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Magazine - Year 1981 - Version 2

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प्रसन्न रहिए ताकि स्वस्थ रह सकें।

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First 19 21 Last
शरीर स्वतन्त्र रूप से कुछ भी नहीं करता। वह तो एक यन्त्र मात्र है, जिसका संचालन मन रूपी यान्त्रिक करता है। भारतीय मनीषियों ने इसे एक रथ बताया है और मन को सारथी कहा है। सारथी रथ की उचित देखभाल नहीं करेगा तो उसका टूटना-फूटना स्वाभाविक है। मन भी यदि कुमार्गगामी, कुसंस्कारी है तो उसका प्रभाव शरीर के रोगाक्राँत होने के रूप में लक्षित होता है। अब तक समझा जाता था कि रोग बीमारियों का कारण मनुष्य के शरीर में ही कहीं विद्यमान है। उन्हीं का उपचार किया जाता था, किन्तु चिकित्सा विज्ञान क्रमशः इस निष्कर्ष पर पहुँचता जा रहा है कि बीमारियाँ शरीर में उत्पन्न नहीं होती बल्कि मन से उपजती हैं।

तीन सौ से भी अधिक रोगियों का अध्ययन कर डा. जेम्स चार्ल्स ने एक कर्नल के बेटे का उदाहरण देते हुए कहा कि छोटी-मोटी बीमारियाँ ही नहीं रक्तचाप, यक्ष्मा, कैंसर तथा हृदय रोग जैसी भयावह बीमारियाँ भी मानसिक कारणों से उत्पन्न होती हैं। उन्होंने रक्तचाप के एक मरीज का विचित्र केस सुलझाया। यह रोग आमतौर पर बड़ी उम्र में होता है, परन्तु उनके पास जो मरीज लाया गया था वह 21 वर्ष का युवक था। पिता मिलिट्री में कर्नल थे। अच्छा खासा सम्पन्न परिवार था। किसी बात की कमी नहीं, किसी तरह की चिन्ता नहीं। स्वास्थ्यप्रद भोजन, माता-पिता का भरपूर लाड़-प्यार और हर तरह के साधन सुविधाएं फिर यह रोग क्यों उत्पन्न हुआ?

कारणों को कुरेदते हुए डा. जेम्स चार्ल्स ने उसकी पिछली जिन्दगी में झांका। बीमारी की जड़ें उस समय पड़ी थीं जब लड़के ने अपने पिता की जेब से दस रुपए का एक नोट निकाला और सिनेमा देख आया। कर्नल के पास वैसे ही पैसों की कमी नहीं थी। बेफिक्र और पैसे वाले कर्नल साहब को यह भी पता नहीं रहता था कि उनकी जेब में कितने पैसे हैं? सो ध्यान नहीं गया एकबार पैसे निकाल लेने पर जब उसकी कोई प्रतिक्रिया देखने में नहीं आई तो लड़के ने समझ लिया पिताजी बावले हैं, उन्हें कुछ पता नहीं चलता और फिर जो सिलसिला चल पड़ा तो ऐसा चला कि लड़का बड़ी रकमों पर हाथ साफ करने लगा। कुसंगति में पड़कर वह शराब भी पीने लगा और दूसरी गंदी बातों में भी पैसा खर्च करने लगा।

दूसरे लोगों से अपने बेटे की हरकतों के बारे में जब कर्नल साहब को पता चला तो उन्होंने लड़के को बुरी तरह डाँटा। गंदा नाला एक बार बह निकलता है तो दुर्गन्ध भी अभ्यास में आ जाती है और वह स्वाभाविक लगने लगती है। फिर यदि उस नाले को एकाएक रोक दिया जाए तो दुर्गन्ध एक ही स्थान पर यकायक तीव्र हो उठती है। ऐसा ही हुआ। कर्नल साहब ने एकाएक ब्रेक लगाया जो लड़के के मानसिक कुसंस्कार एक स्थान पर रुककर मानसिक निराशा और आतंक के रूप में सड़ने लगे। उसे हाई ब्लड प्रेशर की बीमारी हो गई। काफी इलाज कराया गया परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में उसे जेम्स चार्ल्स के पास ले जाया गया जो अपनी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के लिए काफी प्रसिद्ध थे। डा. जेम्स ने सहानुभूति पूर्वक लड़के का इलाज किया तथा उससे पिछली सारी बातें उगल वाईं। उसके मन से भय और आतंक के काँटे बिने तब कही जाकर वह पूरी तरह स्वस्थ हो सका।

