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Magazine - Year 1980 - Version 2

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Language: HINDI
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ईश्वर क्षमा करदे तो भी पाप दण्ड नहीं मिटेगा

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लोग नीति-अनीति बरतते हैं, दूसरों का शोषण करते हैं, अन्यायपूर्वक धन कमाते हैं और उसका एक अंश पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा भजन-पूजन, मन्दिर, देवालय में व्यय करके सोचते हैं कि इससे पाप कर्मों का प्रक्षालन हो गया। प्रथम तो यह सोचना ही गलत है। पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा और भजन पूजन का जो पुरस्कार मिल सकता है, तो वह पाप कर्मों के प्रक्षालन में नहीं, अन्तः चेतना के विकसित होने के रुप में मिलता है। उसके बदले किये गये पाप कमो्र्र से क्षमा मिल जाने का विधान ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में कहीं भी नहीं है। ईश्वर की न्याय व्यवस्था बहुत ही सूक्ष्म और तटस्थ है। एक हाथ आग में डालने की बात यह मानकर सोची जाय कि दूसरा हाथ पानी में डाल देंग और जलने से मुक्ति मिल जायगी तो ऐसा कहीं नहीं होता। आग में हाथ डालने का परिणाम जलने के रुप में भेगना ही पडेगा, जो हाथ पानी में डाला गया, वह भले ही ठण्डक महसूस करता रहे परन्तु आग से तो जलना ही पडेगा। पाप और दुर्ष्कम किये गये हैं तो उनका दण्ड भुगतना ही पडेगा, भले ही दान-दक्षिणा का पुरस्कार मिलता हो। उस पुरस्कार के बदले दण्ड से छुटकारा पाने, कर्मफल से मुक्त हो जाने का कोई उपाय ही नहीं है।

ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में कहीं भी ढ़ील ढ़ाल न होने की बात मानते हुए भी एक क्षण को यह मान लिया जाये कि ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा। लेकिन अपने भतर बैठी उस चेतना का, उस व्यवस्था का क्या कीजिएगा ? जो प्रत्येक भले-बुरे कर्मों का निरीक्षण करती रहती है और अपने लिए उसी आधार पर परिणाम निर्धारित करती है। उसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध विचारक और वैज्ञानिक विलियम जेम्स ने कहा है, “हो सकता है भगवान हमारे पापों को क्षमा कर दे किन्तु अपने भीतर काम कर रही वह व्यवस्था हमें हरगिज नहीं बख्शती जो सत्कर्मों से सुकृत्तियों के रुप में प्रभावित होती है और दुष्कर्मों से विकृतियों की ग्रन्थियाँ बनाती है तथा पीड़ा देती रहती है।”

डा॰ होप का कथन है कि “पाप और बीमारी में कोई अन्तर नहीं है। बीमारियाँ पैदा ही इसीलिए होती हैं कि मनुष्य आन्तरिक बिकृतियों से त्रस्त रहता है और बिकृतियाँ मनुष्य द्वारा किये जाने वाले दुष्कृत्यों के परिणाम स्वरुप जन्मती हैं।” इस तथ्य को तो अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे हैं कि शारीरिक रोगों की जड़ मनुष्य के मनःसंस्थान में छिपी रहती है। शरीर पर मन का नियंत्रण है, इस तथ्य को पगतिक्षण अनुभव किया जा सकता है। मस्तिष्क की इच्छा, प्रेरणा और संकेतों के अनुसार प्रत्येक अंग अवयव काम करता है। प्रत्यक्ष रुप में दिखाई देने वाले क्रिया-कलापों की प्रेरणा पहले मनःसंस्थान में उठती है, यह तो सभी कोई जानता और अनुभव करता है। जो कार्य अपनी इच्छा के बिना सम्पन्न होते दिखाई देते हैं, जिन हलचलों पर अपना कोई नियंत्रण प्रतीत नहीं होता वे भी वस्तुतः हमारे अचेतन मन की क्षमता और प्रवीणता के अनुसार संचालित होते हैं। श्वास-प्रश्वास, रक्त संचार, आकुचंन-प्रकुचंन, हृदय स्पन्दन, पाचन आदि क्रियाएं जिन पर अपनी इच्छा आकाँक्षा का कोई वश नहीं है, इस अचुतन मन द्वारा ही गतिशील रहती है।

