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Magazine - Year 1981 - Version 2

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वैभव ही सब कुछ नहीं पराक्रम भी चाहिये

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बड़प्पन, वैभव एवं सुविधा साधनों को सौभाग्य का चिह्न माना जाता है। साथ ही सादगी एवं सज्जनता को भी सराहा जाता है। ये मान्यताएं अपने स्थान पर पूर्णतया सही एवं स्वीकारने योग्य हैं। इतने पर भी एक और भी तथ्य जानने मानने योग्य शेष रह जाता है कि प्रतिकूलता का हर किसी को पग-पग पर सामना करना पड़ता है। उससे निपटने के लिए आवश्यक कौशल, साहस एवं साधन जुटाने की भी आवश्यकता है। उसके बिना आक्रमणकारी शक्तियों की सत्ता हर किसी को चुनौती देंगी और जो संघर्ष कर सकने की क्षमता सिद्ध न कर सकेगा उसे मरोड़कर रख देगी।

सज्जनता का महत्व और मूल्य घटाए बिना हर किसी को यह समझकर चलना होगा कि जीवन निरापद नहीं है। उसकी संरचना ऐसी नहीं है जिसे चैन की वंशी बजाते हुए बिताया जा सकेगा। उसमें अगणित प्रतिकूलताओं का जमघट भी जुड़ा हुआ है। यह इसलिए है कि पराक्रम, कौशल, चातुर्य एवं प्रतिरोध की आवश्यक क्षमता में घटोत्तरी न होने पाये। इनकी उपयोगिता भी सज्जनता एवं सम्पन्नता से किसी प्रकार कम नहीं है। प्रतियोगिता जीतने वाले पुरस्कृत होते हैं और जो हारते हैं उन्हें घाटे में रहना पड़ता है। इस सृष्टि नियम में कठोरता, क्रूरता भले ही हो पर अधिक उपयुक्त का चुनाव करने वाली वरिष्ठता भी तो इसी आधार पर निभ सकती है।

इस कटु सत्य का एक उदाहरण है प्राणि जगत के आरम्भिक उत्पत्ति वाले दिनों में विशालकाय सरीसृपों, महागजों और दूसरे प्राणियों का अस्तित्व समाप्त हो जाना। वे थे तो विशालकाय साथ ही निर्वाह सुविधा की दृष्टि से सौभाग्यशाली भी। उन्हें खाद्य पदार्थों की कमी न थी। फिर भी प्रतिद्वन्द्वी आक्रान्ताओं से जूझने का पराक्रम उत्पन्न न कर सकने के कारण वे अपना अस्तित्व बनाए न रह सके और जीवन संघर्ष में हार जाने के कारण समर्थ होते हुए भी असमर्थों की तरह इस धरती से तिरोहित हो गए।

यदि 70 करोड़ वर्ष पहले इस दुनिया में विचरण करने वाले भीमकाय डायनासौर का वंशानुक्रम इस समय इस पृथ्वी पर रहता तो मनुष्य नामधारी प्राणी कहाँ मारे-सारे फिरते? यह कल्पना करना भी कठिन है। इस पृथ्वी पर 10 करोड़ वर्ष से अधिक समय तक डाइनासौरों का आधिपत्य जमाए रहना और उनका फिर विलुप्त हो जाना भले ही किसी भी नियम के अंतर्गत सही क्यों न हो, आम आदमी की तो समझ में नहीं आता।

यह निश्चित रूप से पता नहीं है कि सर्वप्रथम किसी डाइनासौर की ठठरी प्राप्त हुईं। वैज्ञानिकों के मतानुसार सबसे पहले सन् 1818 में, कनैक्टीकट घाटी में एनकीसौर की हड्डियाँ पाई गईं। पहले इन हड्डियों का विवरण, उन्हें मानव जाति से संबंधित मानकर ‘अमेरिकन जनरल ऑफ साइंस’ में सन् 1820 में प्रकाशित किया गया। इस एनकीसौर का कंकाल येल विश्व विश्वविद्यालय के पी बॉडी अजायबघर में है।

क्रिटेशस युग में शाकाहारी होते हुए भी डाइनासौर इतने विशालकाय हो गए कि हम तो केवल उनके आकार की कल्पना ही कर सकते हैं। ब्रोटोसॉरस डाइनासौर ने इस युग के डाइनासौरों का प्रतिनिधित्व किया। देखने में यह ब्रोटोसॉरस विशालकाय पर्वत जैसा प्रतीत होता था। उसके स्थूल शरीर की तुलना में आज का हाथी का आकार, खरगोश के आकार जैसा प्रतीत होता है। इसके शरीर की लम्बाई 70 से 75 फुट तक और वजन 40 टन से कही अधिक होता था। यह भीमकाय प्राणी स्वभाव से सीधा-सादा तथा अपना अधिकांश समय वनस्पति आदि चरने में लगाता था। इसके छोटे-छोटे नोंकदार दाँत होते थे। यह केवल छोटी-मोटी हरी वनस्पति से अपना पेट भरता था। कल्पना कीजिए यदि वह आज के जमाने में होता तो आवश्यक ही भूखा मर जाता। पृथ्वी पर विचरण करने वाले वनस्पति जीवी प्राणियों में यही सबसे विशालतम तथा अहिंसक और नेक प्राणी रहा है।

