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Magazine - Year 1980 - Version 2

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शरीर संरचना की दृष्टि से मानव प्राणी-अन्य जीवधारियों में से कितनो से ही पिछड़ा हुआ है। कितनी ही ऐसी विशेषताएँ क्षुद्र जीवों में भी पाई जाती हैं जिनके सौभाग्य से आमी को वंचित ही रहना पड़ता है। प्रकृति प्रकोपों को अन्य प्राणी जितना सह सकता है उतना मनुष्य के लिए शक्य नहीं है। उसे परिधान पहनने और आच्छादित ढूँढ़ने की अनिवार्य आवश्यकताएँ पड़ती हैं जबकि जीवधारियों में से असंख्यों को इसके बिना ही काम चलाते देखा जा सकता है। बुद्धिमत्ता की विशेषता को ही उसे सुविधा-साधनों से भरा-पूरा, प्रगतिशील और प्राणी जगत क मणि मुकुट बनाया है। यह बुद्धिमत्ता उसकी स्वयं की उपार्जित है। आदर्शवादी सद्भावनाओं को ईश्वर प्रदत्त अनुदान ही उसे सहकारी उदार जीवन जीने धर्म कहते हैं। वैसे इन दोनों को तत्वज्ञान, नीतिशास्त्र, ब्रह्म विद्या, धर्म धारणा आदि नाम भी दिये जाते रहे हैं। भौतिक प्रगतिशीलता और आँतरिक सुसंस्कारिता की विशेषताएँ मानवी गरिमा के नाम से जानी जाती हैं। यदि इस सत्प्रवृति का अभाव रहा होता तो मनुष्य प्राणी अपनी दुर्बल शारीरिक संरचना के कारण प्रकृति संघर्ष में कब का हार गया होता। जब महागज, महासरीसृप, महाव्याघ्र जैसे विशाकाय प्राणी अपने अस्तित्व की रक्षा न कर सके और प्रागैतिहासिक काल की गाथा मात्र बनकर रह गये तो निश्चित ही मनुष्य की दुर्बल काया कब की इस धरती पर से निहित हो गई होती। बुद्धिमत्ता ने ही उसे जीवित और प्रगतिशील रखा है। कहना न होगा कि यह बुद्धिमत्ता मनुष्य का

/द्मर्द्गंह्= स्रद्मह्य द्बह्नह्वह्लर्द्धंद्धशह् स्रद्भह्वह्य स्रह्य क्द्ध॥द्मह्वश द्बभ्;द्मद्य

की प्रेरणा देता रहा है और उसी आधार पर उसने क्रमिक विकास के मार्ग पर अग्रसर होते हुए बुद्धिमत्ता पाई है। अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य को अन्य किसी दृष्टि से विशिष्ट नहीं माना जा सकता। मौलिक विशेषता एक ही है- उत्कृष्टता की पक्षधर उदार सद्भावना। यही सहकारिता के रुप में प्रकट हुई और मानवी प्रगति के अगणित आधार प्रस्तुत करने में समर्थ हुई है।

मनवी मौलिक विशिष्टता को अंतरंग जीवन में उत्कृष्टता और बहिरंग क्षेत्र में शालीनता कहते हैं। इन्हीं दोनों को संस्कृति एवं सभ्यता नामों से जाना जाता है। पुरातन भाषा में उत्कृष्ट चिन्तन को, संस्कृति को, अध्यात्म एवं उदार सहकारिता को, सद्व्यवहार को निजी उपार्जन है-दैवी अनुदान नहीं। इस तथ्य को वन्य क्षेत्र में रहने वाले पशु परम्परा अपनाये हुए मनुष्य की पिछड़ी स्थिति का देखते हुए आज भी जाना जा सकता है। सदाश्यता की वह विशेषता है जिसने चिन्तन और चरित्र को ऊँचा उठाने और प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचने के वरदान उपलब्ध कराये हैं।