डा. जेम्स ने अपनी पुस्तक ‘हाउन टू गेट फिजिकल एण्ड मेण्टल हेल्थ’ में लिखा है कि ‘‘अधिकांश बल्कि लगभग सभी रोगों की जड़ शरीर में नहीं मन में होती है। संताप, कष्ट, आकस्मिक विपत्ति, अप्रत्याशित दुर्घटनाओं के कारण तो सैकड़ों लोग असमय में ही दम तोड़ देते हैं, परन्तु कई मनोविकार धीरे-धीरे अपना प्रभाव उत्पन्न करते हैं तथा मनुष्य को रुग्ण बनाते हैं। दीर्घकाल के संताप से रक्त संचार मंद पड़ जाता है, चेहरा पीला, त्वचा शुष्क और आंखें गंदली हो जाती हैं।’’

इसी सिद्धांत की पुष्टि करते हुए डा. अल्स्टन ने कहा है, ‘‘यह शरीर का साधारण नियम है कि आमोद प्रमोद, आशा, प्रेम और स्वास्थ्य एवं सुख की कामना शरीर को सुदृढ़ तथा पुष्ट बनाती है तथा उसे भरपूर स्वास्थ्य प्रदान करती है। वहीं यह भी एक तथ्य है कि भय, उदासीनता, ईर्ष्या, घृणा, निराशा, अविश्वास और अन्य मनोविकार शरीर के क्रिया-व्यापार को भी रुग्ण बनाते हैं।’’

एल्मा ममेरियन का कथन है कि “मनःक्षेत्र में जमा हुआ कोई विचार जब बहुत अधिक क्षुब्धता उत्पन्न करता है तब उसकी प्रतिक्रिया कम ज्यादा रूप में शरीर पर भी प्रकट होती है। कई बार तो यह प्रभाव इतना अधिक होता है कि मृत्यु तक हो जाती है।” मेअल्से का कथन है कि क्षोभ के कारण शारीरिक पोषण में निश्चित रूप से रुकावट या व्यतिक्रम आता है। इसके कारण रक्त-वाहिनी नलियाँ असामान्य रूप से फैलती और सिकुड़ती हैं।

अफ्रीका में रहने वाले व्यक्तियों का स्वास्थ्य परीक्षण करते समय पाया गया है कि सामान्यतः वे स्वस्थ रहते हैं उन्हें कभी कभार ही कोई रोग होता है। देखा गया है कि अफ्रीकी लोग तभी बीमार होते हैं जब या तो वे क्रोधित होते हैं अथवा किसी विपत्ति के कारण भयभीत हो जाते हैं। सर रिचर्डसन ने प्रमेह रोग पर अनुसंधान करते हुए पाया है कि कई बार प्रमेह रोग नहीं होता है, फिर भी उसी जैसी वेदना, पीड़ा और लक्षण उभर आते हैं। परीक्षण करने पर उस स्थिति में यद्यपि प्रमेह के कोई कारण नहीं दिखाई देते किन्तु रोग की पीड़ा वैसी ही होती है। इसका कारण उन्होंने अचानक किसी मानसिक आघात का पहुँचना पाया है।

बहुत अधिक चिन्ता करने या किसी चिन्ता में घुलते रहने के कारण त्वचा संबंधी रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। डा. जार्ज पेगेट के अनुसार फोड़े-फुन्सियाँ रक्त विकार की अपेक्षा चिन्ता और तनाव के कारण ही अधिक होती हैं और रक्त विकार भी प्रायः मानसिक कारणों से ही उत्पन्न होता है। पेगेट ने अपनी पुस्तक “द हैण्ड बुक ऑफ साइकोथैरेपी” में लिखा है बहुत से लोगों को, जो त्वचा संबंधी रोगों से पीड़ित हैं, देखने के बाद और उनका परीक्षण करने पर मुझे विश्वास हो गया है कि इनका प्रमुख कारण बहुत अधिक और लम्बे समय तक चिन्ता करना ही रहा है। इसी पुस्तक में डा. मुर्चिसन के प्रयोगों को उद्धृत करते हुए जार्ज पेगेट ने लिखा है कि फेफड़े संबंधी रोगों का प्रमुख कारण लम्बे समय तक किसी मानसिक आघात को सहते रहना है। इतना ही नहीं पथरी और वक्षस्थल के कैंसर जैसे रोगों का कारण भी दिन-रात चिन्ता से घुलते रहना है।

