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Magazine - Year 1981 - Version 2

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सातों लोक अपने ही इर्द-गिर्द

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शास्त्रों में सप्त लोक, सप्त ऋषि, सप्त देवियाँ, सप्त नगरी, सप्त रंग, सूर्य की सप्त किरणें, सप्त घोड़ों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। उपरोक्त सात समूह वस्तुतः चेतना की सात परतें सात आयाम हैं जिनका अलंकारिक वर्णन इन रूपों में किया गया है। उनकी चमत्कारी सामर्थ्य की गाथाओं से सारा पुराण इतिहास भरा पड़ा है। जो जितनी परतों को जान लेता, उन पर अधिकार कर लेता है, वह उसी अनुपात में शक्ति सम्पन्न बन जाता है। समस्त जड़-चेतन इन्हीं सात आयामों के भीतर गतिशील हैं। दृश्य-अदृश्य समस्त सत्ताओं का अस्तित्व इन सात आयामों के भीतर है। पदार्थ एवं चेतना का दृश्य एवं अदृश्य स्वरूप इन आयामों के ऊपर निर्भर रहता है।

ब्रह्म विद्या में सात आयामों की चर्चा अक्सर की जाती है। यही सात लोक गायत्री मंत्र के साथ प्राणायाम करते समय सात व्याहृतियों का उच्चारण किया जाता है। भूः, भुवः, स्वः, तपः, जन, महः, सत्यम्। ये सात व्याहृतियां सात लोकों की परिचायक हैं। इनकी चर्चा इस संदर्भ में होती है कि प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए ही हमें अगले आयामों में पदार्पण करना चाहिए। तीन लोक भौतिक हैं- भूः, भुवः, एवं स्वः। इन्हें धरती, पाताल और आकाश भी कहते हैं। भौतिकी इसी सीमा में अपनी हलचलें जारी रखती हैं। अगले चार लोक सूक्ष्म हैं। चौथा भौतिकी और आत्मिक का मध्यवर्ती क्षेत्र है। पांचवां, छठा, सातवाँ लोक विशुद्ध चेतनात्मक हैं। इन्हें पदार्थ सत्ता से ऊपर माना गया है। इसे और भी अच्छी प्रकार समझना हो तो भूः, भुवः, स्वः को सामान्य जगत, तपः को चमत्कारिक सूक्ष्म जगत एवं जनः, महः, सत्यम् को देवलोक कह सकते हैं। मनुष्य सामान्य जगत में रहते हैं, सिद्ध पुरुषों का कार्यक्षेत्र सूक्ष्म जगत है। देवता उस देवलोक में रहते हैं जिनकी संरचना जनः महः सत्यम् तत्वों के आधार पर हुई है।

समझा जाता है कि सातों लोक ग्रह नक्षत्रों की तरफ वस्तु विशेष हैं और उनका स्थान कहाँ सुनिश्चित है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। ये लोक अपने ही जगत की गहरी परत हैं। उनमें क्रमशः प्रवेश करते चलने पर चक्रव्यूह को बेधन करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। इस प्रगति क्रम में सशक्तता बढ़ती चलती है और अंतिम चरण पर पहुँचा हुआ मनुष्य सर्व समर्थ बन जाता है। इसी को आत्मा की परमात्मा में परिणति कह सकते हैं। यह सात लोक ही सात ऋषि हैं। इन्हीं में पहुँचे हुए देवात्मा एक से एक बढ़-चढ़कर उच्चस्तरीय सिद्धियां प्राप्त कराते हैं।