उत्कृष्टता का पक्षधर तत्व-दर्शन और नीति निर्धारण ही अध्यात्म है। इसी को भौतिक व्यवस्था के सर्न्दभ में राजतंत्र और आत्मिक निर्धारण के सम्बन्ध में धर्मतन्त्र कहा गया है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसे दुर्बल होने दिया जाये। राजतन्त्र लड़खड़ाने लगे तो अराजकता फैलेगी औश्र व्यवस्था तथा प्रगति का सारा ढाँचा लड़खड़ाजायेगा। इसी प्रकार धर्मतन्त्र पर अस्त-व्यस्तता छाई तो नियम, अनुशासन एवं सद्व्यवहार की रीति-नीति को जीवन्त न रखा जायेगा। मत्स्य न्याय का प्रचलन मानव समाज में चल पड़ा तो बुद्धिवादी आक्रमकता अन्ततः आदवी कलह उत्पन्न करेगी और परस्पर लड़ कर समाप्त हो जाने की स्थिति बनेगी। न सुरक्षा दृष्टिगोचर होगी न निश्चिन्तता। चिन्तित और शंकाशील-कातर और आतंकित मनुष्य निर्वाह के साधन तक न जुटा सका तो बेमौत मारा जायगा। राजतन्त्र और धर्मतन्त्र ही वे आधार है जो भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्रों की सुव्यवस्था बनाये रहते हैं।

मध्यकालीन अन्धकार युग में भ्रान्तियों एवं विकृतियों ने सभी क्षेत्र में प्रवेश किया उससे राजतन्त्र और धर्मतन्त्र जैसी व्यवस्थाएँ भी बेहतर लड़खड़ाई। राजतन्त्र के क्षेत्र में सामन्तवाद, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, अधिनायकवाद जैसी दुष्प्रवृतियों घुसी और उस व्यवस्था को निहित स्वार्थों का आगधापी का क्षेत्र बनाकर रख दिया। जन साधारण ने उस कुचक्र में फँसकर सुरक्षा के स्थानों पर त्रास ही पाये। धर्मतन्त्र की भी ऐसी ही दुर्गति हुई। उस क्षेत्र के अनुयायी मात्र भ्रम जेजालों में श्रद्धा एवं श्रम सम्पदा का अपव्यय करते रहे हैं। इसके विपरित धर्मजीवी पुरोहितों को सम्मान एवं वैभव अर्जित करने का बिना किसी त्याग पुरुषार्थ के ही मिलता रहता है।, पस्तुत परिस्थितियों को देखने से लगता है कि धर्म की आत्मा रुष्ट होकर कहीं अन्यत्र चली गईं और अपना निष्प्राण कलेवर सड़न और दुर्गन्ध फैलाते रहने के लिए पड़ा छोड़ गई है।

नव जागरण की इस प्रभात बेला में आवश्यक परिवर्तन और उपयोगी निर्धारण हो रहा है। सभी क्षेत्र उससे प्रभावित हुए हैं। राजतंत्र की अधिक शुद्ध और प्रखर बनाने के लिए उस क्षेत्र के शूरवीर अपने ढ़ंग से प्रयास कर रहे हैं। जागरुकता और गतिशीलता-संघर्ष और कर्मठता जहाँ भी रहती है, वहाँ देर-सबेरे में औचित्य तक पहुँचने का साधन बन जाता है। उस दृष्टि से राजतन्त्र का भविष्य आशाजनक है। असमंजस धर्मतन्त्र के सम्बन्ध में है। क्योंकि उस क्षेत्र में जागरुकता, कर्मनिष्ठा और प्रगतिशीलता की तीन आवश्यकताओं में से एक भी पूरी नहीं हो रही हैं। उस क्षेत्र की प्रतिभएँ अपने निहित स्वार्थों से बेतरह चिपकी हुई हैं। न कहीं मार्टिन लूथर दिखते हैं न दयानन्द। गुरु गोविन्दसिंह और समर्थ रामदास से सच्चे धर्म रक्षकों का अनुकरण भी कोई नहीं कर रहा है। ऋषि परम्परा की तो चर्चा ही क्या की जाय? सन्त और सुधारकों की पीढ़ी भी धीरे-धीरे बबरशेरों की तरह घटती विलुप्त होती चली जा रही है। राजतन्त्र में पीड़ित प्रजाजनों ने स्थान-स्थान पर समय-समय पर विद्रोह किये और अन्धकार पाये, पर धर्मतंत्र के समूचे क्षेत्र में कहीं वैसी हलचल भी दिखाई नहीं पड़ती। सर्वत्र शमशान जैसी निस्तब्धता छाई हुई है। चमत्कार देखने और मनोकामना पूरी कराने की बिड़म्बना ही साधना सिद्धी का कलेवर ओढ़े जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ती है। कर्मकाण्डों के खर्चीले ढकोसले भी धनीमानी लोगों को आगे करके जब तब खड़े किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त वैसा कहीं कुछ हीं दीखता जिसमें धर्म को, आत्मा को जीवन्त स्थिति में देखा, जाना जा सके ।