शरीर विज्ञानियों के अनुसार मन यदि उद्विग्न और आकुल असन्तुलित रहता है तो रोग बीमारियों का होना निश्चित है। डा. डब्ल्यू॰ सी॰ डालवीरिस के मेयो-क्लीनिक में पन्द्रह हजार उदर रोगियों का उपचार करने के साथ उनके रोग का भी गहन अध्ययन किया गया । इस शोध अनुसंधान से यह निर्ष्कष सामने आया कि 70 प्रतिशत रोगी परिस्थितियों के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण उत्पन्न हुई मानसिक उद्विग्नता की बजह से अपने पेट को रोगी बना बैठे। औद्योगिक क्षेत्राो के अमेरिकी डाक्टरों के वार्षिक सम्मेलन में एक अनुभवी चिकित्सक डा॰ हेराल्ड सी॰ ऐर्जन ने अपने विश्लेषण का सार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि व्यवसायियों में से 44 प्रतिशत रक्तचाप और उदर रोगों से पीडित हैं। इसका कारण उनकी मानसिक स्थिति का तनावपूर्ण होना है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ बहन करने वालों में से आधे आदमी ढ़लती आयु से पहले ही स्नायविक रोगों के शिकार बन जाते हैं। इसका कारण उनका निरन्तर चिन्तित और उद्विग्न रहना ही होता है।

संसार के मूर्धन्य शरीरशास्त्री और चिकित्सा विज्ञानी भी अब इस निर्ष्कष एवं उपचार में प्रमुखता दी जानी चाहिए, क्योंकि दो तिहाई से अधिक रोग पेट से या रक्त से पर पहुँचने लगे हैं कि अस्वस्थता की जड़ें शारीरिक पदार्थें एवं अवयवों में ढूढ़ते रहने से ही काम नहीं चलेगा। अब मस्तिष्कीय स्थिति को भी निदान नहीं वरन् मस्तिष्क से उत्पन्न होते है। इस सर्न्दभ में ‘साइकोसोमेटिक’ नामक एक स्वतंत्र शास्त्र विकसित किया जा रहा है। विख्यात चिकित्सक ओ॰ एफ॰ ग्रोवर बारह वर्ष तक उदर व्रण से पीड़ित रहे। बहुत उपचार कराने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी, तो वे एक मनोविज्ञान वेत्ता के पास गए। उसने बताया कि यदि आप चिन्ता मुक्त हंसता-हसाता जीवन जीनें लगें तो आसन्न व्यथा से छुटकारा मिल सकता हैं।

मनोयोगपूर्वक डा॰ ग्रोवर अपने मस्तिष्क और स्वभाव में परिवर्तन लाने के लिए लग गये तथा जब वे अपने प्रयासों में सफल हो गए तो रोग ने भी उनका पिण्ड छोड़ दिया। इसके उपरान्त उन्होंने अपने रोगियों को भी वैसा ही परामर्श देना आरम्भ कर दिया। फलतः उपचार की सफलता आर्श्चयजनक रुप से बढ़ती गई। उनके मरीज उनकी चिकित्सा से पहले की अपेक्षा अधिक लाभान्वित होने लगे। अपने अनुभवों का निचोड़ बताते हुए डा॰ ग्रोवर ने लिखा है कि यदि रोगियों की मनःस्थिति को चिन्ता मुक्त एवं हल्का-फुल्का बनाया जा सके तो औषधोपचार की सफलता कई गुना अधिक बढ़ सकती है। मेरा यह दृढ़ मत है कि स्नायु दोर्बन्य, हृदयरोग, अजीर्ण, अनिद्रा, गठिया तथा रक्तचाप र्जसे जटिल रोगों की जड़ वास्तव में उद्विग्न मनःस्थिति में ही होती है। शरीर पर मन का असाधारण रुप से अधिकार है। इस तथ्य को जितनी अच्छी तरह हृदयगम किया जा सके उतना ही अच्छा है।

अलसर, संसार में व्याप्त उदर रोगों में पगथम स्थान प्राप्त करता जा रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार उदर रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों में पन्द्रह प्रतिशत इसी रोग के मरीज है। यह व्याधि खर्चीले उपचारों को भी अंगूठा दिखाती हुई गहरी जडें जमाये बैठी रहती है और टस से मस नहीं होती। इस रोग के विशेषज्ञ जोसेफ एफ॰ मोस्टग्यूमरी ने अपनी पुस्तक ‘नर्बस स्टमक ट्रवल’ में लिखा है कि यह महाव्याधि आहार सम्गन्धी विकुतियों से उतनी नहीं होती जितनी कि चिन्ता, आश्का और भयाक्रान्त मनःस्थिति के कारण होती हैं।

