
मन का दर्पण स्वच्छ होना चाहिए
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एक जंगल के निर्मल सरोवर में देवकन्याएँ निर्वस्त्र स्नान कर रही थीं। राजा परीक्षित प्यासे तो थे, पर युवतियों को इस प्रकार स्नान करते देखकर पेड़ की आड़ में छिप गए।
इतने में उधर से युवा शुकदेव वस्त्ररहित स्थिति में निकले, पानी पिया और नहाए भी। लड़कियों ने उन्हें देखा तो, पर स्नान उसी प्रकार करती रहीं।
शुकदेव के चले जाने पर थोड़ी देर बाद व्यास जी उधर से निकले। उन्हें देखते ही देवकन्याएँ कपड़े समेटकर भागीं और दूर चली गईं।
प्रसंग समाप्त होने पर परीक्षित सरोवर तट पर आए और लड़कियों से पूछा— “व्यास वृद्ध भी थे और वस्त्र पहने भी। जबकि शुक निर्वस्त्र और युवा थे। आप लोग युवक के साथ नहाती रहीं और वृद्ध को देखकर भागीं, इसका क्या कारण?
कन्याओं ने कहा— हे राजन्! हमने व्यास की दृष्टि में दोष देखा और शुक के नेत्रों में निर्मलता। इसी परख के कारण हमें भी व्यवहार निर्धारित करना पड़ा। दोष मनुष्य के शरीर में नहीं, मन में रहते हैं। परीक्षित का समाधान हो गया। आत्मसंयम की सच्ची परिभाषा देवकन्याओं से सुनकर वे वहाँ से लौट पड़े।
***-**--***
दक्षिणेश्वर मंदिर में ‘रामकृष्ण परमहंस’ पुजारी थे। मंदिर की निर्मात्री रानी ‘रासमणि’ के जमाता ‘मथुरादास’ एक दिन घुमाते-फिराते वेश्या के कोठे पर ले पहुँचे। नाच-गान ठना और मथुरा बाबू के इशारे पर वेश्याओं ने परमहंस जी को जकड़ने का उपक्रम आरंभ कर दिया।
परमहंस जी गद्गद हो गए और सभी के चरण पकड़कर वंदन करने लगे। रोज एक निश्चल माता की पूजा करता था, आज तो वे इतने रूप बनाकर सचल दीखती हैं और प्रत्यक्ष दुलार करती हैं। धन्य है माँ! आपकी लीला।
वेश्याएँ सकपका गईं। मथुरा बाबू परीक्षा लेने चले थे, पर वे स्वयं लज्जित होकर रह गए।
****
उन दिनों ‘वेगवती’ नदी में इस प्रकार बाढ़ आई कि ‘श्रावस्ती’ नगर के भीतर पानी भर गया और लगा कि पानी न घटा, तो पूरा नगर और सारा क्षेत्र डूब जाएगा।
बाढ़ घटाने का उपाय बताया गया कि कोई पूर्ण पतिव्रता जल में कमर तक घुसे, तो नदी का चढ़ाव उतरे।
पतिव्रताओं को खोजा गया, तो कितनी ही आगे आईं और पानी में घुसीं पर बाढ़ उतरी नहीं।
अंत में एक वेश्या आई। उसने अपने को पूर्ण पतिव्रता होने का दावा किया और पानी में घुस गई। देखते-देखते पानी उतर गया, सभी ने संतोष की साँस ली।
वेश्या कैसे सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता रही। यह पूछे जाने पर उसने एक ही उत्तर दिया। जिस दिन जिसकी संपर्कसाथिनी होने का अनुबंध किया, उसी दिन से सच्चे मन से उसकी पत्नी बनकर रही। अन्य किसी का ध्यान तक न लाई। वचन और दायित्व को ठीक तरह निभाने के कारण ही कदाचित में पतिव्रता सिद्ध हो सकी।
****
एक पतिव्रता और वेश्या आमने-सामने मकानों में रहती थी। वेश्या पतिव्रता के भाग्य को सराहती, अपनी विवशता के आँसू बहाती। पतिव्रता का चिंतन दूसरी तरह का था। वह अपनी पुण्यात्मा होने का गर्व करती और वेश्या को निरंतर गालियाँ देती रहती।
मरने के बाद दोनों परलोक पहुँची। उनके कृत्यों का कम और दृष्टिकोण का लेखा-जोखा अधिक रखा गया था। चिंतन की उत्कृष्टता के कारण वेश्या को पतिव्रता से ऊँचे स्वर्ग में भेजा गया।
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इतने में उधर से युवा शुकदेव वस्त्ररहित स्थिति में निकले, पानी पिया और नहाए भी। लड़कियों ने उन्हें देखा तो, पर स्नान उसी प्रकार करती रहीं।
शुकदेव के चले जाने पर थोड़ी देर बाद व्यास जी उधर से निकले। उन्हें देखते ही देवकन्याएँ कपड़े समेटकर भागीं और दूर चली गईं।
प्रसंग समाप्त होने पर परीक्षित सरोवर तट पर आए और लड़कियों से पूछा— “व्यास वृद्ध भी थे और वस्त्र पहने भी। जबकि शुक निर्वस्त्र और युवा थे। आप लोग युवक के साथ नहाती रहीं और वृद्ध को देखकर भागीं, इसका क्या कारण?