निकृष्टता अपनाने पर व्यक्तियों का स्तर गया-गुजरा हो जाता है। प्रतिभाएँ जब भ्रष्टता और दुष्टता अपनाने पर उतारु होती हैं तो प्रगति का प्रवाह रुकता है और सन्तुलन लड़खड़ाता है। संक्षेप में विश्व-व्यवस्था में अवरोध उत्पन्न होने का कारण धर्मतंत्र का लड़खड़ाना ही प्रमुख है । राजतंत्र के उत्थान-पतन पर भी उसी का प्रभाव पड़ता है। कोई समय था जब ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की उक्ति सही थी। अब जनतंत्र का प्रचलन होन पर ‘यथा प्रजा तथा राजा’ की नई स्थापना हुई। अब वोटर ही शासन सत्ता किसे सौंपी जाय इसका निर्णय करते हैं। ऐसी दशा में मतदाता का जागरुक, दूरदर्शी और आदर्शों के प्रगति निष्ठावान होना आवश्यक है। यह कार्य विशुद्ध रुप से धर्मतंत्र का है।

राजतंत्र भौतिक क्षुत्र व्प्यवस्थाएँ बना सकता है, पर उसकी प्रकृति कूटनीति प्रधान, दमन नियंत्रण पर निर्भर होने के कारण आस्थाओं का निर्माण करने जैसी जटिल प्रक्रिया को सम्भाल सकने में असमर्थ ही रहती हैं। शिक्षा और प्रचार जैसे कार्य तो सरकार या सम्पन्न लोगों द्वारा हो सकते, पर अन्तःकरण की गहराई पहुँचकर व्यक्ति को उदात्त एवं उदार बना सकना उसके बस की बात नहीं है। आस्था क्षेत्र को प्रभावित कर सकना धर्मतंत्र की ही परिधि में आता है। अस्तु उसे सर्वोपरि महत्व मिलने की बात हर दृष्टि उचित एवं उपयुक्त है।