नेबल पुरस्कार विजेता एलेग्जी केरेल का कथन है कि संसार में जितने लोग शारीरिक बिकृतियों से मरते हैं, उससे कहीं अधिक की अकाल मृत्यु मनोविकारों के कारण होती है। उनके अनुसार रोगों की रोकथाम के लिए औषधी अपचार एवं शल्य चिकित्सा जैसे प्रयत्नों से ही काम नहीं चलेगा वरन् यह रहस्य भी लोंगों के गले उतारना होगा कि किस प्रकार चिन्ताओं से मुक्त रहा जा सकता है ? लम्बे समय तक स्नायु दौर्बल्य से पीड़ित रोगियों की मरणोत्तर पोस्टमार्टम द्वारा जाँच की गई तो पता चला कि उनके स्नायु संस्थान तो साधारण मनुष्यों के समान ही निर्दोष थे, पर वे जो कष्ट भुगत रहे थे इसका कारण मस्तिष्कीय विकृतियों की प्रतिक्रिया मात्र थी।

‘स्टाँप वरी एंड गेट वेल’ नामक ग्रन्थ के लेखक डा॰ एडवर्ड पोडोलन ने रक्तचाप, गठिया, जुकाम, मधुमेह, उदर विकार जैसे रोगों को मूल कारण मानसिक उद्विग्नता को बताया है और कहा है कि भली-चंगी शारीरिक स्थिति के लोग भी मानसिक खोने पर इन या ऐसे ही अन्य रोगों के शिकार होते देखे गए हैं। यूरोप और अमेरिका के सभ्यताभिमानी देशों में जिन पाँच प्रमुख कारणों या रोगों से लोग मरते हैं उनमें ‘आत्महत्या’ भी एक है। कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि आत्महत्या का प्रमुख कारण मानसिक उद्वेग है। दूसरे विश्व युद्ध में तीन लाख से कुछ अधिक व्यक्ति लड़ाई के मैदान में मरे थे, पर उन्हीं दिनों दस लाख से अधिक व्यक्ति हृदयरोग से आक्रान्त होकर काल कबलित हो गए। हृदयरोग में अचानक आई इस बाढ़ का क्या कारण है ? यह तलाशा गया तो विदित हुआ कि युद्धजन्य विभीषिका से भयभत और उद्विग्न होकर ही अधिकाँश लोग अपना सुतुलन खोने लगे और इस महाव्याधि के चंगुल में फँसकर अपनी जान गँवा बैठे।

क्यों उत्पन्न होती है यह मानसिक उद्विग्नता, लोग अपना मानसिक संतुलन क्यों खो देते हैं ?इसके उत्तर में परिस्थितियों का कारण बताया जाता है। पर वास्तविकता इससे एकदम भिन्न है। मानसिक कुसंस्कारों के कारण, चिन्तन की सही रीति-नीति से अपरिचित रहने के कारण ही तरह-तरह के विक्षोभ धरते हैं। अन्यथा संसार में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं हैं जो अनेकों समस्याओं और कठिनाइयों से घिरे रहने के बावजूद भी अपनी मनःस्थिति को विक्षुब्ध नहीं होने देते और हंसते-हंसाते सामने आई उलझनों को सुलझानें के लिए धैर्य और साहसपूर्वक जुटे रहते हैं। उसके विपरित ऐसे लोगों की भी कमी नहीं हैं जो राई बराबर कठिनाई को भी पहाड़ के बराबर मान लेते है और तिल का ताड़ बना कर निरन्तर उद्विग्न बने रहते हैं।

यह सब मानसिक दुर्बलता के कारण ही है और मानसिक दुर्बलता का कारण व्यक्ति द्वारा स्वयं ही भले-बुरे कर्मों से आमंत्रित की गई आत्म प्रताड़ना है। यह आत्म प्रताड़ना अच्छी खासी मनोभुमि को धेन की तरह खोखला कर देती है। इसलिए कहा गया है कि एक बार ईश्वर भले ही किये गये दुष्कर्मों को क्षमा कर दे परन्तु मनुष्य की आत्म-चेतना उसे कभी क्षमा नहीं करती।

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