कन्याओं ने कहा— हे राजन्! हमने व्यास की दृष्टि में दोष देखा और शुक के नेत्रों में निर्मलता। इसी परख के कारण हमें भी व्यवहार निर्धारित करना पड़ा। दोष मनुष्य के शरीर में नहीं, मन में रहते हैं। परीक्षित का समाधान हो गया। आत्मसंयम की सच्ची परिभाषा देवकन्याओं से सुनकर वे वहाँ से लौट पड़े।
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दक्षिणेश्वर मंदिर में ‘रामकृष्ण परमहंस’ पुजारी थे। मंदिर की निर्मात्री रानी ‘रासमणि’ के जमाता ‘मथुरादास’ एक दिन घुमाते-फिराते वेश्या के कोठे पर ले पहुँचे। नाच-गान ठना और मथुरा बाबू के इशारे पर वेश्याओं ने परमहंस जी को जकड़ने का उपक्रम आरंभ कर दिया।
परमहंस जी गद्गद हो गए और सभी के चरण पकड़कर वंदन करने लगे। रोज एक निश्चल माता की पूजा करता था, आज तो वे इतने रूप बनाकर सचल दीखती हैं और प्रत्यक्ष दुलार करती हैं। धन्य है माँ! आपकी लीला।
वेश्याएँ सकपका गईं। मथुरा बाबू परीक्षा लेने चले थे, पर वे स्वयं लज्जित होकर रह गए।
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उन दिनों ‘वेगवती’ नदी में इस प्रकार बाढ़ आई कि ‘श्रावस्ती’ नगर के भीतर पानी भर गया और लगा कि पानी न घटा, तो पूरा नगर और सारा क्षेत्र डूब जाएगा।
बाढ़ घटाने का उपाय बताया गया कि कोई पूर्ण पतिव्रता जल में कमर तक घुसे, तो नदी का चढ़ाव उतरे।
पतिव्रताओं को खोजा गया, तो कितनी ही आगे आईं और पानी में घुसीं पर बाढ़ उतरी नहीं।
अंत में एक वेश्या आई। उसने अपने को पूर्ण पतिव्रता होने का दावा किया और पानी में घुस गई। देखते-देखते पानी उतर गया, सभी ने संतोष की साँस ली।
वेश्या कैसे सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता रही। यह पूछे जाने पर उसने एक ही उत्तर दिया। जिस दिन जिसकी संपर्कसाथिनी होने का अनुबंध किया, उसी दिन से सच्चे मन से उसकी पत्नी बनकर रही। अन्य किसी का ध्यान तक न लाई। वचन और दायित्व को ठीक तरह निभाने के कारण ही कदाचित में पतिव्रता सिद्ध हो सकी।
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एक पतिव्रता और वेश्या आमने-सामने मकानों में रहती थी। वेश्या पतिव्रता के भाग्य को सराहती, अपनी विवशता के आँसू बहाती। पतिव्रता का चिंतन दूसरी तरह का था। वह अपनी पुण्यात्मा होने का गर्व करती और वेश्या को निरंतर गालियाँ देती रहती।
मरने के बाद दोनों परलोक पहुँची। उनके कृत्यों का कम और दृष्टिकोण का लेखा-जोखा अधिक रखा गया था। चिंतन की उत्कृष्टता के कारण वेश्या को पतिव्रता से ऊँचे स्वर्ग में भेजा गया।
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