प्रस्तुत परिस्थिति को बदलने के लिए आवश्यक हो गया है नीति सत्ता के प्रगति निष्ठा उत्पन्न करने का काम नये सिरे से आरम्भ किया जाय। इसे धर्म तत्व का पुनर्जीवन काया-कल्प या नव-निर्धारणभी कह सकते हैं। पुरातन का जीर्णोद्धार तो होना ही चाहिए। समय की आवश्यकता को देखते हुए उसमें नये तत्वों का समावेश भी अनिवार्य हो गया है। वैज्ञानिक, बौद्धिक और आर्थिक प्रगति को इन शताब्दियों में प्रगति की दिशा धारा अत्यन्त तीव्र हुई है। उसने नई आवश्यकताएँ और समस्याएँ उत्पन्न की है। भौतिक क्षेत्र में ही नहीं आत्मिक क्षेत्र में भी। इब बिजली और द्रुतगामी वाहनों के बिना काम चल सकना कठिन है। दो शताब्दी पूर्व इसके बिना भी काम चल सकता था, पर अन्न, वस्त्र की तरह आवश्यक हो चले हैं। उसी प्रकार चिन्तन और व्यवहार में भी भारी उथल-पुथल हुई हैऔर उनने व्यक्ति तथा समाज को आर्श्चयजनक रुप से प्रभावित किया है। इन नई उपलब्धियों को धर्मतंत्र में भी जगह मिलनी चाहिए। अब परमार्थ प्रयोजनों को ब्रह्मभोज, गौदान, तीर्थ स्थान, कथा-प्रवचन, एवं धर्मनुष्ठानों तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उसमें पीड़ा और पतन निवारण कर सकने वाले अनेक तथ्यों का समावेश करना होगा। कुरितियों का उन्मूलन भी अब परमार्थ में ही माना जायगा। शिक्षा प्रसार और वृक्षारोपण जैसे कार्य भी अब धर्म क्षेत्र का ही आश्रय पाना चाहेंगे। ज्ञान-यज्ञ की जो परिधि जो पुरातन काल में थी अब उसका दायरा कहीं अधिक विस्तृत करने की आवश्यकता पड़ेगी। धर्मक्षेत्र न केवल परिशोधन चाहता है वरन् उसमें बहुत कुछ परिवर्धन भी चाहिए। समय की दौड़ कहाँ से कहाँ पहुँच गई आस्थाओं को प्रभावित करने प्रक्रिया को भी समय को पहचानना और तद्नुरुप तालमेल बिठाना पड़ेगा।

धर्मतन्त्र की गरिमा प्राचीन काल की तरह आज भी यथावत् है। उसका महत्व घटा नहीं बढ़ ही गया है। इन दिनों धर्म नाम से विज्ञ समाज को चिढ़ है, उसका कारण समझा जाना चाहिए। निहित स्वार्थो की लूट-खसोट, मूढ़ मान्यताओं की भरमार तथा प्रतिगामी प्रचलनों ने ही यह चिढ़ पैदा की है। अन्यथा धर्म तत्व तो चिन्तन क्षेत्र पर उत्कृष्टता का आरोपण और अभिवर्धन करने वाला आधार है। उसे शान्ति और प्रगति का मुरुदण्ड ही माना पड़ेगा। नीतिसत्ता, उदारता और कर्मनिष्ठा का परिपोषक धर्म यदि लोकचेतना पर से अपने अंकुश हटाने लगा तो समझना चाहिए कि बिना दैवी प्रकोप के ही पारस्परिक विग्रह से इस धरती पर महाप्रलय की सर्वनाशी विभीष्काएँ उठ खड़ी होंगी।

