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Magazine - Year 1981 - Version 2

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धरती की तरह ही आत्म-सत्ता भी सामर्थ्य पुंज

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जिस पृथ्वी में हम जन्मे हैं, पल रहे हैं और मरण के उपरान्त जिसकी धूलि में मिलने वाले हैं उसके संबंध में भी अपनी जानकारी नगण्य जितनी ही होती है। अन्न, जल इस धरती की ही देन है। खनिज और ईंधन जैसी साधन सामग्री जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं पूरी करती हैं। इतने पर भी उसकी गरिमा और विशिष्टता से हम सब अपरिचित जैसे ही बने रहते हैं।

2000 वर्ष से ऊपर हुए इराटस्थनीज नामक एक यूनानी विद्वान् ने सर्वप्रथम पृथ्वी के परिमाण की गणना की थी। उसकी गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि की लम्बाई 3000 मील आँकी गई थी। परन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों ने लगभग सम्पूर्ण पृथ्वी तल को कई बार नाप डाला है। उनके अनुसार पृथ्वी की परिधि की लम्बाई लगभग 25,000 मील (ध्रुवों पर 24,860 तथा विषवत् रेखा पर 24,902 मील) है।

पृथ्वी के दोनों चपटे सिरे ध्रुव कहलाते हैं। ऊपर का सिरा उत्तरी ध्रुव तथा नीचे का सिरा दक्षिणी ध्रुव है। ध्रुवों के बीच पृथ्वी के व्यास की लम्बाई 7,899 मील है। मध्य में उसकी लपेट पर पूर्व पश्चिम का व्यास 7,926 मील के लगभग है। सम्पूर्ण धरातल का क्षेत्रफल 19,70,00000 वर्ग मील है। धरती का दो तिहाई भाग जल मग्न रहता है और शेष स्थल भाग है।

पृथ्वी के आकार और आधार के संबंध में विविध प्रकार के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कुछ का मत है कि यह खोखली है तो कुछ इसे बिल्कुल ठोस मानते हैं।

मार्शल गार्डनर नामक एक प्रसिद्ध भू-विज्ञानवेत्ता के मतानुसार पृथ्वी खोखली है। इसकी ऊपरी परत (छिलका) 800 मील मोटा है। इसके भीतर भी एक सूर्य विद्यमान है जो उसे गर्मी देता रहा है। रसायनविद् अरीनिउस के अनुसार धरती धातु का बना हुआ एक बड़ा भारी गोला है। इस गोले के गर्भ में तीव्र आँच से उत्तप्त पदार्थ वायव्य रूप में भरा पड़ा है। उनकी कल्पना ज्वालामुखी पर्वतों के विस्फोट पर आधारित है। उनका कहना है कि गुरुत्वाकर्षण से खिंचकर सोना, चाँदी, प्लेटिनम आदि धातुएं पृथ्वी के अत्यन्त गहरे भागों में जमा हो गयी हैं। फारसी सभ्यता वालों की मान्यता है कि कारूं अपने खजाने के साथ धरती में धंस गया था और आज भी धंसता जा रहा है। वह कारूं का खजाना सम्भवतः यही है। इस अतुल धनराशि के चतुर्दिक वायव्य रूप में लोहे की बहुत बड़ी पर्त है। पृथ्वी का लगभग आधा पिण्ड लोहे का है। वायव्य लोहे के इस अग्नि-मण्डल का व्यास 6000 मील के लगभग है। इसके 600 मील ऊपर तक चट्टानों का वायव्य स्तर है। इसके 160 मील ऊपर तक धधकती आँच से तपे हुए सफेद पिघले पत्थर की पर्त है। इन सबसे ऊपर लगभग 100 मील मोटी वह पर्त है जिस पर हम जी रहे हैं। आधुनिक वैज्ञानिक भी अरीनिउस के इस सिद्धांत को अपने मत का आधार मानते हैं।

सम्पत्ति धरती का उत्पादन है। लक्ष्मी इसी को कहते हैं। वह धरती की बेटी है। अब तक उसमें जो खोदा उगाया गया उसी को मिल बाँटकर संपदा की तरह उपयोग करते और उन सुविधा साधनों के बल पर मोद मनाते हैं। हर वर्ष उसका उत्पादन उतना अधिक है कि न केवल मनुष्यों का वरन् अन्य समस्त प्राणियों का गुजारा भी इसी के बलबूते चलता है। प्रकारान्तर से प्राणियों के शरीर भी धरती के ही रासायनिक पदार्थों से बने हैं। मिट्टी से वनस्पति उगती है उसी के विभिन्न स्वरूप शाकाहारी एवं माँसाहारियों को निर्वाह सामग्री प्रदान करते हैं। खनिज, वृक्ष, वनस्पति, प्राणिज पदार्थ जल आदि का वार्षिक उत्पादन कितना है। धरती अपने पुत्रों को कितनी सम्पदा प्रदान करती है इसका लेखा-जोखा रखना कठिन है। मनुष्य की जानकारी में विश्व की जो सम्पदा है उससे भी अधिक वह है जो पर्वतों, वनों, जलाशयों तथा अविज्ञात भू-प्रदेशों में बिखरी पड़ी है।

