
प्राकृतिक जीवन जिएँ, निरोग रहें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कोई भी बीमारी प्रारम्भ में बीज रुप में ही घर करती है यदि उस समय उस बीमारी की जड़ अर्थात् कारण को ही समूल नष्ट कर दिया जाय तो बीजरुपी रोग का पादप, विशालकाय वृक्षरुपी असाध्य रोग का रुप ही न धारण कर सके। किसी भी प्रकार की दवा रोग के वर्तमान स्वरुप को तो ठीक कर देती है किन्तु उस मर्ज की उत्पत्ति का कारण पता न चलने के कारण वही रोग भीतर ही भीतर जड़ जमाता चला जाता है।
रोगों का प्रमुख कारण अप्राकूतिक जीवन जीने का अभ्यास है, जैसे बिना नींद के आलस्यवश विस्तर में लेटे रहना अथवा आती हुई नींद को रोकने के लिए गर्मागर्म चाय व काँफी का उपयोग करना। बिना भूख लगे भोजन, कुसमय पर भोजन व स्नान, दाम्पत्य जीवन का असंयमपूर्ण निर्वाह, दुर्व्यसनों के माया-मोह में फंसना। शास्त्र वाक्य हैं-”अपथ्ये सतिगतार्थ स्याकती मौषधं निवेषणाँ” अर्थात्- जो लोग आहार-बिहार के नियमों का पालन करते हैं उनको दवाओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
बदहजमी बीमारी की जड़ है। इससे मल-मूत्र का सही अंग से विसर्जन रुक जाता है और वह शरीर के विभिन्न अवयवों में इधर-उधर जमा होने लगता है। जिससे सारे शरीर में ऊष्मा जमा होने जाती है। बदबूदा, गन्दा, गाढ़ा पेशाब, काली और सूखी टट्टी इसकी ही प्रतिक्रिया होती है।
दवाओं के प्रयोग से निर्जीव द्रव्य जो सहज रुप से उत्सर्जित हो जाना चाहिए रुक जाता है जिससे श्शरीर में खुश्की बढ़ना, हृदय की धड़कन कम होना, शरीर में आवश्यक गर्मी की कमी अनुभव होती है। इसे दूर करने के लिए और तीव्र औषध्यों का प्रयोग किया जाता है, जो पहले वो अपना असर दिखाती हैं बाद में रोग की जड़ को ही मजबूत बनाती हैं। यही विकार रुप में अतिसार खाँसी, जुकाम आदि के रुप में जब बाहर निकलती हैं तो पुनः उसी को बीमारी मानकर पुनः दबाने वाली दबाएं दी जाती हैं। जिसमें इन्जेक्शन आदि तक का प्रयोग करके विजातीय द्रव्यों को भीतर ही भयंकर बीमारी का रुप धारण करती हैं।
दवा के रुप में विष, गन्धक, अलकोहल आदि पदार्थ हमारे शरीर में प्रवेश पाकर बीमारियों को असाध्य अवयवों को जीर्ण बना देते हैं। बार बार एक ही किस्म की दवाओं के प्रयोग से शरीर पर उनका असर कम होंने लगता है और औषधी भी विजातीय द्रव्य के रुप में हमारे शरीर में एकत्र होने लगती हैं। अन्दर जमा मल जब विभिन्न रुपों में बढ़ा होकर शरीर के विभिन्न अ्रगों में जमा हो जाता है तो रक्तचाप, मूर्छा हिस्टीरिया, पागलपन, लकवा आदि की बीमारियाँ होने लगती हैं। यही विजातीय द्रव्य जननेन्द्रिय में पहुँचकर नपुँसकता, धातु रोग आदि रुपों में सामने आता है। सन्धियों में जमा होने पर सन्धिवात, दर्द पेट में जमा होने पर लीवर, नपेट बढ़ना, मूत्र-पिण्डों में जमा होने पर मूत्र विकार पथरी, सिक्वामेह आदि के रुप धारण करता है।
रोग उत्पत्ति का कारण और कुछ नहीं केवल कृत्रिम जीवन ही है। यदि अपने जीवन में समाविष्ट कृत्रिमताओं का परित्याग किया जाये और सहज स्वाभाविक अकृत्रिम जीवन जिया जाये तो कोई कारण नहीं कि बार बार बीमार पड़ना पड़े या बिस्तर पकड़ना पड़े।