धर्मतन्त्र को जीवन्त एवं प्रखर बनाने वाले आधार रहे हैं- (1) गतिविधियों का सूत्र संचालन कर सकने के लिए भवन, देवालय (2) निर्धारित प्रयोजनों को व्यापक बनाने के लिए जन सहयोग, सन्त ब्राह्मण, वानप्रस्थ आदि लोकसेवियों का समुदाय (3) कार्यकर्ताओं का निर्वाह तथा क्रिया-कलापों को अग्रगामी बनाने के लिए अर्थ साधन। इन्हीं तीन आधारों पर कोई समर्थ तन्त्र खड़ा रह सकता है। शासन को भी अपने अगणित उत्तरदायित्वों की पूर्ति सूत्र संचालन इमारतों के आश्रम में ही करना पड़ता है। बड़े कारखाने अथवा छोटे निवास गृह सर्वप्रथम आश्रय स्थान माँगते हैं। धर्म को भी यदि देवालयों की आवश्यकता पड़ती है तो यह सर्वथा उचित ही है। जन-समुदाय के सहारे ही शासन-व्यवस्था चलती है। कारखाने, छावनी, कला-कौशल, विद्यालय आदि में जन-शक्ति का ही बोलवाला है। धर्म ने यदि सन्त, ब्राह्ममणों, वानप्रस्थ जैसे पूरा समय देने वाले तथा धर्म प्रेमी, भक्तजनों के रुप छुटपुट श्रम साधना प्रस्तुत करते रहने वालों का एक बड़ा वर्ग कार्य संलग्न रहता है तो उसे कर्म कौशल ही कहा जाएगा। कार्य संलग्न लोगों का निर्वाह तथा क्रिया-कलापों में खर्च होने वाली राशि का प्रबन्ध सभी को करना पड़ता है। सरकार टैक्स लगाती है। कारखाने मुनाफे लेते हैं। संस्थाएँ शेयर बेचती या चन्दा वसूल करती हैं। धर्म ने दान-दक्षिणा के माध्यम से श्रद्धाभक्ति, स्वेच्छा, सहयोग उपलब्ध करने का मार्ग निकाला है तो उसे औचित्य के अर्न्तगत ही लिया जायगा। तन्त्र चाहे शासकीय हो, आर्थिक हो, बौद्धिक, कलापरायण या धर्म धारणा से सम्बन्धित हो, हर हालत में इन तीनों साधनों को जुटाने की आवश्यकता अनिवार्य रुप से पूरी करनी हीपड़ेगी। इन दिनों धर्म को प्रगतिशील बनाने और नव-सृजन में समुचित योगदान के लिए समर्थ बनाने में भी इन तीन साधनों को नये सिरे से सरंजाम जुटाना पड़ेगा।

अच्छा होता कि धर्म के सुविस्तृत ढाँचे को ही परिवर्तित कर दिया गया होता और उसके हाथ में जो प्रचुर साधना है उनका उपयोग सामयिक आवश्यकता की पूर्ति में सम्भव हो सका होता। पर यह कार्य वर्तमान परिस्थितियों में लगभग असम्भव जैसा है। निहित स्वार्थो का शिकंजा इतना कसा हुआ है किसमें से साधनों का छुटकारा दिला सकना कठिन है। इसमें धर्म व्यवसायियों की समर्थता नहीं, वरन् सम्बन्धित जन-समुदाय की भावनात्मक दुर्बलता भी बहुत बड़ा निमित्त कारण हैं। पिछड़ी हुई परिस्थितियों में धर्म बिड़म्बनाओं को ही धार्मिकता का स्थान मिल गया है और मूढ़गति को पूर्वाग्रहों के साथ जकड़े रहना ही रुचता है। धर्म ध्वजी और भक्तजनों का पारस्पिरिक खाँचा ऐसा गुँथ गया है कि वे एक दूसरे से असन्तुष्ट रहते हुए भाी यथास्थिति बनी रहने के ही समर्थक हैं। जन-तन्त्र की ढ़ाील-पोल में बड़े सुधारों के लिए बड़े कदम उठ सकने सम्भव नहीं। इसमें भौतिक अधिकारों की-जनमत की-बात आड़े आती है और कितनी ही कुरीतियों को भी सहन करना पड़ता है। वर्तमान धर्म बिड़म्बना का अभीष्ट परिवर्तन इन परिस्थितियों में इतना नहीं हो सकता जितना तत्काल आवश्यक है। सुधार क्रम मंथर गति से चलाया जय तो इसमें सैकड़ों वर्षों का समय लगेगा। आर्य समाज जैसी सुधारक संस्थएँ एक शताब्दी का लम्बा समय बीत जाने पर भी उतना कुठ कर नहीं सकी हैं जितनी कि अपेक्षा थी।