यह ज्ञात वैभव की बात हुई। धरती के भीतर जो खनिज भरे पड़े हैं उस अविज्ञात का विस्तार सहस्रों गुना अधिक है।

इतनी सम्पत्ति की स्वामिनी धरती पर निवास करते हुए भी-उसके पुत्र कहलाते हुए भी-अपनी माता के वैभव से लाभान्वित नहीं हो पाते। इतना ही नहीं उसकी जानकारी तक नहीं है। मात्र उस पर चलने-फिरने जितनी उपयोगिता ही ध्यान में रहती है। गहराई तक सोचना सम्भव हुआ होता तो प्रतीत होता है कि अपने ही पैरों के तले तथा इर्द-गिर्द कितना वैभव बिखरा पड़ा है।

चर्चा इसलिए की जाती है कि धरती के समान्तर ही हमारी काय सत्ता भी है। धरती जड़ है और काया चेतना। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की गरिमा कितनी अधिक होती है यह सभी जानते हैं। मानवी काय-सत्ता में सन्निहित सम्पदा चेतन स्तर की होने के कारण उसका मूल्य एवं महत्व और भी अधिक है। इसे यदि ठीक प्रकार जाना जा सके और उसे खोदने उगाने का प्रबंध बन पड़े तो समझना चाहिए कि हर मनुष्य की अपनी निजी सत्ता धरती से अधिक मूल्य की सिद्ध हो सकती है। धरातल के वैभव से अपरिचित एवं असंबद्ध लोग जिस प्रकार दुःखी, दरिद्र पाये जाते हैं उसी प्रकार जीवन के वैभव का स्वरूप एवं उपयोग न जानने के कारण भी हममें से अधिकाँश को दीन-दयनीय स्थिति में पड़े रहना पड़ता है।

धरातल पर पृथ्वी के केन्द्र से हम 4000 मील की ऊंचाई पर हैं। यदि किसी तरह हम आसमान में 4000 मील की ऊंचाई तक पहुँच जांय, तो पहले की अपेक्षा पृथ्वी के केन्द्र से हमारी दूरी दुगुनी हो जायेगी। अतः हमारा वजन भी पहले से चार गुना कम हो जायेगा। यदि जमीन पर हमारा वजन 1 मन 20 सेर है, तो 4000 मील ऊपर आकाश में हमारा वजन 25 सेर ही होगा। क्योंकि पृथ्वी से दूर हटने पर उसकी आकर्षण शक्ति कम होती जाती है। गुरुत्वाकर्षण इसी के वर्ग के अनुपात में घटता है।

नर पशुओं जैसे हेय स्तर का जीवनक्रम अस्वीकृत करके यदि उत्कृष्ट दृष्टिकोण एवं आदर्श व्यवहार अपनाया जा सके तो उस ऊंचाई पर पहुँचने के बाद मनुष्य अपने आपको नितान्त हलका-फुलका प्रसन्न उल्लासित अनुभव कर सकता है। बंधन मुक्ति एवं प्रचण्ड शक्ति इसी स्तर पर पहुंचने पर उपलब्ध होती है।

पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का मुद्दतों तक तो किसी को पता ही न चला। न्यूटन ने सर्वप्रथम उसके अस्तित्व की बात सोची और जाँच परख करने के बाद लोगों को बताया। उस समय तक किसी को अनुमान भी न था कि हमारे इर्द-गिर्द इस रूप में सामर्थ्य का प्रचण्ड भण्डार भरा पड़ा है और उससे हम अनजाने ही अत्यधिक प्रभावित होते हैं।

धरती का गुरुत्वाकर्षण सौर मण्डल से लेकर ब्रह्माण्ड तक को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है और आदान-प्रदान के अनेकानेक आधार खड़े करता है। उदाहरण के लिए धरती उपग्रह अपना चन्द्रमा इसी आकर्षण शक्ति से अधर में टंगा और अनवरत परिभ्रमण करता है।

नारंगी की तरह पृथ्वी ध्रुवों पर चिपटी है। अतः विषुवत् रेखा पर स्थित स्थान ध्रुवों की अपेक्षा उसके केन्द्र से अधिक दूर है। अतएव पृथ्वी की आकर्षण शक्ति ध्रुवों पर ज्यादा और विषुवत् रेखा पर कम होती है। इसके अलावा पृथ्वी की काल्पनिक धुरी भी ध्रुवों से होकर गुजरती है। अतः विषुवत् रेखा पर के स्थान ध्रुवों की अपेक्षा अधिक तीव्रता से घूमते हैं और यहाँ आकर्षण शक्ति कम हो जाती है। विषुवत् रेखा की परिधि लगभग 25000 मील है। अतः 24 घण्टे में विषुवत् रेखा पर स्थित स्थानों को लगभग 25000 मील का रास्ता तय करना पड़ता है जबकि ध्रुव के निकट के स्थानों की कम ही दूरी तय करनी पड़ती है। विषुवत् रेखा पर के स्थानों की गति लगभग 1000 मील प्रति घण्टा है। अतः विषुवत् रेखा के समीप के पदार्थों में ध्रुवों की अपेक्षा बाहर की ओर खिंचाव (सेन्ट्रीफूगल फोर्स) अधिक पैदा होता है। इस कारण भी इन पदार्थों पर काम करने वाली पृथ्वी की आकर्षण शक्ति कम पड़ जाती है।

पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा 2,287 मील प्रति घण्टे की दर से परिक्रमा कर रहा है। गणितज्ञों ने हिसाब लगाया है कि यदि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति संयोगवश गुप्त हो जाए तो पूर्ववत् चन्द्रमा से पृथ्वी की परिक्रमा कराने के लिए चन्द्रमा को पृथ्वी से 370 मील चौड़े लोहे के डण्डे द्वारा बाँधना होगा।

यह आकर्षण शक्ति मात्र पृथ्वी और चन्द्रमा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि सभी आकाशीय पिंडों व पदार्थों की वह शक्ति मौजूद है। इस सर्वव्यापी आकर्षण शक्ति की गुरुत्वाकर्षण कहते हैं।

मोटे तौर से इतना समझा जाता है कि भारी चीजों को ऊपर से नीचे घसीट लेने की क्षमता का नाम ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। पर बात उतनी छोटी है नहीं। धरती का ‘मैग्नेट’ इस प्रचण्ड सामर्थ्य से इतना सुसम्पन्न है कि उस पर करोड़ों बिजली घर निछावर किये जा सकते हैं। इस सामर्थ्य का मनुष्य की इच्छानुसार यदि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग हो सके तो समझना चाहिए कि दरिद्रता एवं अशक्तता से इस धरती के निवासी को कष्ट सहन न करना पड़ेगा।

सुविख्यात विज्ञान लेखक- ‘‘आर्थर क्लार्क” ने भविष्य कथन किया है कि सन् 2050 तक मनुष्य गुरुत्वाकर्षण-शक्ति पर विजय प्राप्त कर लेगा, तब वह प्रकाश की गति से ब्रह्माण्ड में अन्तर्ग्रही यात्राएं कर सकेगा।

अमेरिका में सौर-ऊर्जा के ऊपर अनुसन्धान बहुत जोरों से चल रहे हैं, पर वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊर्जा बटोरने वाली सौर-ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा उत्पादन पद्धति से ऊर्जा संकट के समाधान का विशेष हल नहीं मिल पायेगा। कुछ वैज्ञानिक लोगों का ध्यान गुरुत्वाकर्षण की ब्रह्माण्ड-व्यापी शक्ति का उपयोग करने की ओर गया है उनका कहना है कि जैसे चुम्बक में आकर्षण एवं प्रतिकर्षण दोनों ही प्रकार की शक्ति होती हैं, वैसा ही पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के संबंध में भी होना चाहिये। चन्द्रमा का वजन 73 करोड़ 40 लाख खरब टन है, यदि इसकी घूर्णन शक्ति का 1 करोड़वां भाग भी किसी तरीके से मिल सके तो संसार की 1 वर्ष की ऊर्जा की समस्या हल हो जायेगी। वास्तव में जिस शक्ति के बल पर ब्रह्माण्ड टिका हुआ है, यदि उन गुरुत्वाकर्षण शक्ति के उपयोग का रहस्य ज्ञात हो सके तब तो मनुष्य के लिए विस्मयकारी उपलब्धि होगी।

यह प्रतिपादन भौतिकी के वैज्ञानिकों का है। आत्मिकी के विज्ञानी यह कहते हैं कि व्यक्ति में प्रतिभासित ब्रह्म सत्ता के गुरुता गरिमा का आभास अनुभव किया जा सके और उसे आत्मसात् करने की साधना की जा सके तो तुच्छ-सा दिखने वाला मनुष्य असीम सामर्थ्य का भाण्डागार बन सकता है।

पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण अद्भुत है साथ ही काया की रहस्यमयी चेतन क्षमता भी उतनी ही विचित्र है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की तनिक-सी झाँकी हमें अपने सूर्य केन्द्र में सौर मण्डल में परिलक्षित होती है। उसका समग्र स्वरूप तो कल्पनातीत है, ब्रह्म चेतना का वैभव और भी अधिक है। उसके सहारे समस्त ब्रह्माण्ड गतिशील है। उस सत्ता के साथ आदान-प्रदान का द्वार खोलने वाले आत्मविज्ञान के धनी जब ब्रह्म संबंध स्थापित करने में सफल होते हैं तो उनकी तद्रूप स्थिति में कल्पनातीत सामर्थ्य से भरी पूरी दिखाई पड़ती है। ईंधन और आग के संयोग से दोनों की एकाग्रता प्रत्यक्ष है। आत्मा की साधनात्मक घनिष्टता अपनाकर परमात्मा बनती और वैसी ही अभिप्रेत होती है।

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