दूसरे प्रकार के माँसाहारी डाइनासौरों में टाइरेनोसॉरस नामक प्रमुख है। इस विशालकाय प्राणी का जन्म प्रकृति के इतिहास में घोर हिंसक और महाविनाशकारी जन्तु के रूप में माना जाता है। यह 40 टन वजनी शाकाहारी डाइनासौर जैसे विशालकाय प्राणी को भी मारकर खाने में सक्षम था। यह तो अब केवल कल्पना का ही विषय हो सकता है कि इतने भीमकाय प्राणी को पकड़ने के लिए और मारने के लिए कितनी अतुल शक्ति की आवश्यकता होगी? ऐसी अद्भुत शक्ति थी टाइरेनोसॉरस में कि आधुनिक रेल का शक्तिशाली इंजन भी इसे ढकेल और ढो पाने में कदाचित टें बोल जाता। इसका मुख्य भोजन ब्रोटोसॉरस तथा इसके संबंधियों का भक्षण ही था। इसके शरीर की लम्बाई लगभग 50 फुट और ऊंचाई 24 फुट थी। बीसवीं शताब्दी का सबसे लम्बा पुरुष भी इसके घुटनों के नीचे ही मुश्किल से पहुँच सकता था। इसके अगले पैर बहुत ही छोटे, परन्तु पिछले पैर तो अत्यधिक दानवी और शक्तिशाली थे। इसका सिर बहुत बड़ा, मुखड़ा पिचका हुआ और इसके पिचके हुए मुँह में ऊपर नीचे दंत पत्तियों में छः इंच लम्बे पैने चाकू जैसे भयानक दाँत लगे थे। यह अपने पिछले पैरों पर खड़ा होकर चलता था और इसकी दुम पीछे की ओर घिसटती रहती थी। इनका मनपसंद भोजन ‘ट्राइसेरेटोप्स’ था जो स्वयं ही 20 फुट लम्बा और 8-10 फुट ऊँचा होता था। ट्राइसेरेटोप्स के आगे की ओर गैंडे की तरफ तीन सींग होते थे जो कदाचित् ‘टाइरेनोसॉरस ‘जैसे विशालकाय जन्तु से लड़ने और स्वयं की रक्षा के लिए शायद प्रकृति ने दयापूर्वक इसके मस्तक पर जड़ दिये थे। इसकी गर्दन के ऊपर गैंडे के जिस्म पर लटकती एक मोटे चमड़े जैसी लम्बी झालर थी जो शायद ढाल का काम करती थी। इस झालर वाली ढाल की थपकी मात्र से आजकल के सबलतम घोड़े का तो कचूमर निश्चय ही निकल जाता। इतनी दानवी शक्ति का था यह। किसी भाले या तीक्ष्ण हथियार का तो कहना ही क्या, आजकल की ‘थ्री नाट थ्री’ भी इसका बाल-बाँका नहीं कर सकती थी। इसकी चाल इतनी तेज, भद्दी और बेडौल थी कि इसकी लम्बी-लम्बी टांगों का एक डग ही लगभग 100 गज दूरी तय कर लेता था। प्रकृति ने शायद इसे सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर रखा था। किन्तु इस बेचारे की टाइरेनोसॉरस के आगे एक न चली। घोर हिंसक और महाविनाशकारी टाइरेनोसॉरस की तरह ये भूखे तथा रक्त पिपासु जन्तु भी एकदम झपटकर जीवों का संहार किया करते थे।

जुरासिक युग में स्टीगोसॉरस नामक डाइनासौर प्रमुख था। इसके शरीर की लम्बाई लगभग 30 फुट और वजन 10 टन के लगभग था, लेकिन कहा जाता है, इसके दिमाग का भार केवल 70 ग्राम (ढाई औंस) था। इसका सिर बहुत छोटा था और इसके स्थूलकाय शरीर पर समानान्तर पंक्तियों में हड्डीदार झालर लगी होती थी, जो कदाचित् टाइरेनोसॉरस नामक भीमकाय व विनाशकारी प्राणी से रक्षार्थ प्रकृति ने इसे प्रदान की थी। जुरासिक युग के आगे स्टीगोसॉरस के जीवित होने के प्रमाण नहीं मिलते।

इतने समर्थ और सुविधा सम्पन्न प्राणी का अपने अस्तित्व से हाथ धो बैठना हर विचारशील के लिए एक चेतावनी है। उसे सम्पदा मात्र एवं सौभाग्य मानकर संतुष्ट नहीं ही बैठना चाहिए। जागरूकता और प्रतिरोध की क्षमता को भी इतना विकसित करना चाहिए ताकि आक्रान्ताओं और प्रतिद्वन्द्वियों से आत्म-रक्षा कर सकना संभव हो सके। इस दिशा में पिछड़ जाने से मात्र डाइनासौर ही नष्ट नहीं हुए अपितु, उसी स्तर के अन्य विशालकाय महागज और सरीसृप भी अतीत की स्मृति मात्र बनकर रह गए। असावधानी बरतने वाले अन्यान्यों को भी ऐसी ही कठिनाई का सामना करना पड़ता है। प्रस्तुत उदाहरणों से इस तथ्य को अधिक अच्छी तरह समझा और समझाया जा सकता है।

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