डा. रिचर्डसन ने लिखा है कि बेमन से लगातार मानसिक श्रम करते रहने के कारण चमड़ी पर खरोंच तथा अन्य त्वचा संबंधी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उनके अनुसार क्रोध, आवेश और उत्तेजना के समय अथवा निराशा और हताशा की मनःस्थिति में शरीर के भीतर विषैले रसायन उत्पन्न हो जाते हैं।

इन शारीरिक रोगों के अतिरिक्त कई बीमारियाँ तो मानसिक ही होती हैं। उन्हें मनोरोग ही कहा जाता है। यद्यपि इन मनोरोगों के लक्षण शरीर पर भी प्रकट होते हैं, परन्तु मुख्यतः इनका प्रत्यक्ष संबंध मन से ही होता है। हताशा रहने तथा अकारण किसी बात को लेकर भयभीत होने की दो बीमारियाँ जिन्हें मनःशास्त्री डिप्रेशन तथा फोबिया कहते हैं। आधुनिक सभ्यता की देन कही जा सकती है। इस तरह के रोगी सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों के प्रतिकूल गाँव की-सी भावना रखते हैं। बात-बात में चिढ़ जाना या उबल उठना तथा इस प्रकार चिड़चिड़ा जाने गरम होने के बाद अचानक रोने लगने के प्रमुख लक्षण इन रोगियों में देखे जा सकते हैं।

इस तरह के रोगियों के लिए मनोविज्ञान चिकित्सा, रिक्रियेशनल अथवा एक्यूप्रेशनल थैरेपी आदि प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। रोगी की मानसिक प्रसन्नता और स्थिरता के लिए उसे किस प्रकार के वातावरण में रखा जाए? कैसे बातचीत की जाए? क्या सुझाव और परामर्श दिये जांय आदि बातों का ध्यान रखा जाता है। इन सबके पूर्व उससे पिछले जीवन की सारी गुप्त और प्रकट बातों को बता देने के लिए कह दिया जाता है। कारण कि अनेकों प्रयोगों और प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध हो गया है कि रोगों की जड़ें मनुष्य के मन में जमे हुए कुसंस्कार ही होते हैं।

रोगी के रोग का सम्पूर्ण उपचार करने के लिए अब चिकित्सा विज्ञानी उसके व्याधि लक्षणों की अपेक्षा उसके स्वभाव, आदतों, कार्यों चिन्ताओं का पर्यवेक्षण करने पर अधिक जोर देने लगे हैं। जहाँ तक छोटी-मोटी भूलों कारण रोग उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है वहाँ निष्कासन प्रयोग अधिक सफल और प्रभावशाली सिद्ध हुआ है, किन्तु अपराध मनोवृत्ति के और उन संस्कारों को जिन्हें रोगी स्वयं नहीं पहचानता उन्हें मनोवैज्ञानिक कैसे ठीक कर सकता है? उसके लिए प्राचीनकाल में भारतीय मनीषियों ने कृच्छ चान्द्रायण जैसे तपश्चर्या प्रधान व्रतों का निर्धारण किया था। मनोवैज्ञानिक भी अब इस विधि की कारगर प्रभावशीलता को एक स्वर से स्वीकार करने लगे हैं। कृच्छ चान्द्रायण में जब शरीर में अन्न ही नहीं पहुँचता तो तात्कालिक बुरे विचार शिथिल पड़ जाते हैं और अंतर्मन में दबे हुए जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार स्वप्नों के रूप में, अनायास विचारों के रूप में निकल कर साफ होने लगते हैं।