ऐसी दशा में एक मात्र उपाय यही रह जाता है कि युग धर्म का निर्वाह कर सकने के लिए उपयुक्त ढ़ाँचे का धर्मतन्त्र खड़ा किया जाय। प्राचीनकाल में भी समय-समय पर इसी प्रकार सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति की गई है। भगवान बुद्ध, समर्थ गुरु रामदास, गुरु गोविन्दसिंह, सन्त कबीर, दयानन्द, महात्मा गाँधी आदि के प्रयासों को इसी श्रेणी के गिना जा सकता है। अपने-अपने ढ़ंग से ऐसे तन्त्र खड़े किये थे जिनमें भवन, जन-सहयोग एवं अर्थ साधनों की आवश्यकता जुटाई गई थी और भावनात्मक उर्त्कष का कार्य आगे बढ़या गया था। पुरातन को सुधारने का लम्बा रास्ता उनमें से किसी को भी सफल होता नहीं दीखा। फलतः अपने-अपने ढ़ंग से अपना ढाँचा खड़ा करके कार्य आरम्भ कर दिया। इन प्रयत्नों की शानदार परम्परा और सराहनीय सामयिक उपलब्धि रही है। यह बात दूसरी है कि पीछे उन प्रयासों में विकृतियाँ घुस पड़ीं। यह भी नियति की बिड़म्बना है कि कालान्तर में हर वस्तु जराजीर्ण हो जाती है। उसकी प्रखरता घटती और कुरुपता बढ़ती है। काया की भी ऐसी ही दुर्गति होती है। नव यौवन और जराजीर्ण काया के बीच जमीन-आसमान जैसा अन्तर दीखता है और पतन पराभव पर निराशा होती है। इतने पर भी सृष्टा की यह व्यवस्था उत्साहवर्धक है कि अनुपयोगी होते हैं दूसरी समर्थ शक्तियाँ उसे चदच्युत कराने से नहीं चूकती। जराजीर्ण काया को मौत आ दबोचती है और अनुपयुक्त संसाधनों की मरम्मत न बन पड़ने पर उसे तोड़कर नया ढ़ाँचा खड़ा करने के लिए जागरुकता सदा तत्पर रहती है। धर्मतंत्र भविष्य में अनुपयुक्त बनेंगे इसकी चिन्ता कोई विचारशील नहीं करता। क्योंकि उसे विश्वास रहता है कि जिस प्रकार पुरातन विकृतियों को ताड़ने में अपना प्रयत्न चला है, उसी प्रकार अपने निर्धारण में अवाँछनीयता का प्रवेश होने पर दूसरी जागरुक शक्तियाँ उसे धर दबोचने के लिए भविष्य में भी जीवन्त ही बनी रहेंगी।

स्मय की माँग है कि संव्यास विकृतियों से जूझने और उनके स्थान पर शालीनता की स्थापना का प्रबल प्रयत्न किया जाय। कहना न होगा यदि आवश्यकता की पूर्ति चिन्तन और चरित्र को प्रभावित, परिष्कृत कर सकने में समर्थ पा्रणवान धर्मतन्त्र के सहारे ही सम्भव हो सकती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए युग धर्म का वह ढाँचा खड़ा किया गया है जो शाश्वत सिद्धान्तों का परिपूर्ण पालन करते हुए-विकृतियों से जूझने और सत्प्रयोतनों का समावेश करने के लिए कटिवद्ध, समर्थ एवं सफल हो सके। समर्थ धर्मतन्त्र के सहारे ही लोकशिक्षण और लोकनिर्माण के उभय-पक्षीय प्रयोजन सही रीति से-सही रुप से सम्पन्न हो सकते हैं।