सामान्यतया तीन आयाम तक ही हमारा बोध क्षेत्र है। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई अथवा गहराई के अंतर्गत समस्त पदार्थ सत्ता का अस्तित्व है। इन्द्रियों की बनावट भी कुछ ऐसी है कि वह मात्र तीन आयामों का अनुभव कर पाती है- लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई (या गहराई)। जो भी पदार्थ स्थूल नेत्रों को दृष्टिगोचर होते हैं, उनके यही तीन परिमाण हैं। चतुर्थ आयाम की ऊहापोह वैज्ञानिक क्षेत्रों में चल रही है, काल, दिक् के रूप में पाश्चात्य दार्शनिकों एवं पृर्वात्त दर्शन के मनीषियों द्वारा वर्णित यह आयाम अनेक रहस्य अपने अंदर छिपाये आइन्स्टीन से लेकर नार्लीकट व अब्दुस्सलाम तक कई वैज्ञानिकों को शोध हेतु आकर्षित करता रहा है। दार्शनिक मान्यताओं के अनुसार चतुर्थ आयाम में पहुँचने पर हमारी पूर्व स्थापित धारणाओं एवं जानकारियों में आमूल-चूल परिवर्तन होने की पूरी-पूरी सम्भावना है। संभव है कि जो दूरी हमें दो-चार हजार मील की मालूम पड़ती है कि चतुर्दिक जगत में पहुँचने पर कुछ गज रह जाय। चौथे आयाम में पहुँचकर प्राणी के कुछ पल में अमेरिका व ब्रिटेन पहुँचकर भारत वापस लौट आने की पूरी-पूरी सम्भावना है भारतीय ऋषियों, योगियों के विषय में ऐसे अनेकों प्रामाणिक प्रसंग समय-समय पर सामने आते रहे हैं। उनका अदृश्य हो जाना, कुछ पलों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाना सम्भवतः चतुर्थ आयाम में पहुँचकर ही सम्भव हो सका होगा। जिस चतुर्थ आयाम की बात अभी कल्पना वैज्ञानिक जगत में की जा रही है। उसकी जानकारी हमारे ऋषियों को पूर्वकाल से है।

चतुर्थ आयाम का बोध होते ही हमारे सामने ज्ञान का एक अनन्त क्षेत्र खुल सकता है। तब यह संसार भिन्न रूप में दिखायी पड़ने लगता है। उन मान्यताओं को जिन्हें हम सत्य यथार्थ मानते हैं सम्भव है भ्रान्ति मात्र लगने लगें। आइन्स्टीन की कल्पना के अनुसार काल को भूत, वर्तमान, भविष्य की सीमाओं से नहीं बाँधा जा सकता। ‘हाइजन वर्ग’ जैसे वैज्ञानिक ने सिद्ध किया कि ‘काल’ भूत से वर्तमान एवं भविष्य की ओर ही नहीं भविष्य से भूतकाल की ओर भी चलता है।

जब अतीत की ओर लौटना असंभव हो जायेगा तो हमारी मान्यताएं अस्त-व्यस्त हो जायेंगी। तब रामकृष्ण, बुद्ध, विवेकानन्द, गाँधी को उसी प्रकार देखा जा सकेगा जैसे सामने जीवित खड़े हों। जीवन, मरण की मान्यताएं तब उलट जायेंगी। पांचवां, छठा एवं सातवाँ आयाम पदार्थ सत्ता से परे है। ये आयाम विशुद्धतः चेतना से संबंधित है। भौतिकी की पकड़ यहाँ तक नहीं है। भौतिक यंत्रों एवं इन्द्रियों की सीमा से बाहर है।

पांचवां आयाम, विचार जगत से संबंधित है। विचारों की महत्ता एवं उनकी चमत्कारी शक्ति से हर कोई परिचित है। मनुष्य जैसा भी है विचारों की प्रतिक्रिया मात्र है। शारीरिक हलचलें उनकी प्रेरणा से ही होती हैं। विचारों के माध्यम से वस्तुओं के स्वरूप की कल्पना की जाती है। विचार जगत में उठने वाली तरंगें वातावरण एवं मनुष्यों को प्रभावित करती हैं तथा अपने अनुरूप लोगों को चलने के लिए बाध्य करती हैं। महामानव ऋषि, महर्षि, अवतार अपने सशक्त विचारों का संप्रेषण, सूक्ष्म अंतरिक्ष में करते रहते हैं। इस आधार पर वे असंख्य मनुष्यों की मनःस्थिति एवं परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं। जन-प्रवाह उन विचारों के अनुकूल चलने के लिए विवश होता है। पंचम आयाम की रहस्यमय शक्ति को जानने एवं उसको करतलगत कर सदुपयोग करने से ही बड़ी-बड़ी आध्यात्मिक क्रान्तियाँ संभव हो सकी हैं। कन्दरा में बैठे ऋषि एक स्थान पर बैठकर अपने विचारों को पंचम आयाम में प्रफुलित करते रहते हैं तथा अभीष्ट परिवर्तन कर सकने में समर्थ होते हैं।