इस पद्धति की वैज्ञानिकता का परीक्षण करने से पूर्व प्रचलित मनोचिकित्सा पद्धति सिद्धांततः सही सिद्ध होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से कुसंस्कारों को ओर भी उकसाने वाली तथा मन में नई उत्तेजनाएं भरने वाली सिद्ध हो रही थी। हिस्टीरिया के मामले में विशेषतः ऐसा ही होता है, जिसे भूत-प्रेत का प्रकोप भी कहा जाता है। वह वस्तुतः किसी ऐसे व्यक्ति की मानसिक चेतना होती है जिसके साथ रोगी ने कभी छल किया हो, कपट किया हो, हत्या या ऐसा ही कोई बुरा कृत्य किया हो जिससे शरीर के नष्ट हो जाने पर भी पीड़ित व्यक्ति की चेतना में उससे प्रतिशोध लेने की बात दबी रह जाती है। चेतना का वही संघात, भले ही पीड़ित व्यक्ति जीवित हो अथवा मृतक प्रेत पीड़ा जैसे लक्षण उत्पन्न करता है।

साइकोसोमैटिक रोग प्रत्यक्ष शारीरिक होते हैं, किन्तु उनकी जड़ मानसिक विकारों में हो होती है। मस्तिष्क का विचार संस्थान उस नाड़ी जाल को प्रभावित करता है जो शरीर में गूँथा पड़ा है। अच्छे विचारों के उमड़ने से शरीर में स्वास्थ्यवर्धक और आरोग्यवर्धक रस उत्पन्न होते हैं जो रक्त में मिलकर स्वास्थ्य पोषक तत्व उत्पन्न करते हैं। उसी प्रकार खराब विचार विष उत्पन्न करते हैं अतएव यह बात निर्विवाद सत्य है कि आज की बढ़ती हुई बीमारियों का इलाज औषधियाँ नहीं विचार और चिन्तन प्रक्रिया में संशोधन ही है। दूषित विचार मानसिक परेशानी के रूप में उत्पन्न होते हैं तथा अल्सर, कैंसर, टी.बी. जैसे भयंकर रोगों के रूप में फूट पड़ते हैं। कई बार तो कई जन्मों के संस्कार इस बुरी तरह पीछा करते हैं कि उन्हें समझ पाना ही कठिन होता है। उन सबका एक ही उपचार है कि मनुष्य व्यवहार, आचरण और कर्तव्य में सच्चाई का परित्याग न करे।

स्वस्थ रहने के लिए उच्चस्तरीय स्वार्थ साधन की आवश्यकता और महत्ता को विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। कार्ल रोजर में ‘सेल्फ एक्यु अलाइजेशन नामक ग्रन्थ में लिखा है कि स्वार्थ और परोपकार यों एक-दूसरे के विरोधी सिद्धांत प्रतीत होते हैं, परन्तु व्यवहारतः उनमें कहीं भी कोई विरोध नहीं है। जो दूसरों का जितना हित साधन करता है, औरों की भलाई के लिए अपने स्वार्थ का त्याग करता है वह उतना ही अपने उच्च स्वार्थ की पूर्ति कर लेता है।

रूस के प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री डा. स्तीव शेंकमान ने लिखा है कि सभी प्रकार के कुविचारों से दूर रहना प्रसन्न रहने का सबसे उत्तम उपाय है। उन्होंने ‘निरोग रहने के छः उपाय’ पुस्तक में लिखे हैं कि अधिक से अधिक प्रसन्न रहने का प्रयत्न कीजिए। यदि आपकी परेशानियाँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं और चिन्ताओं का बोझ बेतहाशा बढ़ गया है कि आप उसे और अधिक सह नहीं सकते तो किसी उपयुक्त व्यक्ति के सामने अपनी परेशानियाँ उड़ेलकर उसकी सहानुभूति प्राप्त कीजिए तथा प्रसन्न होने का प्रयास कीजिए। किसी को अपना हमराज भी बनाया जा सकता है और वह हमराज कोई भी हो सकता है, आपकी पत्नी, माता, पिता, दोस्त आदि कोई भी। जिसे आप उपयुक्त समझते हैं उसके सामने अपनी परेशानियाँ जी खोलकर उड़ेल दीजिए ताकि आप स्वस्थ और प्रसन्न रह सकें।

प्रसन्न रहना सब रोगों की एक दवा है और प्रसन्न रहने के लिए आवश्यक है अपना जीवन निष्कलुष बनाया जाए। निष्कलुष, निष्पाप, निर्दोष और पवित्र जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति ही सभी परिस्थितियों में प्रसन्न रह सकता है और यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि मनोविकारों से बचे रहकर, प्रसन्नचित्त मनःस्थिति ही सुदृढ़ स्वास्थ्य का सुदृढ़ आहार है।

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