी जिसे प्राप्त हो सके वह अपने विषय में गहराई तक उतर सकता है। उथले मन से सोचने पर आधी-अधूरी बातें ही हाथ लगती हैं।, पर तन्मयतापूर्वक सोचने से मस्तिष्कीय शक्तियाँ केन्द्रीभूत होने के कारण प्रखर बन जाती हैं और ऐसे आधार ढूँढ़ निकालती हैं। जिन्हें सूझ-बूझ, दूरदर्शिता एवं विशेषता सम्पन्न कहा जा सके। अनेकों अद्भुत सफलताएं इसी एकाग्रता के बल पर प्राप्त होती हैं।

प्रस्तुत समस्याओं के समाधान का-तथा भावी प्रगति के आधार खड़े करने का- इतना बड़ा क्षेत्र सामने पड़ा होता है कि मस्तिष्कीय क्षमता को पूरी तरह उसमें जुटाने पर ही प्रगति का पथ-प्रशस्त हो सकता है। अनावश्यक विचार प्रायः अवाँछनीय होते हैं। खाली दिमाग शैतान की दुकान माना जाता है। अनियन्त्रित विचार सदा निम्नगामी होते हैं। पानी सदा नीचे की ओर बहता है। प्रवृतियाँ भी पाप और पतन की ओर दौड़ती हैं यदि उन्हें उच्छृखल छोड़ दिया जाय तो मात्र अशुभी ही सोचेंगी और कुकर्मो की ही प्ररणा देंगी। उन्हें रचनात्मक दिशा लगाये रहना ही वह उपाय है जिससे यह महत्वपूर्ण शक्ति विग्रह और विनाश में न जुट जाय। जिस प्रकार निठल्ले रहने से शरीर आलसी, व्यसनी और अस्वस्थ बनता है उसी प्रकार मन को निरुद्देश्य फिरते रहने की छूट मिलने पर उससे पतन और पराभव का पथ-प्रशस्त होता है। अस्तु शरीर के लिए निर्धारित दिनचर्या की तरह मस्तिष्क के सामने भी ऐसे विषय सुनियोजित रखे रहने चाहिये जिनमें तनिक भी फुरसत मिलने पर विचारणा को जुटाया जा सके।

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