छठा आयाम भावना जगत है। कहते हैं कि इस लोक में मात्र देवता निवास करते हैं। इस अलंकारिक वर्णन में एक तथ्य छिपा है कि भावों में ही देवता निवास करते हैं अर्थात् भाव सम्पन्न व्यक्ति देव तुल्य हैं। भावना की शक्ति असीम है। इसके आधार पर पत्थर में भगवान पैदा हो जाते हैं। व्यक्तित्व का समूचा कलेवर अंतरंग की आस्था से ही विनिर्मित होता है। विचारणा तथा क्रिया-कलाप तो आँतरिक मान्यताओं से ही अभिप्रेरित होते हैं। इसे ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीवन चेतना को जोड़ने और उससे लाभ उठाने का सशक्त माध्यम कहा जा सकता है। आत्मा का परमात्मा से मिलन कितना आनंददायक होता है- इसके अनुमान भौतिक मनःस्थिति द्वारा लगा सकना संभव नहीं है। तत्वज्ञानी उसी आनन्द की मस्ती में डूबे रहते हैं तथा जन-मानस को उसे प्राप्त करते की प्रेरणा देते रहते हैं।

तुलसीदास जड़-चेतन सबमें परमात्म सत्ता का अनुभव करते हुए लिखते हैं- ‘सियाराम मय सब जग जारी’। “ईशावास्य मिदं सर्वं यित्किंचित जगत्याम जगत”। इशावाशोउपनिषद् तथा रामायण के इस उदाहरण से अद्वैत स्थिति का वर्णन किया गया है। सप्तम आयाम की यही स्थिति है। इसमें पहुंचने पर जड़-चेतन में विभेद नहीं दिखता। सर्वत्र एक ही सत्ता दृष्टिगोचर होती है। शिव शक्ति का, ब्रह्म-प्रकृति का, जड़-चेतन का, जीव-ब्रह्म की एकरूपता सातवें आयाम में दिखायी पड़ने लगती है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। इसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। सातवें आयाम का ही वर्णन सप्तम लोक के रूप में किया गया है।

सप्त लोक, सप्त आयाम, चेतना की सात परतें एक के भीतर एक छिपी हुई है। इनमें विभेद स्वरूप मात्र है। जिस प्रकार पोले स्थान में हवा भरी रहती है। हवा में आक्सीजन तथा आक्सीजन में प्राण- सभी एक के भीतर एक परतें हैं, उसी प्रकार चेतना की सात परतें एक के भीतर एक विद्यमान हैं। प्याज के भीतर रस तथा रस के भीतर गंध एवं स्वाद होता है। स्थूल प्याज की अपेक्षा सूक्ष्म रस में प्याज की सारी विशेषता छिपी रहती है। एक वस्तु के भीतर कई परतें भरी रहती हैं। मनुष्य के भीतर हृदय है। हृदय में नसें तथा नसों में रक्त का प्रवाह चलता रहता है। रक्त, रक्तकणों से मिलकर बना है, रक्त के रक्तकण अनेकानेक कोशिकाओं तक पहुँचकर उन्हें ओषजन के रूप में प्राण देते हैं। कोशिकायें अरबों की संख्या में हैं, जिनमें स्वयं के अपने-अपने नाभिक हैं। इसमें डी. एन. ए. रहता है जो जीवन का मूल आधार है।