इन दिनों युग निर्माण अभियान द्वारा गायत्री शक्ति पीठों का निर्माण-लोकसेवियों के कर्मरत होने का आहृन और नियमित अंशदान के लिए सद्भाव सम्पन्नों के लिए सहयोग अर्जित किया जा रहा है। इस त्रिविधि कार्य पद्धति में धर्मतन्त्र को युग धर्म का निर्वाह कर सकने के लिए समर्थ बनाने को दूरगामी योजना बनाने का समावेश है। बड़े शक्तिपीठ बनाने की बात इन दिनों गौण कर दी गई है और छोटे चरण पीठ हर गाँव बनाने की योजना की योजना दु्रतगति से अप्रगामी हो रही है। देश के सात लाख गाँवों में से एक लाख गायत्री चरणपीठ के नाम से छोटे-बड़े धर्म संस्थान स्थापित किये जा रहे हैं। इनकी लागात ढ़ाई सौ रुपये से लेकर बीस हजार तक रहने का प्रबन्ध स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए किया जायगा। यह प्रबन्ध बन पड़ने पर उन गतिविधियों का सूत्र संचालन भली प्रकार बन पड़ेगा जो जन-मानस को परिष्कृत करने की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है।

वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करके ढलती आयु के सभी सद्भाव सम्पन्नों को युग सृजन में जुट पड़ने के लिए कहा गया है। ग्रस्त व्यक्ति भी अन्य कामों में से समय की बचत करके नव सृजन में योगदान कर सकें ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है। जो ब्राह्ममणोचित निर्वाह कर सकते हैं एवं जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हैं उनके लिए निर्वाह जुटाने के लिए दस पैसा या मुट्ठी अन्न जमा करने वाले धर्मघटों की स्थापना की जा रही है। सत्प्रवृत्ति सर्म्वधन के लिए अनेकों रचनात्मक काम आ गये हैं। उनके लिए भी अर्थ साधन चाहिए। इसके लिए अधिक भावनाशीलों को महीने में एक दिन की अजीविका देने का अनुरोध किया गया है। सम्पन्नों से इस प्रकार के कार्यों में सहयोग मिलने की बात परिष्कृत वातावरण में ही सम्भव हो सकती है। आज की स्थिति में उनका सहयोग कठिन है। इसके लिए लोकश्रद्धा को जीवन्त करके बूँद-बूँद अनुदान से ही सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति का मार्ग निकालना पड़ेगा। ऐसा ही कुछ इन दिनों किया जा रहा है। जो किया जा रहा है उसमें जन-जन के मन-मन में अभिनव आशा का संचार किया है। जन समर्थन की उपलब्धि इतनी बड़ी है कि उसके सहारे असम्भव दीखने वाले कार्य सम्भव हो सकते हैं।

युगनिर्माण मिशन के दो लक्ष्य हैं-- एक मनुष्य में देवत्व का उदय, दूसरा धरती पर र्स्वग का अवतरण। इन दोनों का आधार एक ही है चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश। यह कार्य धर्म तन्त्र का तत्व दर्शन एवं प्रचलन प्रवाह ही सम्पन्न कर सकता है। युग परिवर्तन के लिए यही अभीष्ट था सो सृष्टा की सन्तुलन व्यवस्था के अर्न्तगत यही सुनियोजित रीति से हो भी रहा है।

युग सन्धि के बीजारोपण वर्ष में गायत्री शक्तिपीठों, चरणपीठों के निर्माण के प्रयास में हो रही प्रगति से प्रतीत होता है कि प्रज्ञा युग के आगमन में देर नहीं। अगले दिनों विवेक को ही सर्वोपरि मान्यता मिलेगी अनौचित्य के उन्मूलन और औचित्य के संस्थापन में जिस भावनात्मक प्रखरता की आवश्यकता है उसका अरुणोदय होते हुए इन प्रयासों के साक्षी में देखा जा सकता है जो धर्म संस्थापनों की स्थापना-समवर्दानी परिव्राजकों की सेवा साधना एवंज न-जन के बूँद-बूँद अंशदान सहायता के सहारे तनकर खड़े हो रहे हैं। इन छोटे प्रयासों के पीछे महान् सम्भावनाओं को गतिशील होते और उज्जवल भविष्य की सम्भावनाओं को सार्थक बनते, देखने वाले स्वपनदर्शी नहीं यथार्थवादी ही समझे जायेंगे।

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