इसी प्रकार एक लोक के भीतर सात लोक, सात आयाम विद्यमान हैं। तीन आयामों से युक्त पदार्थ जगत की विशेषताओं से सभी परिचित हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थ से चेतना की शक्ति अनेक गुना अधिक है। आइन्स्टीन के चतुर्थ आयाम की कल्पना मात्र से वैज्ञानिकों के हाथ में एक बहुत बड़ी शक्ति मिलने की आशा बन चली है। लेजर किरणों से ‘होलोग्राफी’ के आधार पर त्रिमितीय सिनेमाओं का निर्माण कई देशों में हो चुका है। जहाँ पर्दे पर मनुष्य, मोटर, गाड़ी, शेर, हाथी, यथार्थवत् चलते दिखायी देते हैं। अनभ्यस्त व्यक्तियों को प्रायः यथार्थ होने का भ्रम हो जाता है। त्रिआयामिक चित्रों की यह विशेषता है। इसके पश्चात् चतुर्थ पंचम, षष्टम, सप्तम आयाम कितना विलक्षण एवं शक्ति सम्पन्न हो सकता है, इसकी आज तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

भौतिकी की पहुँच जहाँ तक है, वहीं तक की उपलब्धियाँ आदमी को चमत्कृत कर देती हैं। मानवी बुद्धि की विलक्षणता और उसकी अन्वेषण क्षमता को इसका श्रेय दिया जाता है। परन्तु वास्तविकता यहीं तक सीमित नहीं है। जब योग साधना रूपी अध्यात्म उपचारों का आश्रय लिया जाता है, शास्त्रों में वर्णित वैज्ञानिक पद्धति से अपने जीवन को परिष्कृत समुन्नत बनाकर प्रतीति या प्रपंच जगत से ऊपर पहुँचने की स्थिति बनायी जाती है, तो जिस लीला जगत का दर्शन होता है, उसकी शब्दों में अभिव्यक्ति संभव नहीं। यह सब अपने ही अंदर है, इस वास्तविकता को भूलकर व्यक्ति सामान्यतया अपने को त्रिआयामीय जगत एवं इन्द्रिय सम्वेदनों तक ही स्वयं को सीमित कर लेता है। वस्तुस्थिति तक पहुँचे बिना ही सन्तुष्टि सामान्य जीवन क्रम वालों के लिए है। देवपुरुष महामानव इससे ऊँचा उठते हैं व स्वयं तो धन्य बनते ही हैं, दूसरों को भी कृतकृत्य करते हैं।

सात लोकों का अस्तित्व अपने इर्द-गिर्द एवं भीतर बाहर भरा पड़ा है। उसमें से इन्द्रियों एवं यंत्र उपकरणों से तो मात्र तीन को ही अनुभव किया जा सकता है। चौथे लोक में यदि प्रवेश संभव हो सके तो इन्हीं इन्द्रियों और इन्हीं यंत्र उपकरणों से ऐसा कुछ देखा समझा जा सकेगा जिसे आज की तुलना में अकल्पनीय और अप्रत्याशित एवं अद्भुत ही कहा जायेगा। तब गीता के अनुसार “आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेन्.........” की स्थिति सामने होगी। यह चौथा आयाम चेतना जगत और भौतिक जगत का घुला-मिला स्वरूप है। इसे ‘तप’ लोक कहा गया है। तपस्वी इसमें अभी भी प्रवेश पाते और अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न सिद्ध पुरुष कहलाते हैं।

इसके ऊपर के जनः महः और सत्य लोक विशुद्ध चेतनात्मक है। उनमें प्रवेश पाने वाला देवलोक में विचरण करता है, दैवी शक्तियों से सम्पन्न होता है और उस तरह की मनःस्थिति एवं परिस्थिति में होता है जिसे पूर्ण पुरुष, जीवन मुक्त, परमहंस एवं देवात्मा जैसे शब्दों में सामान्य जनों द्वारा तो कहा सुना ही जा सकता है।

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